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पंजाब डायरी : पंथ पर बेअदब सियासत

राजनीतिक जमात को बेपर्दा जरूर कर दिया है जो ‘बेअदबी’ जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बहस तो चाहती है, मगर खुद को ‘अदब और बेअदबी’ की परिभाषा से बाहर रख कर।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 11 Sep 2018 01:35 PM (IST)Updated: Tue, 11 Sep 2018 03:30 PM (IST)
पंजाब डायरी : पंथ पर बेअदब सियासत
पंजाब डायरी : पंथ पर बेअदब सियासत

[अमित शर्मा]। श्रीगुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाओं की जांच रिपोर्ट को लेकर जिस तरह पंजाब विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान सदन के भीतर और बाहर पंजाब के राजनीतिक दल, चाहे सत्ताधारी कांग्रेस हो या फिर शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी-प्रतिक्रिया दे रहे हैं उससे एक बात तो स्पष्ट है कि इनमें से कोई भी मूल मुद्दे को लेकर गंभीर नहीं है। पंजाब विधानसभा में चली आठ घंटे की बहस और उसके बाद शहरों और गांवों की चौपालों तक पहुंचे इस पूरे प्रकरण में कुछ यथार्थपूर्ण निकल कर आया या नहीं, यह एक अंतहीन तर्क-वितर्क का विषय है। लेकिन हां, इसे लेकर जिस कदर इन दलों की टॉप लीडरशिप के बीच संकीर्ण, असंसदीय और अभद्र शब्दावली का प्रयोग आज भी जारी है उसने पंजाब की इस राजनीतिक जमात को बेपर्दा जरूर कर दिया है जो ‘बेअदबी’ जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बहस तो चाहती है, मगर खुद को ‘अदब और बेअदबी’ की परिभाषा से बाहर रख कर।

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शिरोमणि अकाली दल और भाजपा गठबंधन के शासनकाल के दौरान लगभग तीन वर्ष पहले प्रदेश में श्री गुरु ग्रंथ साहिब और अन्य धर्मग्रंथों के बेअदबी की अनेक घटनाएं हुईं। इन्हीं घटनाओं को लेकर राज्य में माहौल बिगड़ा। प्रदेश तो प्रदेश, समस्त भारत में अनेक सिख बहुल इलाकों में इन घटनाओं के विरोध में धरने-प्रदर्शन हुए। पंजाब के फरीदकोट जिले में ऐसे ही विरोध प्रदर्शन में दो सिख नौजवानों की पुलिस की गोली से मौत हो गई और यह हादसा उस समय की गठबंधन सरकार के गले की फांस बन गया। राज्य में सत्ता बदली। कैप्टन अमरिंदर सिंह की कांग्रेस सरकार ने इन घटनाओं की जांच के लिए जस्टिस रणजीत सिंह (रिटायर्ड) की अध्यक्षता में एक कमीशन बनाया।

पंजाब में ऐसे आयोगों की निराशाजनक कारगुजारी के विपरीत इस कमीशन ने अपनी जांच तय समय में पूरी की और विधानसभा में इस जांच रिपोर्ट को पेश किया गया। मानसून सत्र से पहले तक के इस पूरे घटनाक्रम पर नजर रख रहे हर हिंदू, सिख या फिर किसी भी अन्य धर्म से संबंध रखने वाले पंजाबी को एक बार तो यह आभास जरूर हुआ कि अराजकता फैलाने वालों पर शिकंजा कस चुका है, लेकिन अफसोस एक बार फिर वही हुआ जो पंजाब की राजनीतिक पृष्ठभूमि में दशकों से होता आया है। ‘धर्म और राजनीति’ का मिश्रण एक बार फिर असली मुद्दे पर हावी हो गया।

अकाली-भाजपा गठबंधन में बेरोकटोक होते रहे इस ‘राजनीति और धर्म’ के मिश्रण को दस साल तक चीख-चीख कर ‘घातक और अपवित्र’ बताने वाली कांग्रेस ने भी वही रास्ता अपना लिया। प्रदेश कांग्रेस सरकार ने आने वाले निकाय और फिर लोकसभा चुनावों में राजनीतिक विरोधियों को टक्कर देने के लिए इसी जांच रिपोर्ट को ढाल बनाकर पेश करने का प्रयास किया है। सिखों के धार्मिक मसलों पर ‘एकाधिकार’ का दावा करने वाले शिरोमणि अकाली दल से यह ‘एकाधिकार’ छीन, अपनी पार्टी को सिख समुदाय का ‘सबसे बड़ा हितैषी’ साबित करने की इस होड़ में कांग्रेस उन सब मुद्दों को पूर्णत: भुला बैठी जिसके बलबूते दो वर्ष पहले वह सत्ता में आई।

एसवाइएल का मसला हो या फिर पंजाब की बिगड़ती आर्थिक स्थिति, पंजाब में सस्ती बिजली और वैट रिफंड का चुनावी वादा हो या फिर बेरोजगारों को नौकरियां, आम लोगों को उच्च स्तरीय शैक्षणिक तथा स्वास्थ्य ढांचा उपलब्ध करवाने का सवाल हो या नशे को जड़ से खत्म करने की प्रतिबद्धता... हर वह फ्रंट जिस पर आने वाले लोकसभा चुनाव में सरकार को अपनी कारगुजारी का जवाब देना है, वह सब आज कहीं न कहीं प्रदेश कांग्रेस के इस ‘पंथक रुझान’ के शोरगुल में दब कर रह गया है।

खैर प्रदेश में हुई इन अफसोसजनक और निंदनीय बेअदबी की घटनाओं को लेकर पंजाब के तमाम राजनीतिक दलों का रुख कुछ भी हो, पर पिछले 15 दिनों में हुई हलचल ने हर पंजाबी को समझा दिया है कि यहां बेअदबी की बात करने वाली किसी भी राजनीतिक हस्ती या पार्टी को यह ‘अदब’ ही नहीं कि आमजन के असल मसलों को कैसे सुलझाया जाए ताकि उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरा जा सके। यहां सबका मकसद बस बवाल पैदा करना प्रतीत होता है, यह जानते हुए भी कि उससे हासिल कुछ नहीं होगा। इसी कारण शायद आज पंजाब से जुड़ा हर शख्स कुछ इस तरह महसूस कर रहा है, जैसे राहत इंदौरी ने इन पंक्तियों को लिखते वक्त महसूस किया होगाचिरागों को उछाला जा रहा है, हवा पर रौब डाला जा रहा है, न हार अपनी न अपनी जीत होगी, मगर सिक्का बार-बार उछाला जा रहा है।

[स्थानीय संपादक, पंजाब] 


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