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टोहड़ा की तरह नहीं है ढींडसा, बड़ा सवाल सुखबीर बादल की घेरेबंदी में कितने कामयाब होंगे

सुखदेव सिंह ढींडसा का सियासी रुतबा गुरचरण सिह तोहड़ा की तरह नहीं है। इस कारण वह शिअद से अलग होकर कितना असर डाल पाएंगे और सुखबीर बादल की कितनी घेराबंदी कर पाएंगे य‍ह बड़ा सवाल है।

By Sunil Kumar JhaEdited By: Published: Wed, 08 Jul 2020 08:53 AM (IST)Updated: Wed, 08 Jul 2020 08:53 AM (IST)
टोहड़ा की तरह नहीं है ढींडसा, बड़ा सवाल सुखबीर बादल की घेरेबंदी में कितने कामयाब होंगे
टोहड़ा की तरह नहीं है ढींडसा, बड़ा सवाल सुखबीर बादल की घेरेबंदी में कितने कामयाब होंगे

चंडीगढ़, [इन्द्रप्रीत सिंह]। शिरोमणि अकाली दल में प्रकाश flaह बादल के बाद सबसे वरिष्ठ नेता सुखदेव सिंह ढींडसा के अलग अकाली दल बनाने से राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा छिड़ गई है कि वह सुखबीर बादल की घेराबंदी करने में कितने कामयाब हो पाएंगे? ढींडसा ऐसी कौन सी लाइन खींचेंगे कि शिअद को छोड़कर नेता, कार्यकर्ता मतदाता उनके साथ हो जाएंगे।

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बड़ा सवाल : सुखबीर के सामने कौन सी लाइन खींचेंगे ढींडसा कि नेता व कार्यकर्ता उनके साथ आएं

दूसरा बड़ा सवाल यह है कि क्या सुखदेव ढींडसा केंद्र सरकार के खिलाफ चल पाएंगे? पंजाब में अकाली दल क्षेत्रीय पार्टी है। वह लंबे समय से देश के संघीय ढांचे की मजबूती के लिए लड़ रहा है। कृषि क्षेत्र में केंद्र द्वारा लाए गए तीन अध्यादेशों की बात हो या फिर बिजली एक्ट-2003 में संशोधन का मामला हो, केंद्र सरकार पर संघीय ढांचे को कमजोर करने का आरोप लग रहा है। पंजाबियों ने हमेशा उसी पार्टी का साथ दिया है जिसने दिल्ली से टकराव वाली स्थिति रखी है।

ढींडसा के भाजपा से हैं अच्‍छे संबंध

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में भागीदार होने के कारण शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल अभी केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं। चाहे डीजल व पेट्रोल की बढ़ती कीमतें होंं या कृषि अध्यादेश, वह विरोध नहीं कर पा रहे हैं। ढींडसा के भारतीय जनता पार्टी के साथ भी करीबी रिश्ते रहे हैं। यानी अब भाजपा के लिए भी मुश्किल की घड़ी यह है कि वह वेट एंड वॉच की स्थिति में रहे या फिर सुखबीर के नेतृत्व वाले अकाली दल के साथ डटकर खड़ी रहे।

टोहड़ा व ढींडसा के शिअद से अलग होने में है फर्क, उस समय बड़े बादल थे पार्टी के अध्यक्ष

1999 में जब शिरोमणि अकाली दल सत्ता में था तो जत्थेदार गुरचरन सिंह टोहड़ा पार्टी से बगावत करके अलग हो गए। अब सुखदेव सिंह ढींडसा ने वैसा ही कदम उठाया है। राजनीतिक हलकों में इन दोनों बगावतों की आपस में तुलना की जा रही है। कहा जा रहा है कि जब टोहड़ा जैसा बड़े कद का नेता बादल परिवार का कुछ नहीं बिगाड़ सका तो ढींडसा क्या कर लेंगे?

राजनीतिक विश्लेषक मालविंदर सिंह का मानना है कि यह ठीक है कि टोहड़ा बड़े कद के नेता थे और वह बादल का कुछ नहीं बिगाड़ सके, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। अब पार्टी की कमान प्रकाश सिह बादल के हाथ में न होकर सुखबीर बादल के हाथ में है। सुखबीर पार्टी को लोकतांत्रिक ढंग से चलाने की बजाए तानाशाह की तरह चलाते हैं।

वह कहते हैं, दूसरा पार्टी की अब स्थिति 1999 की तरह मजबूत भी नहीं है। पहले ही शिअद आइसोलेशन में है। बेअदबी कांड को लेकर अभी तक पंथक लोगों ने माफ नहीं किया है। 2017 के बाद 2019 के लोकसभा के नतीजे इसके उदाहरण हैं। विधानसभा में मात्र 13 और लोकसभा में मात्र दो सीटों पर पार्टी सिमटी हुई है।

पंथक नेता इकट्ठा हुए तो शिअद को होगा नुकसान

मालविंदर कहते हैैं कि सुखबीर बादल जिन लोगों को पार्टी में शामिल कर रहे हैं उनका अकाली दल की रवायतों से कोई सरोकार नहीं है, जबकि ढींडसा के साथ पंथक लीडरशिप आ रही है। अगर ढींडसा इन सभी को इक_ा करने और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के चुनाव करवाने में कामयाब हो जाते हैं तो निश्चित रूप से इसका शिअद को नुकसान होगा।

सुखबीर नीतियों को दे चुके हैैं तिलांजलि : बीर दविंदर

ढींडसा के साथ आए पार्टी के वरिष्ठ नेता बीर दविंदर सिंह का कहना है कि सुखबीर बादल अकाली दल की नीतियों को तिलांजलि दे चुके हैं। हम पार्टी में लोकतांत्रिक मूल्यों को फिर से लाने का प्रयास करेंगे। नई पार्टी में हर कार्यकर्ता की सुनी जाएगी। अकाली दल को छोड़कर अभी कई नेता आएंगे।

मौकापरस्त हैं ढींढसा : ग्रेवाल

पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश ह बादल के सलाहकार महेश इंद्र सिंह ग्रेवाल ने ढींडसा पर निशाना साधते हुए कहा कि वह मौकापरस्त हैैं और मौकापरस्त  राजनीति करते हैं। शिअद की सरकार के दौरान वह अहम पदों पर तैनात रहे, अब कांग्रेस के साथ मिलकर राजनीति करने में जुटे हैं।

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