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अमृतसर में दर्दनाक हादसे के बाद जिम्मेदारी से भागते जिम्मेदार

अमृतसर हादसे में व्यथित कर देने वाली अनेक कहानियों के बीच उदासीनता और निष्क्रियता से पूर्ण रूप से ग्रस्त हो चुकी राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्थाएं भी दिखी।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Tue, 23 Oct 2018 12:42 PM (IST)Updated: Tue, 23 Oct 2018 12:49 PM (IST)
अमृतसर में दर्दनाक हादसे के बाद जिम्मेदारी से भागते जिम्मेदार
अमृतसर में दर्दनाक हादसे के बाद जिम्मेदारी से भागते जिम्मेदार

अमित शर्मा, स्थानीय संपादक (पंजाब)

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गत शुक्रवार विजयदशमी की पावन शाम अमृतसर में एक हृदयविदारक घटना घटी। रेल पटरियों पर खड़े होकर रावण दहन देख रही भीड़ को एक तेज रफ्तार ट्रेन ने चपेट में ले लिया। मात्र दस सेकेंड में 61 लोगों की मौत हो गई और 70 से अधिक घायल हो गए। जितना भयावह यह हादसा था, उससे कहीं अधिक भयावह और विचलित कर देने वाला मंजर बाद के दिनों में देखने को मिला।

आंसू, आक्रोश और दर्द से भरी व्यथित कर देने वाली अनेक कहानियों के बीच सामने आया एक ऐसा प्रकरण जिसने उजागर किया उदासीनता और निष्क्रियता से पूर्ण रूप से ग्रस्त हो चुकी राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्थायों को। एक ऐसा प्रकरण जहां सब जिम्मेदार अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से भागते दिखे... कोई लोगों के गुस्से के डर से घटना के तुरंत बाद स्टेज से भागा तो कोई गिरफ्तारी के डर से घर से ही भाग गया। ...और जिन अन्य को आम जनता ने जिम्मेदार समझ अपने परिवार, अपने समाज या अपने देशवासियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंप अपना नुमाइंदा चुना, वह सब या तो प्रथम दृष्ट्या ही ‘क्लीन चिट’ देकर पूरे प्रकरण से पल्ला झाड़ गए या फिर घटना के 17 घंटे बाद औपचारिक दौरा कर राजकीय शोक और एक मजिस्ट्रेट जांच के आदेश जारी कर विदेश दौरे पर पुन: निकल गए। उसी दौरे पर जिसे मीडिया के कैमरों के समक्ष रद बताकर अपने ‘जिम्मेदार और जवाबदेह’ होने का अहसास करवाने की भरपूर कोशिशें की गई।

हादसे के लिए कौन जिम्मेदार कौन है? यह सवाल बेशक हर किसी की जुबां और जहन में है। इसका जवाब अभी नहीं तो कुछ दिन या फिर महीनों बाद जांच पूरी होने पर मिल ही जाएगा, लेकिन उस सबसे बड़े सवाल कि ‘क्या सरकार जिम्मेदार है? ..है तो जिम्मेदारी से भागती क्यों है?’ का जवाब जो अमृतसर जैसी हर घटना के बाद उठता रहा है, का उत्तर शायद किसी के पास नहीं है। हमारा हिंदुस्तान धर्म परायण देश है। यहां एक नहीं, अनेक उत्सव मनाए जाते हैं।

पंजाब के अमृतसर में हुआ दिल दहला देने वाला हादसा पहला नहीं है। देश में इससे पहले भी अनेक समारोहों ( धार्मिक या सामाजिक) के दौरान कई ऐसी भीषण घटनाएं हो चुकी हैं। लेकिन इन घटनाओं से न तो कभी सरकारों ने सबक लिया और न ही आयोजकों ने।

चाहे अमृतसर वाली घटना हो या पुराने ऐसे हादसे, एक बात साफ़ है कि हर घटना के पीछे है उदासीनता और निष्क्रियता से सरोबार हमारी प्रशासनिक व्यवस्था है जो शायद नेताओं के आगे घुटने टेक एक तरह से पूर्णत: पंगु हो चुकी है। इसी उदासीनता को बयान करती है अमृतसर हादसे से जुड़े हर उस व्यक्ति की अब तक की कारगुजारी जो ‘सरकार और दरबार’ का हिस्सा है।

सबसे पहले पुलिस की बात करें तो आयोजकों ने अनुमति मांगी जो उन्हें सशर्त दे दी गई, लेकिन शर्तें क्या थी- वो जो कोई नहीं जानता। न आयोजक, न अनुमति की सिफारिश करने वाला पुलिस अधिकारी। अब आयोजकों या मुख्य मेहमान के संदर्भ में देखें तो दोनों का एक ही मंतव्य था - ‘केवल नाम और शोहरत ’। मंच से ट्रेन ट्रैक को लेकर लोगों को चेतावनी जारी करने वाले आयोजकों ने क्यों नहीं उनकी सुरक्षा का बीड़ा खुद उठाया और क्यों नहीं मुख्य मेहमान रही नवजोत कौर सिद्धू ने मंच से लोों को उस समय सुरक्षित स्थान लेने का आग्रह किया जब आयोजकों ने ट्रैक पर जमा भारी भीड़ का जिक्र भी किया था।

हादसे के अगले दिन लोगों को शांति व्यवस्था बनाए रखने की अपील करती पुलिस।

रही बात रेलवे की तो विभाग गलती मानने को तो तैयार नहीं क्योंकि उसके अनुसार रेल ने तो गुजरना ही था। उसकी मानें तो ये मरने वालों की ही लापरवाही थी और वे खुद अपनी मौत के जिम्मेदार हैं। यह अलग बात है कि करीब एक दशक से यहां इसी तरह मनाए जाते रहे दशहरे के दौरान ट्रैक पर जमा होने वाली भीड़ को रोकने के लिए रेलवे ने कभी प्रशासन को नहीं लिखा। ...और अंत में राज्य सरकार, जिसके मुख्यमंत्री 17 घंटे बाद घटना का जायजा लेने तो पहुंचते हैं ..।

अमृतसर हादसे के बाद आरोपों- प्रत्यारोपों के बीच एक दूसरे पर दोष मढ़ने की राजनीति का जो दौर अब चला है, पूर्व में भी वही क्रम हर हादसे के बाद चलता रहा है। यही कारण है कि इस तरह के हादसों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। हर हादसे के बाद जांच की बात होती है। दोषियों पर कानूनी शिकंजा भी कसा जाता है। भारतीय प्रजातंत्र के तीन अहम ‘थ्री डी’ (डिबेट, डिस्सेंशन और डिसीजन) में से पहले दो का तो खूब चलन है। बड़े-बड़े कमीशन या बोर्ड गठित कर ऐसे हादसों को रोकने के लिए बनाए जाने वाले ज़रूरी नियम ,कानून और बुनियादी सुधार लाने जैसी बातों को लेकर हर स्तर पर ( राज्यों की विधानसभा हों या फिर संसद) डिबेट भी होती है और डिस्सेंशन भी लेकिन जब अंतिम लेकिन सबसे अहम ‘डी’ यानी ‘डिसीजन’ की बात आती है तो नतीजा हर देशवासी के मन को खिन्न कर देने वाला ही है।

हादसे के बाद एक साथ जली कई चिताएं।

ट्रेन ट्रैक पर इस जैसे अनेक हादसों के बाद भी सरकारें आज तक ऐसी कोई नीति का निर्धारण ही नहीं कर सकी जिससे भविष्य में इस तरह की घटना को रोका का सके। ऐसा तभी संभव है जब वोट बैंक की राजनीति में ‘जिम्मेदार’ प्रतिनिधि ट्रैक पर जान गंवाने वाले असंख्य ‘लापरवाह’ लोगों को मुआवजा देने की मांगे उठाने से इतर भी कुछ सोचें। सरकार, स्थानीय पुलिस व प्रशासन और रेलवे को ऐसे आयोजनों के बारे में स्पष्ट व कारगर नीति बनानी ही होगी, अन्यथा ऐसे हादसे देश को द्रवित करते रहे।

ऐसे में जहां आम लोगों को अपनी सुरक्षा के लिए प्राथमिक कदम स्वयं उठाने होंगे, वहीं रेल विभाग को शिथिल पड़े ‘मानसून गश्त’ के कांसेप्ट को शिद्दत से दोबारा लागू करना होगा। ठीक उसी तर्ज पर जिस तरह केरल में इसी रेलवे कर्मचारियों की ‘मानसून गश्त’ ने कावेरी नदी पर हर साल एक धार्मिक आयोजन के दौरान होने वाली मौतों पर अंकुश लगा लिया है।

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