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ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालयी क्षेत्र में बदल रही है किसानों की पसंद

तापमान में हो रही बढ़ोतरी के कारण यह सेब पट्टी हिमालय के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों तक सिमट रही है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 12 Feb 2019 10:45 AM (IST)Updated: Tue, 12 Feb 2019 10:47 AM (IST)
ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालयी क्षेत्र में बदल रही है किसानों की पसंद
ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालयी क्षेत्र में बदल रही है किसानों की पसंद

चंडीगढ़, आइएसडब्ल्यू। वैश्विक तापमान में वृद्धि का असर हिमालय की पारंपरिक सेब उत्पादन पट्टी पर भी पड़ रहा है। तापमान में हो रही बढ़ोतरी के कारण यह सेब पट्टी हिमालय के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों तक सिमट रही है। इसलिए किसानों ने अब नयी किस्मों की ओर जोर दिया है। जिसकी बदौलत निचले पर्वतीय क्षेत्रों में भी खेती करना संभव हो गया है। इन किस्मों की एक खास बात यह है कि इनके उत्पादन के लिए अत्यधिक ठंडे मौसम की जरूरत नहीं होती।

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बरसात के चक्र और इसके स्वरूप में बदलाव से फलों के उत्पादन में उल्लेखनीय उतार-चढ़ाव देखने को मिला है। सर्दियों में भी गर्म तापमान जैसे प्रतिकूल जलवायु परिवर्तनों के कारण फूलों और फलों की वृद्धि बुरी तरह प्रभावित हुई है, जिससे हिमाचल प्रदेश में सेब की उत्पादकता में काफी गिरावट हुई है।

उत्तराखंड स्थित जी.बी. पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. तेज प्रताप के अनुसार, अब सेब कम ऊंचाई वाले उन पर्वतीय क्षेत्रों में भी उगाए जाने लगे हैं, जहां पहले कभी सेब की खेती नहीं हुई थी। ऐसा नई तकनीकों की वजह से संभव हुआ है। चंडीगढ़ में डायलॉग हाईवे द्वारा ‘जलवायु परिवर्तन और कृषि का भविष्य’ विषय पर गत दिवस आयोजित संगोष्ठी में डॉ. प्रताप ने कहा कि इंटरनेट के माध्यम सेबाकी दुनिया से हिमालय के किसानों का भी संपर्क बढ़ रहा है।

हिमाचल प्रदेश में स्थित डॉ. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉ. सतीश के भारद्वाज ने बताया कि सेब उत्पादक क्षेत्रों में बढ़ रहे सूखे का प्रभाव फलों के आकार पर पड़ा है। इसके कारण फलों का आकार काफी छोटा हो रहा है। तापमान में वृद्धि और नमी कम होने से सेब के फलों पर दाग और दरार देखने को मिल रही है, जो गुणवत्ता को प्रभावित करती है। पिछले दो दशकों से हिमाचल प्रदेश के शुष्क शीतोष्ण क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि और बर्फ के जल्दी पिघलने के कारण सेब की खेती अब किन्नौर जैसे समुद्र तल से 2200 से 2500 मीटर की ऊंचाई वाले भागों में की जाने लगी है।

डॉ. भारद्वाज का कहना है कि सेब की फसल में पुष्पण और फलोत्पादन के लिए सबसे अनुकूल तापमान 22 से 24 डिग्री होना चाहिए। पर, इस क्षेत्र में करीब एक पखवाड़े तक तापमान 26 डिग्री तक बना रहता है। डॉ. भारद्वाज ने बताया कि सेबों की उच्च पैदावार के लिए उपयुक्त उत्पादन क्षेत्र अब केवल शिमला, कुल्लू, चंबा की उच्च पहाड़ियों, किन्नौर और स्पीति क्षेत्रों के शुष्क समशीतोष्ण भागों तक ही सीमित रह गए हैं। महाराष्ट्र के बाद हिमाचल प्रदेश ओलावृष्टि के कारण सबसे अधिक प्रभावित होने वाला देश का दूसरा राज्य बन गया है।

दूसरी ओर, इस समय भारतीय बाजारों में न्यूजीलैंड, चीन, ईरान और यहां तक कि चिली से आयातित सेबों की भी भरमार है। विशेषज्ञों का मानना है कि पारंपरिक सेब उगाने वाली पट्टी में इस समय भारी उथल- पुथल मची हुई है, तो दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन के कारण ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों के किसानों को नये अवसर भी मिले हैं। इस परिवर्तन का एक साकारात्मक असर यह हुआ है कि बढ़ते तापमान का उपयोग ऐसी फसलों को उगाने के लिए किया जाने लगा है, जो इन परिस्थितियों में भली-भांति उग सकती हैं।

इस तरह पहाड़ियों में नई फसलों की फायदेमंद शुरुआत देखने को मिल रही है। औद्यानिकी एवं वानिकी महाविद्यालय, हमीरपुर के डॉ. सोम देव शर्मा के अनुसार राज्य में प्रत्येक 15 से 20 किलोमीटर क्षेत्र पर कृषि-जलवायु परिस्थितियां बदल जाती हैं। अत: उपयुक्त परिस्थितियों का आकलन करते हुए सबसे उपयुक्त फसल की खेती की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, पालाग्रस्त क्षेत्रों में अनार, तेंदूफल जैसी कम ठण्ड में उगने वाली फसलों की खेती की जा रही है।


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