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मुद्दा: विधानसभा सत्र की रस्म अदायगी

-03 दिन का था इस बार का मानसून सत्र -02 दिन ही हो पाया काम ::पंजाब में सबसे लंबा सेशन::

By JagranEdited By: Published: Tue, 04 Sep 2018 06:27 PM (IST)Updated: Tue, 04 Sep 2018 06:27 PM (IST)
मुद्दा: विधानसभा सत्र की रस्म अदायगी
मुद्दा: विधानसभा सत्र की रस्म अदायगी

-03 दिन का था इस बार का मानसून सत्र

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-02 दिन ही हो पाया काम

::पंजाब में सबसे लंबा सेशन::

-14 फरवरी 1966 से लेकर 30 मार्च तक चला

-29 बैठकें हुई थी पूरे सत्र के दौरान

-1981 और 1995 में भी बजट सत्रों में 27 से 23 बैठकें होती रहीं।

-15 वर्षो से बजट सेशन मात्र 14 बैठकों तक ही सिमट गए हैं।

-40 बैठकें पूरे साल में करवाने का प्रस्ताव पास हुआ गोवा मीटिंग में

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कॉमन इंट्रो

पंजाब विधानसभा में सेशन बुलाने की एक रस्म अदायगी हो गई है। 28 अगस्त को समाप्त हुआ सेशन तकनीकी तौर पर बेशक 3 दिन का था, लेकिन असल में यह मात्र 2 दिन का रहा। इसमें एक दर्जन के लगभग बिल पास करवाने की सरकार की वैधानिक जरूरत पूरी हो गई है। पॉलिटिकल तौर पर शिरोमणि अकाली दल को हाशिये पर धकेलने के लिए श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी पर जस्टिस रणजीत सिंह आयोग की रिपोर्ट पर सात घंटे तक बहस भी करवाई गई। इसका नतीजा क्या निकलेगा, यह भी अभी साफ नहीं है। किसानों की आत्महत्या पर पिछले सदन में रखी गई रिपोर्ट, कृषि नीति, भूजल के लिए लाई गई नीति जैसे जनहित के मुद्दों पर विचार करने के लिए न तो सरकार के पास समय था और न ही इस पर कोई गंभीरता दिखाई गई। पिछले कई वर्षो से विधानसभा की बैठकें घटती जा रही हैं। अब सवाल यह उठता है कि आखिर सरकारें लोगों के मुद्दों का सामना करने से क्यों भागती हैं।

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सिर्फ विपक्ष ही बढ़ाना चाहता सदन

पिछले दस साल कांग्रेस लगातार इस बात की मांग करती रही कि अकाली-भाजपा सरकार मुद्दों पर बात करने से भागती है, इसलिए सत्र छोटा रखा जाता है, लेकिन अब जैसे ही पार्टी खुद भारी बहुमत लेकर सत्ता में आई वह खुद सदन में बात करने से भागने लगी है। इसलिए सदन का आकार छोटा रखा जा रहा है। मौजूदा कैप्टन सरकार का यह पांचवां सत्र था, लेकिन एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि सिस्टम में कुछ बदलाव हुआ है। यानी छोटे सदन रखने की चिंता केवल विपक्षी पार्टी को है। सत्तारूढ़ पार्टी जैसे ही सत्ता से बाहर होगी, उसे भी छोटे सदन की चिंता सताने लगेगी। सरकारें बदलीं, नहीं बदले सवाल-जवाब

सदन को छोटा रखने के संबंध में पार्टियों के वही सवाल हैं और जवाब भी वही हैं। मसलन सत्तारूढ़ दल के पास एक ही जवाब है कि बिजनेस नहीं है और विपक्ष के पास एक ही जवाब सरकार मुद्दों पर बहस करवाने से भाग रही है। दर्जनों बिल एक ही दिन क्यों?

अब सवाल पैदा होता है कि दर्जनों बिल एक ही दिन पेश क्यों होते हैं?

बिल पहले नहीं दिए जाते,

सरकार मुद्दों का सामना नहीं करना चाहती: खैहरा

विपक्ष के नेता रहे सुखपाल खैहरा का कहना है कि कभी भी बिल उन्हें पहले नहीं दिए जाते। ऐसे में विधायकों को क्या पता कि बिल में क्या है। उसका कानूनी और तकनीकी पहलू क्या है? यदि ये बिल दो दिन पहले या सदन शुरू होने से पहले दे दिए जाएं, तो सभी विधायक तैयारी करके आएं और अपना प्वाइंट रख सकते हैं। सरकार विपक्ष के मुद्दों का सामना नहीं करना चाहती। मैंने 32 सवाल लगाए थे। इनमें एक भी नहीं लगा। मेरे बार बार कहने के बावजूद स्पीकर ने इस बात पर भी जवाब नहीं दिया कि किसानों की आत्महत्या पर विधानसभा की अपनी कमेटी की रिपोर्ट जो पिछले सेशन में रखकर कहा गया था कि इस पर बहस अगले सेशन में करवाई जाएगी, लेकिन बहस क्यों नहीं करवाई गई। किसानों के अलावा, नशे में युवाओं के मरने का मुद्दा है, किसान कर्ज माफी का मुद्दा है किसी भी बहस नहीं करवाई गई।

केवल संशोधन किया जाता है: संधू

आम आदमी पार्टी के कंवर संधू का कहना है कि जिन बिलों में केवल संशोधन किया जाता है, उसमें पहले क्या था, उसकी एक कॉपी अलग से दी जाए, ताकि ये तो पता चल सके कि संशोधन क्या है?

जाखड़ की भी रही है यही राय

इससे पहले विपक्ष के नेता के रूप में रहते समय सुनील जाखड़ का भी यह मानना रहता था कि बिल उसी दिन या उसी समय पेश किए जाते हैं, जब सदन में बिल पेश करने का एजेंडा आता है। ऐसे में विधायक बिल पर बहस कैसे करेंगे।

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न विरोध न सख्ती

विधायकों की राय बिल्कुल ठीक है, लेकिन किसी ने इसका यह कहते हुए कड़ा विरोध नहीं किया कि जब तक बिल समय से पहले नहीं दिए जाएंगे, वे उस एजेंडे में अपनी राय नहीं देंगे। स्पीकर भी रस्मी तौर पर संसदीय कार्य मंत्रियों से कह देते हैं कि बिल दो दिन पहले दें, लेकिन ऐसा जब नहीं होता तो वह सख्ती नहीं दिखाते और न ही संसदीय कार्य मंत्रियों पर बिल समय पर नहीं आए, इसका कोई असर होता है। आखिर जिन बिलों को कानून बनना है, लोगों पर लागू होना है उस पर इतनी गैर गंभीरता क्यों?

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एक्सपर्ट व्यू.. बीर दविंदर सिंह, पूर्व डिप्टी स्पीकर पंजाब विधानसभा

सदन में काम करने के सलीके और विधि का सरकार पर कोई बोझ नहीं है। मैं पिछले लंबे समय से विधानसभा के सेशन की कार्यवाही देख रहा हूं। रूल्स ऑफ बिजनेस की सरेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। हाल ही में खत्म हुए सेशन की बात कर लीजिए, सरकार ने सीबीआइ से केस वापस लेने का मोशन पास करवाया है। क्या इसके लिए पहले सदन को नोटिस दिया गया? सरकार ने दो लाइनों के प्रस्ताव में कह दिया कि सीबीआइ से केस वापस लिए जाएं। अब कोई इन से सवाल करने वाला हो तो पूछे कौन से केस? एफआइआर का नंबर क्या है? सरकार द्वारा जारी नोटिफिकेशन नंबर क्या है? कब भेजे गए? आदि कई चीजें हैं, जो सदन में जब प्रस्ताव पेश करते हैं, तो उसके नोटिस में देनी होती हैं। उसके बाद ही सदन की सहमति ली जाती है।

स्पीकर केवलदिए गए नोटिस के समय को कम कर सकते हैं, लेकिन उन्हें खत्म नहीं कर सकते। अगर कोई कानूनी पहलू से इसे अदालत में ले जाए तो यह पारित प्रस्ताव कभी भी रद हो सकता है। दरअसल, इसीलिए सदन में कोई मर्यादा का ख्याल नहीं रखता। क्योंकि कोई विधि के अनुसार नहीं चलता। जहां तक

छोटे सेशन की बात है, तो सरकारों के लिए यह गंभीरता का विषय ही नहीं हैं। उन्हें अपनी स्टेचुरी जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई और रास्ता मिल जाए तो वे ये सेशन भी न बुलाएं। गोवा मीटिंग में पास प्रस्ताव भी बुलाए

शिरोमणि अकाली भाजपा कार्यकाल के दौरान गोवा में सभी स्पीकर व संसदीय कार्य मंत्रियों की बैठक हुई, जिसमें सेशन के छोटे होने पर चिंता व्यक्त की गई। इसमें कहा गया कि आगे से इस पर विचार किया जाएगा। इस मीटिंग में कम से कम 40 मीटिंग पूरे साल में करवाने का प्रस्ताव भी पारित हुआ, लेकिन कभी इस पर अमल नहीं किया गया।

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प्रस्तुति: इन्द्रप्रीत सिंह


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