मंजर तो खौफनाक था पर लहराते तिरंगे ने भर दिया जोश
बंटवारे का मंजर देख व सुन चुके लोगों की आंखें आज भी नम हैं पर उनके जोश ने तिरंगे की शान को बढ़ाया और देश को सम्मान दिलाया।
जेएनएन, जालंधर। 15 अगस्त 1947 को वंदेमातरम् व भारत माता की जय के चारों तरफ उद्घोष। हर तरफ खुशी का माहौल लेकिन खुशियां मना रहे चेहरों के पीछे गहरा जख्म था, जिसकी टीस आज भी उठती है। आजादी की उस खुशनुमा पल से पहले ही देश दो टुकड़ों में बंट चुका था। आजादी वाले दिन की धमक, वो मंजर और वो नजारा दर्द देता है... लेकिन शान से लहरा रहे तिरंगे ने जज्बा और जोश भर दिया। बंटवारे का मंजर देख व सुन चुके लोगों की आंखें आज भी नम हैं पर उनके जोश ने तिरंगे की शान को बढ़ाया और देश को सम्मान दिलाया।
पहली बार जब शान से लहराया था तिरंगा
पूर्व ओलंपियन बलबीर सिंह सीनियर ने 12 अगस्त, 1948 को लंदन ओलंपिक के फाइनल मुकाबले में इंग्लैंड को उसी की राजधानी में, उसी की जनता और महारानी के सामने धूल चटा हर भारतवासी का सीना चौड़ा कर दिया था। इसे अंग्र्रेजों से 200 साल का बदला लेने के रूप में देखा गया था। यह पहला मौका था, जब आजादी के बाद किसी दूसरे देश में भारतीय तिरंगा लहराया था और राष्ट्रगान गूंजा था।
बलबीर सिंह सीनियर कहते हैं, यही नहीं, खुद इंग्लैंड की महारानी को हमारे सम्मान में खड़े होना पड़ा था। उन सुनहरे दिनों को याद करते हुए बलबीर भावुक हो गए। कुछ देर रुकने और खुद को संभालने के बाद अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले, भारत ने इससे पहले भी साल 1928,1932 और 1936 में ओलंपिक गेम्स में हॉकी के गोल्ड मेडल जीते थे। लेकिन ये सभी जीत भारत को ब्रिटिश झंडे के नीचे मिली थीं।
मैं हारता तो तो मेरा देश हार जाता : मिल्खा सिंह
साल 1958 एशियन गेम्स में 200 मीटर की रेस 21.6 सेकेंड और 400 मीटर की रेस 46.6 सेकेंड में खत्म कर पूरी दुनिया के सामने हीरो की तरह उभरे मिल्खा सिंह बताते हैं कि उन्होंने गुलामी और देश के बंटवारे का दर्द झेला है। यही वजह है कि जब वे 1960 में पाकिस्तान दौडऩे गए, तो उनके मन में यही था कि यह प्रतियोगिता नहीं, युद्ध का मैदान है और मैं हारा तो मेरा देश हार जाएगा। मैंने जीत हासिल की और अकेले पूरे पाकिस्तान को हराकर तिरंगे की शान को बढ़ाया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान ने मुझे बुलाकर कहा कि मिल्खा आज तुम दौड़े।
हाय तौबा बोलकर बची मां की जान : वीना दादा
शिक्षाविद् वीना दादा का जन्म वर्ष 1950 में जिला जालंधर (पंजाब) में हुआ। माता-पिता बंटवारे के बाद पाकिस्तान जलालपुर जट्टां, जिला गुजरात से बंटवारे के बाद जालंधर आ गए। एक घटना को याद करके आज उनकी रूप तक कांप जाती है। वीना ने बताया कि उनके परिवार के सभी सदस्य काफिले के साथ जलालपुर जट्टां से ङ्क्षहदुस्तान वापस आ रहे थे। चलते-चलते कभी कोई काफिले से बिछड़कर पीछे रह जाता, तो कोई आगे निकल जाता। मेरी माता जी उन दिनों गर्भवती थीं और लगभग नौवां महीना चल रहा था। वे अक्सर काफिले से पीछे रह जातीं। मेरे पिता जी कभी उनकी देखभाल करते और कभी अपने परिवार के सदस्यों की।
सभी के मन में हमले का डर बना रहता। मेरी माता जी काफिले से काफी पीछे रह गईं। अचानक तीन चार लोग बड़ी-बड़ी लाठियां लेकर आ धमके। जैसे ही वे लोग उनकी तरफ बढ़े तो माता जी के मुंह से निकल पड़ा हाय तौबा। इतना सुनते ही उन्होंने कहा कि छोड़ दो एक तो यह मुस्लिम है दूसरा 'हामला' अर्थात गर्भवती है और वे आगे निकल गए। उस समय मेरी माता जी को अहसास हुआ कि मुस्लिम सखियों की मित्रता की वजह से ही उनकी जान बख्शी गई। क्योंकि वे अक्सर 'तौबा' शब्द का प्रयोग करती थीं। मेरी माता जी को भी इसे बोलने की आदत पड़ चुकी थी। मेरी माता जी के सौंदर्य एवं रंगरूप को देख सहेलियां 'तौबा' कह टिप्पणी करती थीं। इसके लिए उन्होंने अपने होने वाले शिशु को भाग्यशाली माना।
9 साल की उम्र में पिता का साथ छूटा, अंतिम बार उन्हें देख भी नहीं पाई
पाकिस्तान के गांव गिल में पैदा हुई गुरबचन कौर का हर आंसू विभाजन की त्रासदी की गवाही देता है। तब वह नौ साल की थीं। वे बताती हैैं कि गांव के कुल 85 लोगों के साथ हम गांव छोड़कर जा रहे थे। अचानक उपद्रवी टूट पड़े। सब बिखर गए। मेरे पिता को उपद्रवियों ने सामने ही तलवारों से काट दिया। मेरी बहन और भाई मुझे पकड़कर किसी तरह से भागे और जान बची। पिता का साया सिर से उठ गया और मैं उनके अंतिम दर्शन तक न कर सकी।
14 साल की उम्र में पार किया मौत का दरिया : महिंदर कौर
अमृतसर के जंडियाला गुरु के गांव देओ में रहने वाले लोगों ने इस तकलीफ को बहुत नजदीक से देखा। महिंदर कौर तब महज 14 साल की थीं। वह बताती हैं कि पाकिस्तान के गांव जोधु में घर-बार था। खुशहाल परिवार में सात भाई-बहन थे। 15 अगस्त 1947 से कुछ समय पहले कुछ लोग उनके गांव आए और औरतों को उठाने लगे। मेरे पिता के कुछ दोस्त मुसलमान थे जिन्होंने नसीहत दी कि वे यहां से फौरन निकल जाएं।
इसके बाद उपद्रवियों ने हमारी कपड़ों की दुकान में आग लगा दी और घर पर पत्थर फेंके। मजबूरी में उन्हें बाहर निकलना पड़ा। हर राह पर मौत मंडरा रही थी। लोग बदहवास से इधर-उधर भाग रहे थे। वो खौफनाक मंजर आज भी आंखों के सामने है। जब-जब भी स्वतंत्रता दिवस आता है हमारी आंखें नम हो जाती हैं। मुझे आज भी यकीं नहीं होता कि मौत की डगर से निकलकर हमने जिंदगी का सफर तय किया।
आंखों के आगे सैकड़ों लाशें देख तेज हो गए कदम : राम सिंह
90 वर्षीय राम सिंह के चेहरे की झुर्रियों में विभाजन का दर्द झलकता है। पाकिस्तान के गांव झंग में जन्मे राम ङ्क्षसह बताते हैं कि मुझे दोस्तों ने गांव छोड़कर जाने की सलाह दी थी। गांव से चार किलोमीटर दूर स्थित नहर के किनारे पहुंचे तो ठिठक गए। नहर में सैकड़ों लाशें पड़ी थीं। पानी का रंग लाल हो चुका था। मैं समझ गया कि अगर यहां से न निकले तो पूरा परिवार उपद्रवियों की हिंसा का शिकार बन जाएगा।
हम पैदल ही आगे बढ़ते गए। रास्ते में आर्मी जवान मिले, जो उन्हें सुरक्षित भारत ले आए। होते तो यकीनन हार जाते, लेकिन आज तुम उड़े हो। यह सब देशप्रेम ही था, जो मैं कर पाया। अभी भी मैं युवाओं को प्रेरित करने के लिए लगातार सफर करता रहता हूं, मेरी उम्र इसकी इजाजत नहीं देती, लेकिन फिर भी कोशिश करता हूं कि देश ने मुझे इतना कुछ दिया है कि मैं सेवा करता रहूं।
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