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बंटवारे का दर्द झेला, देश की रक्षा के लिए सरहद पर डटे रहे

भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दर्द को अस्सी साल के अतर सिंह ने बहुत करीब से महसूस किया है।

By JagranEdited By: Published: Fri, 10 Aug 2018 04:57 PM (IST)Updated: Fri, 10 Aug 2018 04:57 PM (IST)
बंटवारे का दर्द झेला, देश की रक्षा के लिए सरहद पर डटे रहे
बंटवारे का दर्द झेला, देश की रक्षा के लिए सरहद पर डटे रहे

डॉ.सुमित सिंह श्योराण, चंडीगढ़ : भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दर्द को अस्सी साल के अतर सिंह ने बहुत करीब से महसूस किया है। कुछ रिश्तेदार और दोस्त बिछड़ गए तो कुछ मुश्किल हालात में बचकर भारत पहुंचने में कामयाब हो गए। पाकिस्तान में घर छोड़ आजाद भारत में आने की यादें उनके जहन में आज भी हैं। वह बताते हैं कि गाव में एकाएक लाउड स्पीकर से सभी हिंदुओं और सिखों को अपने घर छोड़ने का फरमान सुनाया गया। बैलगाड़ियों में सामान लादकर पाकिस्तान में वह छोड़ परिवार के साथ भारत के लिए चल दिए। अमृतसर में खालड़ा तक पहुंचने का सफर कितना पीड़ादायक था? उसे बया करते-करते सरदार अतर सिंह भावुक हो जाते हैं। बंटवारे का दंश झेलने के बाद अतर सिंह ने देश की सरहद पर हर युद्ध में सेना का हिस्सा बनकर अपने देश के प्रति अपनी बहादुरी व निष्ठा का उदाहरण पेश किया। चौथी गोरखा रेजीमेंट से 1973 में रिटायरमेंट लेने वाले अतर सिंह ने 1947 में देश के बटवारे पाकिस्तान, चीन के साथ हुए युद्द की यादों को दैनिक जागरण के साथ साझा किया।

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कई दिन तक चीनी खिला बच्चों को बचाया

अतर सिंह बताते हैं कि गाव गजन सिंह वाला तहसील चूणिया लाहौर में परिवार के साथ रहते थे। एक दिन अचानक लाउड स्पीकर पर अनाउंसमेंट हुई कि जल्द से जल्द हिंदू और सिख अपने घर को छोड़ दें। बैलगाड़ियों में सामान लादकर पूरा परिवार निकल पड़ा। 3 हजार लोगों के काफिले में जमींदार बंदूक लेकर आगे चल रहे थे। अमृतसर बॉर्डर से पहले ही कत्लेआम और लूटपाट शुरू हो गई। हजारों लोगों ने अपने सगे संबंधियों को खो दिया। अतर सिंह बताते हैं कि लोगों ने बिना खाए पिए कई दिन यू ही गुजार दिए। बच्चों तक को पेट भरने के लिए चीनी खिलाई गई।

देश की रक्षा के लिए सरहद पर जमकर लड़े

अतर सिंह बताते हैं कि उन्होंने 1957 में 4वीं गोरखा राइफल में हवलदार-क्लर्क के पद पर ज्वाइन किया। आर्मी की ट्रेनिंग बहुत ही कठिन थी। बटालियन में अतर सिंह अकेले सिख थे, लेकिन पूरी बटालियन से उन्हें खूब हौसला मिलता था। पड़ोसी देश पाकिस्तान और चीन के साथ हुई 1962,1965 और 1971 की लड़ाई का हिस्सा रहे हैं। भारतीय सेना में उनके खास योगदान के लिए सरदार अतर सिंह को सात सेवा मेडल से नवाजा गया। आर्मी में इनका पूरा करियर बेदाग रहा। अतर सिंह इन दिनों पंजाब यूनिवर्सिटी कैंपस में अपने बड़े बेटे और पीयू के कंट्रोलर ऑफ एग्जामिनेशन प्रो.परविंदर सिंह के साथ रहते हैं।

घर पर बेटे का जन्म, लेकिन देश प्रेम पहले

अतर सिंह ने बताया कि उन्हें ऐसा भी मौका मिला कि वह सरहद पर जंग पर जाने से बच सकते थे, लेकिन उन्होंने हर बार देश के लिए लड़ने को तवज्जों दी। आर्मी में जाने की सीख उन्हें उनके गुरु ने दी। दसवीं पास करने के बाद वह गोरखा रेजीमेंट में सिपाही के तौर पर भर्ती हो गए। वह बताते हैं कि जब 1962 की लड़ाई हुई तो उनके घर बड़े बेटे परविंदर सिंह का जन्म हुआ, लेकिन उन्होंने लेह लद्दाख जैसे मुश्किल हालात में छुंट्टी कैंसिल कर जंग में जमे रहने का फैसला लिया। पहले बंदूक अब कलम से बदलाव का भरोसा

10 अगस्त को जिंदगी के 80 साल पूरे कर रहे अतर सिंह का जज्बा आज भी किसी फौजी से कम नहीं है। शरीर बेशक पहले जैसा मजूबत नहीं रहा, लेकिन देश की भावी युवा पीढ़ी को प्रेरित करने में ये कोई कसर नहीं छोड़ते। रिटायरमेंट के बाद वह एक मैगजीन निकालते हैं। तीन महीने में प्रकाशित होने वाली मैगजीन के साथ 500 से अधिक लोग जुड़े हैं। रिटायर्ड ऑफिसर देश भर से सरदार अतर सिंह की मैगजीन में अपने अनुभवों और धार्मिक लेख भेजते हैं। इतना ही नहीं गरीब बच्चों की पढ़ाई, बेटियों की शादी में इनके द्वारा चलाया जा रहा ट्रस्ट मदद करता है।


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