शिवालिक क्षेत्र में बजूद खोते जा रहे हैं देसी आम
देसी आमों की कई प्रजातियों की उपलब्धता के लिए मशहूर जिला होशियारपुर के शिवालिक क्षेत्र में लाखों की तादाद में देसी आमों की कई प्रजातियों के पेड़ थे।
सरोज बाला, दातारपुर : देसी आमों की कई प्रजातियों की उपलब्धता के लिए मशहूर जिला होशियारपुर के शिवालिक क्षेत्र में लाखों की तादाद में देसी आमों की कई प्रजातियों के पेड़ थे। पूरे शिवालिक क्षेत्र, हरियाना, गढ़दीवाला, भूंगा, मन्होता, चमूही कमाही देवी में सड़क के किनारे देसी आमों के बहुत बड़े बड़े बा़ग हुआ करते थे। दसूहा से होशियारपुर सड़क के नवनिर्माण के मौके पर यहां स्थित हजारों विशालकाय पेड़ कट गए। इससे एक तो इन आमों की कई प्रजातियां लुप्त हो गईं। ऊपर से पर्यावरण को नुक्सान हुआ सो अलग से। नतीजतन देसी आमों की सैकड़ों प्रजातियों का वजूद संकट में पड़ गया है।
विभाग ने अपनी इस विरासत को बचाने की जगह पर कलमी आमों की बागवानी को बढ़ावा दिया और शिवालिक क्षेत्र की पुरानी नस्लों को सिरे से ही दरकिनार कर दिया। पतला छिलका, छोटी गुठली वाला रसीला और मीठा तथा पाचन शक्ति को बढ़ाने वाले आदि अनगिनत खूबियां देसी आम में होती हैं। इससे बने आचार, चटनी व मुरब्बा बड़ा स्वादिष्ट व गुणकारी होता है। यह खट्टे मीठे, संदूरी आदि कई प्रजातियों के होते है। इनके पेड़ बहुत ऊंचे आकार के होते हैं, पर अब तो किसानों ने भी इन के बढ़ावे के कोई ़खास उपाय नहीं किए। विभाग की प्रेरणा और भेड़चाल के कारण यहां दशहरी आम के बाग तो पैदा हो गए हैं, पर उनमें यहां के मौसम तथा कोहरे को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं है। इस कारण बागवानों को काफी नुकसान होता है।
बागवान विनोद, जोगिदर और प्रकाश के मुताबिक अगर सही मायनों में बागवानी और विशेषकर आमों के बलबूते पर कंडी क्षेत्र की आर्थिक स्थिति को सुधारना है, तो इस क्षेत्र में पाए जाने वाले आम की पुरानी जातियों का गहन सर्वे करवाकर यहां की अच्छी प्रजातियों को टिशू कल्चर के दम पर बचाने की कोशिश की जानी चाहिए। कई बार इन आमों के पेड़ों को काटने पर पाबंदी प्रशासन ने लगाई पर नतीजा निराशाजनक ही रहा और यह विलुप्त होने की कगार पर हैं।
लोग खुद ही नहीं लगाते देसी आम के पेड़ : कृषि विकास अधिकारी
कृषि विकास अधिकारी डॉ. अजर कंवर का कहना है कि लोग स्वयं देसी आम के पेड़ लगाने नहीं चाहते। इसका फल पूरी तरह से 30-35 साल लगाने के बाद मिलना शुरू होता है। दूसरी नस्लें तीन-चार सालों में ही भरपूर फल देती है। इससे किसानों को लाभ होता है। दूसरे किसान इस कारण भी इन्हें नही लगाते की ये बहुत जगह घेरते हैं और इससे कृषि योग्य भूमि घट जाती है। इसलिए लोग छोटी प्रजाति के पेड़ लगाने को ही तरजीह देते हैं।