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शहनाई के साथ खो जाते थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पोते नसीर अब्बास ने साझा की यादें

बनारस के घाट में मौजूद बालाजी मंदिर में रियाज करते थे।

By Edited By: Published: Sat, 23 Mar 2019 08:44 PM (IST)Updated: Sun, 24 Mar 2019 02:09 PM (IST)
शहनाई के साथ खो जाते थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पोते नसीर अब्बास ने साझा की यादें
शहनाई के साथ खो जाते थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पोते नसीर अब्बास ने साझा की यादें
जासं, चंडीगढ़। दादा (उस्ताद बिस्मिल्लाह खान) बनारस के घाट में मौजूद बालाजी मंदिर में रियाज करते थे। 12 वर्ष की उम्र होगी, जब उन्हें मंदिर के पास कोई आकृति दिखी। ये किसी बाबा की तरह थी, जो हाथ में माला लिए थे। दादा डर गए, उन्होंने शहनाई उठाई और वहां से भगाने लगे। भागते हुए उन्होंने देखा कि वह आकृति गायब हो गई। दादा ने तुरंत इस घटना को मंदिर के पंडित को बताना चाहा। मगर उन्होंने उन्हें कोई और काम में लगा दिया। कुछ देर बाद दादा ने पंडित जी को ये बात बताई तो उन्होंने उन्हें एक चांटा रसीद दिया कि इस घटना को किसी को न बताए। उसके बाद तो दादा ने इसे पूरी दुनिया को बताया। मगर फिर उन्हें दो बार दोबारा वो आकृति दिखी, मगर उस आकृति ने उन्हें क्या बताया और वो कैसे दिखती थी, ये उन्होंने किसी को नहीं बताया। यहां तक कि उन्होंने अपने बेटे और बहू किसी को इस बात के बारे में नहीं बताया।

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से जुड़ी ऐसी ही बातें उनके पोते नसीर अब्बास खान ने साझा की। वे शनिवार को टैगोर थिएटर-18 में प्रस्तुति देने पहुंचे। नसीर ने कहा कि वे चंडीगढ़ में दादा के साथ 15 वर्ष पहले आए थे। उस दौरान उम्र 20 के आसपास रही होगी। दरअसल, दादा के साथ बैठ जाना ही बहुत बड़ी बात थी। क्योंकि उन्होंने सिखाया था, ऐसे में कभी कभार डांट भी दिया करते थे। मगर मंच पर जब भी वो शहनाई के साथ बैठते तो खो जाते थे। उन्हें वापस लाना बहुत मुश्किल होता था। मुझे याद है एक बार हैदराबाद में 20 हजार लोग उन्हें सुनने पहुंचे। वहां बारिश होने लगी तो कुछ लोग वापस गए, तो हजारों की संख्या में लोग वहीं मौजूद रहे। बारिश के बावजूद दादा प्रस्तुति देते रहे, उन्हें ये मतलब नहीं था कि स्टेज पानी से भर गया है। वो जहां जाते, खो जाते थे।

शादी नहीं अब केवल मंच पर सुनती है शहनाई
नसीर ने कहा कि इन दिनों शहनाई हमारी संस्कृति से दूर जा रही है। पहले शादी बिना शहनाई के अधूरी होती थी। आज तो डीजे ही बजते हैं। मगर फिर भी इसे सुनने के कद्रदान मौजूद हैं। शास्त्रीय संगीत में इसे आज भी काफी इज्जत से सुना जाता है। कलाकार का क्या धर्म होगा देश में अकसर धर्म को लेकर तनाव रहता है, मगर उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को हर ओर से प्यार मिला, वो तो रियाज भी घाट या मंदिर में करते थे? पर नसीर ने कहा हां, दरअसल कलाकार के लिए कला ही धर्म होती है, जिसमें सब बराबर है। ऐसे में हम किसी को धर्म के अनुसार नहीं देखते। संगीत में कौन कैसा है, यही देखा जाता था। उम्मीद है कि लोग भी इसे अच्छे से समझ जाएं।

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