जालंधर में सेनापति के बिना काम कर रही है कांग्रेस की फौज, नहीं हो रही कार्यकारी प्रधानों की सुनवाई
जालंधर जिला कांग्रेस कार्यकारिणी भंग हुए दो साल हो गए हैं। कांग्रेस कार्यकर्ता बिना सेनापति के दिशाहीन होकर पार्टी के एजेंडा के बजाय अपने-अपने एजेंडा पर काम कर रहे हैं। विधायकों के दफ्तरों में मत्था टेकना शुरू कर दिया है।
जालंधर [मनोज त्रिपाठी]। दोआबा के गढ़ जालंधर में कांग्रेस सेनापति के बिना ही काम कर रही है। पार्टी की नीतियों व कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार को लेकर कांग्रेस नेता और वर्कर्स विधायकों के निर्देशों का इंतजार करते हैं। कार्यकारिणी को भंग हुए अरसा हो चुका है और नई कार्यकारिणी के गठन को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं है। विधानसभा चुनाव के एजेंडा पर लगभग सभी पार्टियों ने काम भी शुरू कर दिया है। इन हालात में सेनापति के बिना कांग्रेस की फौज दिशाहीन होती जा रही है।
कार्यकारिणी के भंग होने से पहले जिला कांग्रेस कार्यालय पर रोजाना दर्जनों कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटती थी। वर्कर्स पार्टी की नीतियों से लेकर आने वाले कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार के लिए काम करते थे। कार्यकारिणी भंग होने के बाद धीरे-धीरे कार्यकर्ताओं ने भी जिला कांग्रेस दफ्तर जाने के बजाय विधायकों के दफ्तरों में मत्था टेकना शुरू कर दिया है।
जालंधर के 9 विधानसभा हलकों में छह पर कांग्रेस का कब्जा है। शाहकोट, जालंधर नार्थ, जालंधर कैंट, जालंधर वेस्ट व जालंधर सेंट्रल व करतारपुर से कांग्रेस के विधायक है। फिल्लौर, नकोदर और आदमपुर में अकाली दल के विधायकों का कब्जा है। एक दौर था जब जालंधर की सभी 9 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जीत हासिल करते थे। जालंधर को पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह ने कांग्रेस का गढ़ बनाया था। उसके बाद से जालंधर में कांग्रेस की लहर हो या न हो, लेकिन ज्यादातर सीटें उसी की झोली में जाती थी। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव के बाद बदले सियासी समीकरणों के चलते कांग्रेस जालंधर में सिमटती गई। कांग्रेस को इसका खामियाजा सत्ता से बाहर होकर चुकाना पड़ा।
वर्कर्स अपने-अपने एजेंडा पर काम कर रहे
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने सत्ता में वापसी के साथ-साथ जालंधर के गढ़ में नए सिरे से सेंधमारी करके परचम लहराया। हालांकि कांग्रेस की लहर के बाद भी अकाली व भाजपा के तत्कालीन गठबंधन के चलते तीन सीटें कांग्रेस की झोली में नहीं आ सकीं। जालंधर में कांग्रेस को और मजबूत करने के लिए जरूरी था कि पार्टी नए सिरे से मोर्चेबंदी करके सत्ता में रहने का लाभ उठाती। पार्टी ऐसा नहीं कर सकी। जिला कार्यकारिणी को भंग करने के दो साल बाद कांग्रेस कार्यकर्ता बिना सेनापति के दिशाहीन होकर पार्टी के एजेंडा के बजाय अपने-अपने एजेंडा पर काम कर रहे हैं।
कार्यकारी प्रधान पर कार्यकर्ताओं का विश्वास नहीं
कार्यकारी प्रधान शहरी बलदेव सिंह और देहात प्रधान सुक्खा लाली को जरूर पार्टी ने कुर्सी दे रखी है, लेकिन सरकार में उनकी सुनवाई न होने से कार्यकर्ताओं का उनके ऊपर विश्वास नहीं बन पा रहा है। इसका लाभ कांग्रेस विधायकों को मिल रहा है और कार्यकर्ता अपने-अपने कामों को लेकर विधायकों के दफ्तरों में जुटने लगे हैं। इससे विधायकों की स्थिति मजबूत हो रही है लेकिन संगठन कमजोर पड़ रहा है।
कैप्टन के प्रयास के बाद भी संगठन कमजोर
विधानसभा चुनाव का एजेंडा लगभग सियासी दलों की तरफ से सेट होने के बाद कांग्रेस ने भी विकास कार्यों को आधार बनाकर लोगों में नए सिरे से घुसपैठ शुरू करने की कवायद शुरू की है। इसके लिए मुख्यमंत्री कैैप्टन अमरिंदर सिंह ने आनलाइन सैकड़ों करोड़ के विकास कार्यों के उद्घाटन सहित बुनियादी सुविधाओं पर फोकस किया है। बावजूद इसके, अगर संगठन को मजबूत नहीं किया गया तो सेनापति के बिना टीम का क्या हश्र होगा, यह सभी को पता है।
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