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बेजान मिट्टी में जान भरने वाले दो वक्त की रोटी को मोहताज

प्रदीप लूथरा, बटाला बेजान मिट्टी में अपने हुनर से जीवंत मूर्तियां बनाने वाले शिल्पकार अपनी इस

By JagranEdited By: Published: Fri, 25 Aug 2017 03:24 PM (IST)Updated: Fri, 25 Aug 2017 03:24 PM (IST)
बेजान मिट्टी में जान भरने वाले दो वक्त की रोटी को मोहताज
बेजान मिट्टी में जान भरने वाले दो वक्त की रोटी को मोहताज

प्रदीप लूथरा, बटाला

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बेजान मिट्टी में अपने हुनर से जीवंत मूर्तियां बनाने वाले शिल्पकार अपनी इस अद्भुत और विलक्षण प्रतिभा के बावजूद दो वक्त की रोटी से भी मोहताज हैं।

बटाला-जालंधर उच्च मार्ग डेरा डाले कुछ शिल्पकार विभिन्न देवी देवताओं से लेकर जीव तक की प्रतिमाएं बनाने का काम बारीकी से बखूबी करते हैं, लेकिन इतना सबकुछ होने के बावजूद भी वह अपने बीबी बच्चों का पेट नहीं भर पा रहे। शिल्पकारों का हाल इस कदर है कि इनके पास शरीर ढकने के लिये इन्हें कपड़े तक नहीं होते।

सोने की समस्या भी इतनी विकराल है कि शिल्पकारों के छोटे-छोटे बच्चों को अपनी मां के आंचल मे लिपट कर खुले आसमान के नीचे सर्दी गरमी, आंधी-बरसात सहित सभी मौसम में सड़क के किनारे सोना पड़ता है। खुदा का शुक्र है कि पंजाब में लोगो द्वारा इन्हे मुफ्त मे रहने को जगह दे दी जाती है।

खुले आसमान के नीचे झौंपड़ी पर प्लास्टिक की तिरपाल की छत्त के बिना किसी दरवाजे व खिड़की डेरा जमाए नत्था लाल का कहना है कि वह राजस्थान के पाली जिला के प्रतापगढ़ का निवासी है और मूर्ति बनाना उनका पुस्तैनी काम है। उनकी तीन पीढि़यां मूर्तियां बनाने का काम करती हैं और राजस्थान में मूर्तियों का मूल्य कम मिलने के कारण उन्हें पंजाब में रोटी रोजी कमाने के लिए आने को मजबूर होना पड़ा है। वह पिछले 20 सालों से यहां रह रहा है।

सारा दिन मूर्तियां बेचने के लिए शहर जाता है और सुबह शाम मूर्तियां बनाने का काम करता है। तब कहीं जाकर दो जून की रोटी नसीब होती है। आज कल कंप्यूटर, इंटरनेट, इलेक्ट्रानिक खिलौनों तथा केबल टीवी के दौर में लोग मूर्ति कम ही खरीदना चाहते हैं और उनके द्वारा बनाई गई मूर्ति की 10 से 100 रुपये के बीच ही बिकती है। आजकल घर-घर जाकर मूर्तियों की बिक्री करनी पड़ती है। इस कारण शहरी औरतें लागत से कम कीमत पर खरीदने को राजी होती हैं।

एक नन्ही शिल्पकार राधा (14 साल) ने बताया कि कई बार पेट भरने की खातिर लागत से कम कीमत पर मूर्तियों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसके अलावा मूर्ति बनाने वाला मैटीरियल भी बहुत मंहगा हो गया है। मूर्ति के लिए प्रयोग होने वाली पीओपी की बोरी 90 रुपये से मंहगी होकर 150 रुपये हो गई है, जबकि मूर्तियों को इस्तेमाल होने वाला रंग की डिब्बी 50 रुपये से बढ़कर 100 रुपये हो गई है और सुनहरा तथा सफेद रंग 1000 रुपये प्रति किलो हो गया है। जिस कारण मूर्ति महंगी बिकनी चाहिए, लेकिन उल्टा सस्ती कीमत पर बिक रहा है।

कुल मिलाकर अपने हाथों से मिट्टी में जान फूंकने वाले शिल्पकार की ¨जदगी नारकीय है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी के बाद गणेश चतुर्थी तथा दीपावली के बाद वह फिर से राजस्थान लौट जाएंगे और वहां जा कर मेहनत मजदूरी करेंगे।


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