पराली को जलाने के बजाय इसके पर्यावरण अनुकूल निपटारे को प्रोत्साहित करे सरकार
पराली के गलने के बाद यह खाद में बदल जाती है। अगर किसानों को यह निशुल्क या सस्ती दर पर उपलब्ध करवा दी जाए तो खेतों से पराली के रूप में एकत्रित की गई ऊर्जा भूमि के भीतर समा सकती है।
चंडीगढ़, इन्द्रप्रीत सिंह। पंजाब की पराली को जलाने से निकलने वाला धुआं दिल्ली के पर्यावरण को दुष्प्रभावित न करे, इसे लेकर आम आदमी पार्टी की इस बार पहली परीक्षा होगी। अभी तक दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार अक्टूबर-नवंबर में बनने वाले गैस चैंबर के लिए पंजाब और हरियाणा के किसानों को ही दोषी ठहराती आ रही है। चूंकि इससे पहले पंजाब में शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठजोड़ या फिर कांग्रेस की सरकार ही बनती रही है, इसलिए आप की दिल्ली सरकार के लिए पंजाब सरकार को कठघरे में खड़ा करना आसान रहता था। अब पहली बार पंजाब में आप सत्ता में आई है। इस बार भी यदि दिल्ली का पर्यावरण दुष्प्रभावित हुआ तो अरविंद केजरीवाल क्या भगवंत मान से पूछेंगे कि उन्होंने कोई ऐसा कदम नहीं उठाया कि किसान पराली न जलाएं।
केजरीवाल को अपनी पार्टी के सीएम से यह भी पूछना होगा कि उन्होंने कितने किसानों को बायो डीकंपोजर उपलब्ध करवाया, ताकि पराली को खेतों में गलाया जा सके। प्रत्येक वर्ष अक्टूबर और नवंबर में यह समस्या मुंह बाए खड़ी रहती है। पराली का धुआं जानलेवा बनता जा रहा है। परंतु वर्षों बीतने के बावजूद इस ‘ऊंट’ के आकार की समस्या से निपटने के लिए हमारे पास ‘जीरा’ आकार के ही समाधान हैं। समस्या के लिए एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करने की बजाय इसका हल तलाशने की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
एक बार फिर से आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला आरंभ हो गया है। पंजाब में 170 लाख टन से ज्यादा पराली होती है। इसका निस्तारण करने के लिए खेती एवं लागत मूल्य आयोग धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में इस खर्चे को नहीं लगाता जिस कारण किसान अपना खर्च बचाने के लिए इसे आग के हवाले कर देते हैं। ऐसा करना उन्हें बहुत आसान लगता है। किसान जानते हैं कि पराली जलाने से उसके खेत के मित्र कीट भी मर गए हैं, खेत के माइक्रोन्यूट्रिएंट्स का भी नुकसान हो गया है, फिर भी वह पराली को आग के हवाले करने से पीछे नहीं हटते। विगत तीन वर्षों के दौरान पराली को कुतरकर उसे खेत में ही मिलाने वाली मशीनें किसानों को दी गई हैं।
महज दो-चार दिनों के लिए काम आने वाली इन मशीनों पर बहुत से किसानों ने लाखों रुपये खर्च कर दिए। अब ये मशीनें उन्होंने बेचनी शुरू कर दी हैं, ताकि कर्ज का बोझ कम हो सके। इन मशीनों को खरीदने के कारण वे ऋण में डूब गए थे। असल में जिस तरह की यह दैत्याकारी समस्या है उसी आकार में उसका समाधान तलाशने के लिए सरकारों ने प्रयास नहीं किए हैं। ऐसा नहीं है कि इसका समाधान नहीं हो सकता। किसान इस समस्या से निपटने के लिए 2500 रुपये प्रति एकड़ मांगते हैं। इतना वित्तीय बोझ न तो केंद्र सरकार वहन करने को तैयार है, न ही राज्य सरकारें।
एक जर्मन कंपनी वर्बियो ने इसका समाधान निकाला है, जो पंजाब की ही नहीं, बल्कि उत्तर भारत के राज्यों की पेट्रोल और रसोई गैस की समस्या से निपटने के साथ किसानों की रासायनिक खाद की समस्या को भी काफी हद तक समाप्त कर सकता है। कंपनी ने अपने प्लांट की पांच किमी की परिधि में पराली को एकत्रित कर इसे टैंकरों में डालकर इससे कंप्रेस्ड नेचुरल गैस तैयार की है। इसके लिए उन्होंने इंडियन आयल कंपनी से समझौता भी कर लिया है। प्लांट से 33 हजार टन गैस प्रतिदिन मिलती है। इसे सिलेंडरों में भर कर रसोई गैस के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। कंपनी ने इस पर काम शुरू कर दिया है। पराली के गलने के बाद यह खाद में बदल जाती है। अगर किसानों को यह नि:शुल्क या सस्ती दर पर उपलब्ध करवा दी जाए तो खेतों से पराली के रूप में एकत्रित की गई ऊर्जा भूमि के भीतर समा सकती है। निश्चित रूप से इस पूरी प्रक्रिया पर खर्च भी आएगा।
सब्सिडी पर मशीनें खरीदकर किसानों को देने से अच्छा है कि उन्हें यह विकल्प दिया जाए। साथ ही बड़ी बड़ी आटोमोबाइल कंपनियों को भी पेट्रोलियम या डीजल आधारित गाड़ियां बनाने के बजाय गैस आधारित गाड़ियां बनाने के लिए प्रेरित किया जाए। जिस दिन यह काम हो जाएगा, उस दिन पराली एक समस्या नहीं, बल्कि ऊर्जा का एक बड़ा स्रोत बनकर सामने आ जाएगी। उस दिन किसान इसे जलाएंगे नहीं, बल्कि इसे बेचकर अपनी आय बढ़ाएंगे। और अंत में... मुख्यमंत्री भगवंत मान इन दिनों जर्मनी के दौरे पर हैं। अगर वह वहां वर्बियो जैसी उन कंपनियों के साथ बात करके उन्हें पंजाब में निवेश करने को कहें जो खेती के अवशेषों के निस्तारण पर काम करती हैं, तो शायद उनके इस दौरे का पंजाब को लाभ भी हो। नहीं तो दौरे तो कई मुख्यमंत्री पहले भी कर चुके हैं।
[ब्यूरो प्रमुख, पंजाब]