कभी इन नेताओं की बोलती थी तूती, आज लड़ रहे अस्तित्व की लड़ाई
पंजाब में कई ऐसे नेता हैं जिनकी प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश की राजनीति में भी तूती बोलती थी लेकिन अति महत्वाकांक्षा के चलते आज वे राजनीति के हाशिये चले गए हैं।
चंडीगढ़ [इन्द्रप्रीत सिंह]। कहते हैं वक्त से बड़ा कोई सिकंदर नहीं होता। इसका उदाहरण देखना हो तो राजनीति से बढ़िया कोई जगह नहीं। पंजाब में कई ऐसे नेता हैं, जिनकी प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश की राजनीति में भी तूती बोलती थी, लेकिन अति महत्वाकांक्षा के चलते आज वे राजनीति के हाशिये चले गए हैं और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ये सभी नेता अच्छे वक्ता भी रहे हैं। कभी वक्त था कि इन्हें सुनने के लिए हुजूम उमड़ता था, लेकिन अब कोई इनकी बात सुनने को राजी नहीं है।
जगमीत बराड़
1991 में फरीदकोट हलके से पहली बार जगमीत सिंह बराड़ जीतकर संसद की सीढ़ियां चढ़े। अपने पहले ही भाषण में जगमीत बराड़ ने जिस तरह से पंजाब का केस संसद में रखा, लाल कृष्ण आडवाणी ने उन्हें उनकी सीट पर जाकर बधाई दी। तभी से उन्हें आवाज-ए-पंजाब कहा जाने लगा। वह सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। 1999 में उन्होंने सुखबीर बादल को हराकर सभी को हैरत में डाल दिया। कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ उनकी कभी नहीं बनी। अपने आप को सियासत में रखे रहने के लिए वह ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए और पंजाब के अध्यक्ष बन गए, लेकिन ज्यादा दिन नहीं टिक सके। अब शिअद में शामिल हो गए हैं।
बीर दविंदर सिंह
सिख स्टूडेंट फेडरेशन से अपना करियर शुरू करने वाले बीर दविंदर सिंह भी बराड़ की तरह कुशल वक्ता रहे हैं और शायद ही कोई पार्टी बची हो, जिसमें वह न रहे हों। वह खुद कहते हैं कि उनके पटियाला स्थित घर के स्टोर में इतनी पार्टियों के झंडे और पोस्टर हो गए हैं कि उनके अपने रिश्तेदार ही हंसते हैं कि अब कौन सी पार्टी बची है? सरहिंद से चुनाव जीतकर पहली बार विधानसभा पहुंचे। 2002 में खरड़ विधानसभा हलके से जीतकर विधायक बने। उनकी तेज तर्रार तकरीरें अकसर पार्टी के लिए भी भारी पड़ जाती थीं।
लवली यूनिवर्सिटी पर अपनी ही सरकार को घेरा। खुद कैप्टन अमरिंदर सिंह उनके सवालों से नहीं बच सके। सिख धर्म के बारे में नॉलेज और तकरीर को शायराना अंदाज में कहने की कला से उन्होंने विरोधियों को भी अपना कायल बनाए रखा। उन्हें विधानसभा का डिप्टी स्पीकर बना दिया गया। मोहाली को जिला बनाने में उनकी अहम भूमिका रही। कैप्टन का विरोध करना उन्हें महंगा पड़ा। वह इस्तीफा देकर अकाली दल में शामिल हो गए, लेकिन ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। बाद में पीपीपी में शामिल हो गए। अब शिअद टकसाली की टिकट से आनंदपुर साहिब से चुनाव लड़ रहे हैं।
बलवंत सिंह रामूवालिया
कविश्र परिवार से आने वाले बलवंत सिंह रामूवालिया ने भी अपना करियर सिख स्टूडेंट फेडरेशन से शुरू किया और बाद में अकाली दल में शामिल हो गए। वह भी कुशल वक्ता के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। रामूवालिया फरीदकोट व संगरूर लोकसभा हलके से दो बार सांसद रह चुके हैं। 1996 में उन्होंने अकाली दल को छोड़ दिया और राज्यसभा से होते हुए केंद्रीय सामाजिक सुरक्षा मंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। वह दो साल केंद्रीय मंत्री रहे। बाद में लोक भलाई पार्टी बनाई। भीड़ जुटाने में तो कामयाब रहे, लेकिन वोट नहीं मिले। 2015 में अचानक अकाली दल को अलविदा कहकर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए और उत्तर प्रदेश में जाकर जेल मंत्री बन गए। कभी स्टेज की शान कहे जाने वाले रामूवालिया आज सियासत से गायब हैं।
सिमरनजीत सिंह मान
रईस परिवार से संबंध रखने वाले ब्यूरोक्रेट सिमरनजीत सिंह मान का सितारा आतंकवाद के दौर में बुलंदियों पर था। 1989 में हुए संसदीय चुनाव में उनकी पार्टी ने बड़े अकाली नेताओं जमानतें जब्त करवा दी थीं। मान जेल में रहते हुए 5.27 लाख वोट लेकर जीत गए और सबसे बड़े मार्जिन वाली जीत का रिकॉर्ड बनाया। उनके प्रतिद्वंद्वी को मात्र 47 हजार वोट मिले।
संसद में कृपाण के साथ जाने के मुद्दे को लेकर वह अड़ गए और पूरा कार्यकाल संसद में नहीं गए। वह खालिस्तान के मुद्दई माने जाते रहे हैं। 1989 वह दौर था जब सिमरनजीत सिंह मान जो कह देते थे, पूरा पंथ उनके पीछे लग जाता था। 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार से खफा होकर उन्होंने आइपीएस पद से इस्तीफा दे दिया और पांच साल तक जेल में रहे। सिमरनजीत सिंह मान एक बार फिर से संगरूर संसदीय सीट से चुनाव जीते और सौ फीसद एमपी लैड फंड खर्च करके रिकॉर्ड बनाया। अब वे फिर संगरूर से मैदान में हैं।
प्रो. दरबारी लाल
प्रो. दरबारी लाल का शुमार हमेशा ही कांग्रेस के बुद्धिजीवी वर्ग में रहा है। कांग्रेस राज में वह सरकार में डिप्टी स्पीकर के अलावा शिक्षा मंत्री के पदों पर काम कर चुके है। विभिन्न ज्वंलत मुद्दों पर बेबाक टिप्पणी की वजह से वह जानेे जाते हैंं। 1980, 1985, 2002 विधानसभा हलका केंद्रीय से विधायक चुने गए। प्रो. लाल आज भी ज्वंलत मामलों को लेकर बेबाक लिखते रहते हैं, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें हाशिये पर रखा हुआ है।
सतपाल गोसाईं
भाजपा नेता पूर्व सेहत मंत्री सतपाल गोसाईं दो बार पंजाब विधानसभा के डिप्टी स्पीकर भी रह चुके हैं। तीन बार विधायक चुने गए एक बार लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन जीत दर्ज नहीं करवा पाए। इनके बारे में मशहूर था कि यह हमेशा अपनी कार में दरी रखते हैं। जहां कहीं भी किसी के साथ धक्केशाही देखी वहीं पर दरी बिछाई और बैठ गए।
सतपाल गोसाईं अकसर अपनी ही सरकार के खिलाफ बयानबाजी कर जाते हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में सतपाल गोसाईं की टिकट काटकर उनके ही रिश्तेदार व भाजपा की प्रदेश कार्यकारिणी कोषाध्यक्ष गुरदेव शर्मा देबी को दे दी गई। नाराज गोसाईं ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया। वह अपने खास साथी पार्षद गुरदीप सिंह नीटू के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए।
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