कारीगर नहीं सिखाना चाहते बच्चों को पुतले बनाना
बढ़ती महंगाई और कम मेहनताने के चलते अब पुतले बनाने की कला विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है।
इकबालदीप संधू, मंडी गोबिदगढ़
बढ़ती महंगाई और कम मेहनताने के चलते अब पुतले बनाने की कला विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है। इसका कारण ये है कि इस कला से लंबे समय से जुड़े कारीगर आगे अपने बच्चों को पुतले बनाने की कला नहीं सिखाना चाहते।
अपनी दर्दभरी दास्तां सुनाते हुए धूरी के धीरज ने बताया कि आज वे मायूस हैं क्योंकि कोई भी उनकी सुध नहीं ले रहा। पिछले समय आए कोरोना काल ने तो उनकी कमर ही तोड़ दी थी। एक साल वे बिल्कुल खाली रहे। यही नहीं, खाने तक के लाले पड़ गए थे। नम आंखों से धीरज ने बताया कि इस पारंपरिक कला को जीवित रखने के लिए कोई भी सरकारी मदद नहीं मिल रही। अगर समय रहते पुतले बनाने की इस कला को न बचाया गया तो यह कला सिर्फ किताबों में या इतिहास बनकर रह जाएगी। मेहनत का मोल नहीं मिलने के कारण वह अपने बच्चों को ये कला नहीं सिखा रहे हैं। पुतले तैयार करवा रही श्री कृष्णा मंदिर प्रबंधक सभा मंडी गोबिदगढ़ ने कहा कि वह पिछले 62 साल से दशहरा मनाते आ रहे हैं। इस बार पुतलों में 1500 बम लगाए गए हैं। 25 से 30 दिन में तैयार होते हैं पुतले
पुतले बनाने की कला मुश्किल भरी है। इसमें तीन पुतले बनाने में औसतन 25 से 30 दिन तक दिन रात का समय लग जाता है। ये साल में एक बार ही होता है जब वो अपना कारोबार कर सकते हैं। इसके अलावा साल भर वो इसी महीने का इंतजार करते हैं कि कब ये समय आए और उनके घर के गुजारे के लिए कुछ पैसे का जुगाड़ हो सके।