अखबार पढ़ने की आदत ने सिखा दी मैनेजमेंट : प्रो. धीरज सांघी Chandigarh News
डॉ. सांघी का कहना है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। कुछ पाने की तमन्ना हो तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है।
By Edited By: Published: Sun, 18 Aug 2019 08:47 PM (IST)Updated: Mon, 19 Aug 2019 11:45 AM (IST)
चंडीगढ़ [सुमेश ठाकुर]। अखबार पढ़ने की आदत पांच साल की उम्र से शुरू हो गई थी। घर के पड़ोस में कोई रहता था जोकि अपने घर से दस से बारह अखबार रोज खरीदता था और पढ़ने के लिए घर के बाहर गेट पर रख देता था। मैं उसे पढ़ने के लिए रोज घर से भाग जाता था। यह यादें पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज पेक के डायरेक्टर प्रो. धीरज सांघी ने दैनिक जागरण से साझी की। उन्होंने बताया कि अखबार पढ़ने के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। स्कूल की पढ़ाई करने के बाद कानपुर में आइआइटी करने के लिए गया। वहां का माहौल कुछ अलग था। हर कोई अपनी अखबार अपने कमरे में मंगवा लेते थे और मेरी स्थिति ऐसी नहीं थी कि अखबार को खरीद सकता। मैं परेशान था कि आखिर अब मेरा काम कैसे चलेगा। अखबार पढ़ने के बिना मेरा दिन गुजरना मुश्किल हो गया था।
आवश्यकता आविष्कार की जननी
दो-चार दिन के बाद मैंने हॉस्टल के प्रेसिडेंट से बात की और कहा कि रीडिंग रूम हॉस्टल में खोलें। प्रेसिडेंट ने कहा कि हमारे पास इतने पैसे नहीं है कि हम इसे चला सकें। रीडिंग रूम को चलाने के लिए हर महीने अखबार और मैगजीन लानी थी। जिसका खर्च कम से कम पांच रुपये था। प्रेसिडेंट को मैंने समझाया तो वह मान गया और उसने इस शर्त पर रीडिंग रूम खोला कि कोई पैसा नहीं दूंगा। मैं कुछ मैगजीन लाकर कमरे में रख दी। उस समय मैं ऐसी मैगजीन लेकर आया था जिनके सेंटर पेज पर उसी महीने रिलीज हुई फिल्मों की हीरोइन का पोस्टर टाइम फोटो होता था। एक महीना पूरा होने के बाद हम सभी मैगजीनों का सेंटर पेज निकालकर बड़ा पोस्टर बनाते थे और उसकी ऑक्शन करते थे। हॉस्टल में दो ग्रुप हुआ करते थे। लड़के हीरोइनों के पोस्टर खरीदने के लिए कुछ भी खर्च कर देते थे। वह पोस्टर हमारा 15 रुपये तक बिकने लगा जबकि हमारी रीडिंग रूम में मैगजीन और अखबारों का खर्च पांच रुपये के करीब आता था। मेरी बीटेक में अखबार का खर्च इसी प्रकार से निकल गया। डॉ. सांघी ने कहा कि उस निर्णय से मुझे समझ आया कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। कुछ पाने की तमन्ना हो तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है।
आवश्यकता आविष्कार की जननी
दो-चार दिन के बाद मैंने हॉस्टल के प्रेसिडेंट से बात की और कहा कि रीडिंग रूम हॉस्टल में खोलें। प्रेसिडेंट ने कहा कि हमारे पास इतने पैसे नहीं है कि हम इसे चला सकें। रीडिंग रूम को चलाने के लिए हर महीने अखबार और मैगजीन लानी थी। जिसका खर्च कम से कम पांच रुपये था। प्रेसिडेंट को मैंने समझाया तो वह मान गया और उसने इस शर्त पर रीडिंग रूम खोला कि कोई पैसा नहीं दूंगा। मैं कुछ मैगजीन लाकर कमरे में रख दी। उस समय मैं ऐसी मैगजीन लेकर आया था जिनके सेंटर पेज पर उसी महीने रिलीज हुई फिल्मों की हीरोइन का पोस्टर टाइम फोटो होता था। एक महीना पूरा होने के बाद हम सभी मैगजीनों का सेंटर पेज निकालकर बड़ा पोस्टर बनाते थे और उसकी ऑक्शन करते थे। हॉस्टल में दो ग्रुप हुआ करते थे। लड़के हीरोइनों के पोस्टर खरीदने के लिए कुछ भी खर्च कर देते थे। वह पोस्टर हमारा 15 रुपये तक बिकने लगा जबकि हमारी रीडिंग रूम में मैगजीन और अखबारों का खर्च पांच रुपये के करीब आता था। मेरी बीटेक में अखबार का खर्च इसी प्रकार से निकल गया। डॉ. सांघी ने कहा कि उस निर्णय से मुझे समझ आया कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। कुछ पाने की तमन्ना हो तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है।
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