जाने कहां गए वो दिन... कभी गुलजार थी यह फिल्म मंडी, आज पसरा है सन्नाटा
जाने कहां गए वो दिन जब फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स की मंडी सफलता की ‘चांदनी’ में नहायी रहती थी। आज इस फिल्म मंडी में सन्नाटा पसरा हुआ है।
जालंधर, जेएनएन। जाने कहां गए वो दिन जब जालंधर की फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स की मंडी सफलता की ‘चांदनी’ में नहायी रहती थी। लोकप्रियता का ‘आनंद’ उठा रहे वितरकों की सुनहरी ‘जंजीर’ बॉलीवुड से बंध चुकी थी। करीब तीन दशक बुलंदियां छूने वाली इस मंडी में ‘खलनायक’ के रूप में इंटरनेट व डिजटलाइजेशन ने ऐसी ‘दीवार’ खड़ी की कि यहीं से रिलीज हुई फिल्म ‘शोले’ का यह संवाद इस पर सटीक बैठने लगा... ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई।’ फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स की यह वो मंडी है जिसने इस सड़क को नाम दिया मंडी रोड। कभी जिन वितरकों के पास बॉलीवुड के दिग्गज निर्माता, निर्देशक व सितारे स्वयं आते थे, आज उन्हें खाने के लाले पड़े हैं। उस सुनहरेे दौर की यादें व आज के हालात से आपको रू-ब-रू करवा रही हैं प्रियंका सिंह।
देशभर में फिल्मों के बाजार में तीन दशक से ज्यादा लंबे समय तक राज करने वाला जालंधर के फिल्म बाजार का उद्योग अब बदहाली के दौर से गुजर रहा है। मंडी रोड पर लक्ष्मी सिनेमा के पास जिस गली में 1960 से लेकर 1990 तक के दौर में फिल्मों का बाजार सजा रहता था। तमाम निर्माता, निर्देशक व कलाकारों सहित फिल्मों के खरीदारों की भीड़ उमड़ी रहती थी, आज उस गली की 90 फीसद दुकानों पर ताला लग चुका है। कुछ दुकानें इतिहास के खंडहरों में तब्दील होकर फटे हुए पुरानी फिल्मों के पोस्टरों के साथ इस गली की ‘अमीरी’ की हकीकत आज भी बयां करती हैं।
डिजिटल व सेटेलाइट के जरिए फिल्मों के डिस्ट्रीब्यूशन तथा मल्टीप्लेक्सों के बाजार ने जालंधर की फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स की मंडी में सन्नाटा फैला दिया है। यह सब उस दौर में हुआ है जब पंजाब में नए सिरे से पॉलीवुड की फिल्मों ने बॉलीवुड की फिल्मों को बड़े पर्दे पर चुनौती दी है, लेकिन वह भी जालंधर के इस उद्योग को खड़ा नहीं कर पाईं।
विभाजन के बाद कलकत्ता से छीना था कारोबार
देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान के लाहौर से फिल्मी कारोबार की दुनिया कोलकाता में शिफ्ट हो गई थी, लेकिन करीब दो दशक के अंदर ही जालंधर के फिल्मी कारोबार से जुड़े कर्मठ लोगों ने कोलकाता से फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन का काम छीनकर जालंधर में फिल्मों की मंडी सजा डाली। इस काम में सबसे बड़े मददगार केएल सहगल, पृथ्वी राज कपूर, यश चोपड़ा, धमेन्द्र, दारा सिंह जैसे फिल्मी दुनिया से जुड़े पंजाब के चेहरे बने। 1960 के दशक से शुरू हुआ जालंधर का फिल्म कारोबार 1970 तक देशभर में अपना राज कायम कर चुका था।
पॉलीवुड भी नहीं सुधार सका हालात
सन् 2000 के दशक से जब पंजाब में फिर से पंजाबी फिल्मों का दौर शुरू हुआ तो वेंटीलेटर पर पहुंच चुके जालंधर के फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स के उद्योग में उम्मीद जगी कि एक बार फिर से फिल्मों की मंडी सजने लगेगी, लेकिन पॉलीवुड (पंजाबी फिल्म उद्योग) ने डेढ़ दशक में शानदार सफलता हासिल की और बड़े पर्दे पर हर सप्ताह बॉलीवुड को चुनौती देनी शुरू कर दी। हालांकि जालंधर की मंडी को इसका कोई लाभ नहीं मिला।
खंडहर बनी दुकानें
आज हालात यह है कि मंडी की दुकानें खंडहरों में तब्दील हो गई है। जिस मंडी में कभी पैर रखने के लिए भी जगह नहीं होती थी, वहीं आज सन्नाटा छाया रहता है। बस खाली जर्जर हुई इमारतें हैं, जो जंग में गुम हुए दफ्तरों के नाम वाले बैनर के बोझ से दबी नजर आती हैं। यह जरूर है कि अगर गोल्डन पीरियड में जालंधर के फिल्म डिस्ट्रीब्यूटरों ने पंजाब में फिल्मों को प्रमोट करके भविष्य के बदलाव पर नजर रखी होती तो आज यह दिन न देखने पड़ते। आज मंडी की हालत देखने के बाद यश चोपड़ा कि फिल्म ‘सिलसिला’ का गीत याद आ जाता है ‘मैं और मेरी तन्हाई, अक्सर ये बातें करते हैं...’।
इस तरह उजड़ा बाजार
दो दशक से ज्यादा तक फिल्मों के निर्माताओं ने थियेटरों में फिल्म को ब्राडकास्टिंग के जरिए दिखाने का सिलसिला शुरू कर दिया। रही सही कसर फिल्म उद्योग में आए कारपोरेट घरानों ने पूरी कर दी। एक बड़ा कारण डिजिटल प्रिंट भी बन गया। फिल्मों के अब डिजिटल प्रिंट आने लगे। साथ ही ब्राडकास्टिंग की सुविधा के चलते डिस्ट्रीब्यूटर्स की चेन ही खतम हो गई। वहीं मल्टीप्लेक्सों की चेन ने भी फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स का बंटाधार कर दिया।
यश चोपड़ा ने भी बढ़ाई थी फिल्म मंडी की रौनक
प्रसिद्ध फिल्म निर्माता यश चोपड़ा ने भी जालंधर से ही फिल्म डिस्टीब्यूटर का काम शुरू किया था। उन्होंने थोड़े ही समय में जालंधर से निकल कर मुंबई में अपना सेटअप बना लिया और वहां से कारोबार करने लगे। उस दौर में फिल्म डिस्ट्रीब्यूटरों के बड़े चेहरों में विजय कुमार, डी.पी.अरोड़ा, मलिंदर सिंह जैसे चेहरे 20 से 25 लाख रुपये की कमाई एक महीने में किया करते थे। आज पुरानी यादों व बातों के अलावा उनके पास कुछ नहीं है। कुछ वितरक काम ना चलने की वजह से अपने आफिसों को बेच के वो शहर ही छोड़ गए। कईयों ने पकोड़े बेचने का काम शुरू कर लिया तो कोई स्पोर्ट्स के सामान बनाने का काम शुरू कर दिया है।
तमाम हिट फिल्में इसी मंडी से पहुंची बॉलीवुड
1970 के दशक में रिलीज हुई ‘आराधना’, ‘कच्चे धागे’, ‘हाथी मेरे साथी’, ‘आनंद’, ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘गंगा जमुना’, ‘शोले’ जैसी हिट फिल्मों ने जालंधर के फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन की मंडी को हिट कर दिया। इस कारोबार से जुड़े कारोबारियों की मंडी रोड़ पर दुकानों (अड्डों) से लेकर उनके घरों तथा होटलों तक में महफिलें सजा करती थीं। इनमें फिल्मों के निर्माता से लेकर निर्देशक तथा कलाकार तक इनमें शिरकत करते रहे। इस सिलसिले को 1980 के दशक में ‘चांदनी’, ‘मिस्टर इंडिया’, ‘मैंने प्यार किया’, ‘खलनायक’, ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ व ‘सत्या’ जैसी फिल्मों ने और आगे बढ़ाया जो 1990 के दशक तक बॉलीवुड की तमाम हिट फिल्मों के दम पर जालंधर में फिल्मों की मंडी सजी रही।
इंटरनेट ने बर्बाद कर दिया
महक सिनेमा केे मैनेेेेजर व पूर्व फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर मलिंदर का कहना है कि इंटरनेट ने हमारे उद्योग को बर्बाद कर दिया। तमाम एप्स से लेकर नेट में फिल्में आसानी से उपलब्ध हैं। पहले मैं हर बड़ी फिल्म अपने थियेटर में दिखाता है। अब केवल भोजपुरी फिल्में ही लगाता हूं।
वो हमारा दौर था
फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर इंद्रपाल सिंह का कहना है कि बीता दौर हमारा था। फिल्म निर्माता हमारे दफ्तरों के चक्कर काटते थे। मंडी में पैर रखने की जगह नहीं होती थी। निर्माता सिफारिशें करवा कर हमसे मीटिंग फिक्स करते थे। अब दौर नहीं रहा। गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। अब तो रोटी के लाले पड़े हैं।
पंजाबी फिल्मों के वेंटीलेटर पर हूं
फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर विजय कुमार का कहना है कि मैं 40 सालों से इस फील्ड से जुड़ा हूं। पहले मैं केवल बड़ी फिल्मों के वितरण का काम करता था, अब छोटी-छोटी फिल्में खास तौर पर पंजाबी फिल्मों के वितरण से रोटी चला रहा हूं। एक दौर था जब मंडी में एक हजार के करीब डिस्ट्रीब्यूटर होते थे। अब 100 भी नहीं बचे हैं।
किस्मत खराब थी, इस लाइन में आ गया
पूर्व फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर रवि का कहना है कि मंडी की चांदनी देखकर जवानी में मैने भी अपना करियर इसी लाइन से बनाने के लिए यहां कदम रखा था। कुछ समय तो सब ठीक रहा अब हालात यह हो गए हैं कि अपना काम बंद करके दूसरों के लिए काम कर रहा हूं।
अब एक भी फिल्म नहीं मिलती
नार्दन इंडिया मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन के प्रधान डीपी अरोड़ा का कहना है कि गत 60 साल से इस लाइन में हूं। पहले सप्ताह में चार-चार फिल्मों का वितरण करवाता था। अब एक भी फिल्म नहीं मिलती है। पहले इतना काम रहता था कि फुर्सत नहीं होती थी किसी से बात करने की अब फुर्सत होती है लेकिन बात करने को कोई नहीं।
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