Kargil Vijay Diwas: परिजनों को शहादत पर गर्व है, लेकिन हमेशा के लिए खोने का दर्द भी
कारगिल युद्ध में शहीद हुए पंजाब के सैनिकों के परिवारों के मन में एक ओर जहां बेटे या पति की देश के लिए शहादत पर गर्व है वहीं उन्हें हमेशा के लिए खो देने का दर्द भी है।
जेएनएन, जालंधर। कारगिल युद्ध में शहीद हुए पंजाब के सैनिकों के परिवारों के मन में एक ओर जहां बेटे या पति की देश के लिए शहादत पर गर्व है, वहीं उन्हें हमेशा के लिए खो देने का दर्द भी है। हर परिवार उस जगह को देखना चाहता है, उस मिट्टी को छूना चाहता है, जहां उनके प्यारे देश के लिए शहीद हो गए। द्रास सेक्टर में बने कारगिल वॉर मेमोरियल में इन शहीदों की यादों को संजोया गया है। इसे देखने अब तक पंजाब के शहीदों के चंद ही परिवार जा पाए हैं। अन्य अधिकांश परिवारों के मन में वहां जाने की इच्छा तो है, लेकिन साधनों की कमी और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण वे लाचार हैं। घर पर ही वे अपने बिछुड़े प्रियजनों की कुछ निशानियों को सहेजे हुए हैं, जिनमें गर्व भी छिपा है और दर्द भी। आइए इन्हीं परिवारों के अनुभवों से रू-ब-रू होते हैं।
लगा अभी पहाड़ों से निकल आएगा बेटा
कैप्टन अमोल कालिया, वीर चक्र
‘पहली बार जब हम कारगिल के द्रास में बने स्मारक स्थल पर पहुंचे तो वहां ऐसा लगा कि हमारा अमोल अभी भी इन बर्फीलेे पहाड़ों में है। ऐसा आभास हो रहा था कि बर्फ की सफेद चादर से ढके पहाड़ों से कुछ ही देर में अमोल हमें मिलने आ रहा है। आंखें नम हो चुकी थी। स्मारक स्थल पर लगे शिलापट पर उसका नाम पढ़कर आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। इसके बाद लगातार हम तीन बार वर्ष 2016 तक स्मारक स्थल देखने जाते रहे। इस बार हमें विशेष कार्यक्रम में बुलाया नहीं गया है, जिसके लिए हमें मलाल है।’ यह कहना है नंगल के शहीद कैप्टन अमोल कालिया के पिता सतपाल कालिया का।
उल्लेखनीय है कि अध्यापक सतपाल कालिया व ऊषा कालिया के बेटे वीर चक्र विजेता कैप्टन अमोल कालिया की याद में यहां नंगल शहर में उनके नाम पर स्मारक बनाया गया है। साथ ही एनएफएल नंगल इकाई के जिस स्कूल में उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा हासिल की थी उसका नाम भी शहीद के नाम पर रख दिया गया है। यही नहीं, हिमाचल प्रदेश के जिला ऊना में स्थित शहीद का पैतृक गांव चिंतपूर्णी होने के कारण नंगल के साथ हिमाचल के प्रवेश द्वार पर भी हिमाचल सरकार ने एक भव्य गेट बनवाया है। नंगल शहर के प्रवेश द्वार पर भी कारगिल शहीदों की याद में वार मेेमोरियल बनाकर वहां सभी शहीदों के सम्मान में सभी के नाम लिखे गए हैं।
दादी के संस्कार पर न रुका, आया शहीद होकर
सिपाही मेजर सिंह
‘मेरा बेटाा मेजर सिंह आठ सिख यूनिट पठानकोट के मामून कैंट में तैनात थी। जब कारगिल युद्ध के लिए रवाना होने को कह दिया गया उन्हें। वह उस दिन मात्र एक घंटे की छुट्टी लेकर अपनी बीमार दादी अमर कौर को मिलने घर आया। मानो दादी की सांसे उसेे ही देखने का इंतजार कर रही थीं। उसके पहुंचने के कुछ देर बाद ही दादी चल बसी, लेकिन वह उनके अंतिम संस्कार के लिए नहीं रुका, क्योंकि भारत मां के प्रति उसका फर्ज उसे पुकार रहा था। सारा प्रेम व भावनाएं मन में ही दबाकर चला गया। क्या मालूम था कि अब अपने संस्कार पर लौटेगा।’ गुरदासपुर के कस्बा दीनानगर के गांव भगवां के शहीद मेजर सिंह की मां रखवंत कौर बेटे से अंतिम मुलाकात को याद करते हुए नम आंखों से बोलीं।
उन्होंने बताया, ‘कारगिल युद्ध के बाद आठ सिख यूनिट द्वारा कारगिल बुलाए जाने पर जब हम शहीदी स्मारक देखने पहुंचे तो ऐसा लगा कि उन वादियों में आज भी मेरा मेजर मौजूद है। वहां उसका नाम देखकर लगा कि फिर से बेटे से मेल हो गया। बेटे को खोने का दर्द तो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, लेकिन मातृभूमि के लिए शहादत देना भी हर किसी को नसीब नहीं होता, इसीलिए गर्व है अपने बेटे की वीरता पर।’ रखवंत कौर कहती हैं कि बेटे के अंतिम संस्कार के समय सरकार द्वारा किए सड़क निर्माण के वादे भले ही आज भी पूरे नहीं हुए, लेकिन खुशी है कि मेरे बेटे से प्रेरणा लेकर गांव के करीब 60 युवक भारतीय सेना में भर्ती हुए हैं।
पति की वर्दी देती है उनके साथ होने का एहसास
सूबेदार निर्मल सिंह, वीर चक्र
‘मेरे लिए सबसे अनमोल चीज है मेरे शहीद पति की वर्दी, जो उनकी शहादत के समय उनके पार्थिव शरीर के साथ घर आई थी। आज 20 साल बाद भी इसे उसी तरह संभाल कर रखा है मैंने।’ प्रेम व गर्व से पति वीर चक्र विजेता सूबेदार निर्मल सिंह की वर्दी दिखाते हुए बताती हैं गुरदासपुर के गांव छीना बेट की मंजीत कौर। ‘जब कभी उनकी बहुत याद आती है या कोई मुश्किल घड़ी आती है तो इसे निकाल कर देख लेती हूं। तब महसूस होता है जैसे वह मेरे साथ हैं। एक अजीब सा सहारा मिल जाता है जो मेरे आत्मविश्वास को बढ़ा कर उस मुश्किल घड़ी का हल निकालने में मददगार होता है।’ अपने कारगिल दौरे को याद करते हुए वह कहती हैं कि शहीदी स्मारक पर उन्होंने अन्य शहीदों के साथ अपने शहीद पति की तस्वीर व शिलान्यास पर अंकित उनके नामों को छुआ तो उन्हें अपने पति के स्पर्श की अनुभूति हुई। उन्हें अपने पति की शहादत पर गर्व है और हमेशा रहेगा।
पति नहीं, शहादत की खबर आई
लांस नायक हरपाल सिंह
‘दो बेटियों के बाद 1999 में हमारा बेटा हुआ था। घर में खुशी का माहौल था बच्चों के लिए अनेक सपने बुने थे जिन्हें साथ-साथ पूरा करना था, इसीलिए जंग खत्म होने के बाद उनके लौटने का इंतजार था, लेकिन वो नहीं उनकी शहादत की खबर आई। तब बेटा मात्र तीन माह का था।’ यह कहना था कारगिल में शहीद हुए अमृतसर के गांव जेठूवाल के लांसनायक हरपाल सिंह की पत्नी दविंदर कौर का। भरे हुए गले से वह बोलीं, ‘2008 में जब कारगिल में शहीदों के लिए स्मारक का निर्माण हुआ तो मैं पूरे परिवार के साथ वहां गई। वहां पहुंचकर गर्व से सिर ऊंचा तो हो रहा था लेकिन दर्द भरी भावनाओं के सैलाब को पलकों के बांध रोक नहीं पाए। ’
कारगिल पहुंच दर्द पर गर्व हावी हो गया
नायक सूबेदार करनैैल सिंह, वीर चक्र
तरनतारन के गांव रानीव्लाह के वीर चक्र विजेता शहीद नायक सूबेदार करनैैल सिंह का परिवार 2017 में कारगिल गया तो सभी का सिर गर्व से ऊंचा हो गया। पत्नी रंजीत कौर कहती हैं कि पति के बिछुड़ने का दर्द तो सदा ही रहेगा, लेकिन कारगिल पहुंचकर उनकी शौर्य गाथा वहां लिखी देख के मन में गर्व से प्रफुल्लित हो उठा। उनकी फोटो देख आंखें नम तो हुई, लेकिन उन दर्द भरे आंसुओं में गर्व की भावना भी समायी थी। मेरे दोनों बेटों ने हमेशा पिता की बहादुरी के किस्से सुने ही थे, लेकिन वहां पहुंचकर उनके साहस को और ज्यादा महसूस कर पाए।
बेटे की निशानियां तो हैं, उन्हें देखने की हिम्मत नहीं
डिप्टी कमांडेंट महिंदर राज, बीएसएफ
कारगिल युद्ध के दौरान बीएसएफ के डिप्टी कमांडेंट महिंदर राज को खोने वाले माता-पिता ने दोहरी मार झेली है। एक ओर देश के लिए बेटे को खोया दूसरी ओर उसकी निशानी यानी पोते को उनकी बहू ने उनसे दूर कर दिया, जो कुछ माह के बच्चे को लेकर मायके चली गई थी। फिर केवल 10 साल पहले एक बार पोता उन्हें मिलने आया और उसके बाद से वे उसे देखने को तरस रहे हैं। शहीद की मां कमला देवी ने बेटे की अनेक निशानियां तो सहेज रखी हैं, लेकिन उन्हें देखने की हिम्मत वो बूढ़ी आंखें नहीं जुटा पातीं।
दैनिक जागरण ने जब उनके घर पर दस्तक दी तो बेटे की जुदाई की टीस एक बार फिर उभर आई। लगातार आंसुओं की बहती धारा के बीच शहीद की मां कमला देवी ट्रंक में रखी बेटेे के मैडल, घड़ी, पैन, डायरी, वर्दी व बैल्ट आदि निकाल और उन्हें प्यार से निहारने लगी। हालांकि दोनों को बेटे की शहादत पर गर्व है, लेकिन सरकार और जमाने से रंज है कि इन बीस सालों किसी ने पलटकर उनकी तरफ नहीं देखा कि वह किस हाल में दिन काट रहे हैं। महिंदर राज के पिता को पिछले साल अटैक हुआ था और वह न तो ठीक से बोल पाते हैं और न ही उनका मानसिक स्वास्थ्य अच्छा है। मां भी कई साल से रीड़ की हड्डी व टांग टूटने से शारीरिक तौर पर कठिनाई से दिन काट रही हैं।
इसी तिरंगे में लिपट कर लौटा था मेरा भाई
सिपाही पवन कुमार
‘आज भी जब कभी यह तिरंगा हाथ में लेता हूं तो लगता है जैसे मेरा भाई मुझे छू रहा है। एक अपनेपन का अहसास होता है। आखिर इसी तिरंगे में लिपटकर वह कारगिल से लौटा था। इसके स्पर्श से मन में भाई का अक्स उभरते ही सिर से पांव तक सिरहन दौड़ जाती है। जानता हूं कि वह कभी वापस तो नहीं आ सकता पर उसकी यह निशानी आज भी उसके आसपास होने का अहसास दिलाती है।
भाई की शहीदी पर हमें गर्व है, लेकिन कुछ खाली-खाली लगता है। जब कभी कोई फौजी छुट्टी पर घर आता तो ऐसा लगता है कि मेरा भाई भी जल्दी ही छुट्टी लेकर लौटेगा, पर अगले ही पल मन संभल जाता है कि वह तो कभी वापस नहीं आएगा।’ यह कहना है कारगिल युद्ध में शहीद हुए 14 जैक राइफल में तैनात पवन कुमार के भाई जसवंत सिंह का। उन्होंने बताया कि आज भी उन्होंने अपने भाई की वर्दी, आईकार्ड आदि को संभाल कर रखा है।
मुझे आज भी 5 जून 1999 की तारीख याद है जब हमें देर शाम मैसेज मिला था कि पवन कारगिल में कॉकसर सेेक्टर में मुठभेड़ के दौरान शहीद हो गया। चूंकि पहले किसी को पता ही नहीं था कि भारतीय इलाके में पाकिस्तानी घुस गए हैं और बंकरों में कब्जा किया हुआ है और बाद में इसे युद्ध घोषित किया गया था। हमने जब पार्थिव शरीर के लिए हाईकमान से बात की तो पता चला कि वह नहीं मिल रहा है, क्योंकि फायरिंग अधिक हो रही है। पूरी पैैट्रोलिंग पार्टी फंसी हुई है। लगभग डेढ महीना इंतजार करने के बाद पवन का पार्थिव शरीर गांव में लाया गया था इसी तिरंगे में लिपटा हुआ।
बच्चों के लालन-पालन में ही बीत गए 20 साल
सिपाही अजमेर सिंह
लुधियाना के गांव धूलकोट के शहीद अजमेर सिंह की पत्नी परमजीत कौर के हाथों में पति की फोटो और आंखों में तैरती उनकी यादें हैं। बताती हैं कि जब पति की शहीदी की खबर आइ तो दोनोंं बेटे बहुत छोटे थे। सरकार ने गांव के सरकारी स्कूल में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की नौकरी दे दी थी। पति के न रहने पर बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारियां निभाते हुए जिंदगी भागती गई। उनकी याद के रूप में ये फोटो ही हैं। हम सुबह-शाम उनकी फोटो को नमस्कार कर वाहेगुरु से सुख-शांति की अरदास करते हैं। मेरे दोनों बेटे पिता की सभी फोटो को साफ करके सजाते हैं। उन्हें इस बात का गर्व है कि पिता जी ने देश के लिए कुर्बानी देकर भारतीय इतिहास में परिवार का नाम सुनहरे अक्षरों में लिख दिया है। उनके शहीदी दिवस पर सारा परिवार गुरुद्वारे में फोटो को साथ लेकर अरदास करवाता है ।
जी करदा, पापा नाल गलां करां...
सिपाही बलविंदर सिंह
तरनतारन के गांव मल्मोहरी में शहीद बलविंदर सिंह के घर के आंगन का शृंगार है उनकी साइकिल। इसी पर बलविंदर सिंह कभी गांव की सैर करते थे और अब उनकी पोती इस पर खेलती है। बेटा सिमरजीत सिंह स्वयं फौज में भर्ती हो गया है और जब भी छुट्टी आता है तो अपने पिता की निशानी साइकिल को पूरी तरह चमका देता है। बलजीत कौर पति का पर्स दिखाते हुए कहती है, इसी पर्स से पैसे निकालकर वो मुझे और बच्चों को देते थे, आज सिमरजीत सिंह को हर माह मिलने वाली पगार पहले इस पर्स में रखी जाती है, उसी को निकालकर पैसे परिवार द्वारा खर्च किए जाते हैं तो लगता है इसके पापा का आशीर्वाद व बरकत इसमें है।
बीमारी के कारण नहीं जा पाई कारगिल
लांस नायक दलबीर सिंह
बटाला के गांव भुजियांवाली के लांस नायक दलबीर सिंह कारगिल युद्ध के दौरान 19 राष्ट्रीय राइफल में तैनात थे। पाकिस्तान की तरफ से फेंके गए बम के ब्लास्ट के कारण वह शहीद हुए। तब वह केवल 21 वर्ष के थे। घर में पत्नी तथा एक बेटा व बेटी है। बेटा परगट सिंह खुद फौज में सिपाही कार्यरत है। बेटी जसप्रीत कौर खालसा कालेज में बीएड कर रही है।
शहीद की पत्नी कुलविंदर कौर को कई बार कारगिल शहीद स्मारक जाने का अवसर मिला, लेकिन पति की शहादत के बाद वह बीमार हो गई। उन्हें काला-पीलिया हुआ है। उसने कहा कि वाहेगुरु ने कृपा की तो वे जरूर कारगिल स्मारक पर जाएंगी। उधर, शहीद के दोनों बच्चों से बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि शहीदी स्मारक देखने के लिए वे काफी इच्छुक हैं। कई बार फौज के आला अधिकारियों की तरफ से न्यौता भी आ चुका है। मगर मां की बीमारी के कारण वे वहां नहींं जा सकते हैंं। भविष्य में अवसर मिला तो जरूर कारगिल शहीदी स्मारक पर जाएंगे।
काश! इन शहीदों के परिवार भी देख पाएं वीर भूमि
अमृतसर के गांव कंग के कुलदीप, लांस नायक राकेश सिंह, गांव सलेमपुर के देसा सिंह, गुरदासपुर के चक्क शरीफ के गांव सालाहपुर बेत के सतवंत, धारीवाल के मुकेश, आलमा गांव के रणवीर सिंह, आनंदपुर साहिब के गांव लोअर दड़ौली के मलूक चंद, रोपड़ के कुबा हेड़ी के विक्रम, मुन्ने गांव के सिपाही जसविंदर सिंह, चंडीगढ़ - नंगल रोड पर गांव ढेर के सिपाही गोपाल, होशियारपुर म्यानी गांव के सूबेदार जोगिंदर सिंह तथा रड़ा गांव के रंजीत सिंह, कपूरथला के शालापुर दोना गांव के बलदेव सिंह जैसे शहीदों के परिवार भी कारगिल में बने शहीदी स्मारक नहीं जा पाए हैं। इन परिवारों की भी तमन्ना है कि भारत मां की रक्षा में शहादत का जाम पी कर जहां इनके प्रियजन शहीद हुए हैं उस वीर भूमि को जा कर देखें और उस कुर्बानी पर गर्व करें। (इनपुट : वंदना वालिया बाली, सुनील थानेवालिया, हरीश शर्मा, धर्मवीर मल्हार, बिंदु उप्पल, नीरज शर्मा, हरनेक सिंह जैनपुरी व विनय कोछड़)
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