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गुरु जी.. बच्चों पर यूं बस्तों का बोझ बढ़ाना ठीक नहीं...

निजी स्कूलों में नर्सरी में पढ़ने वाले बच्चों पर बैग का बोझ लगातार बढ़ रहा है। एेसे में स्कूलों के स्मार्ट एजुकेशन के दावे खोखले साबित हो रहे हैं।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Fri, 21 Jul 2017 02:04 PM (IST)Updated: Fri, 21 Jul 2017 02:05 PM (IST)
गुरु जी.. बच्चों पर यूं बस्तों का बोझ बढ़ाना ठीक नहीं...
गुरु जी.. बच्चों पर यूं बस्तों का बोझ बढ़ाना ठीक नहीं...

जेएनएन, चंडीगढ़। तेलंगाना सरकार ने अपने राज्य में बच्चों के स्कूल बैग का भार कम करने के लिए अहम फैसला किया है, लेकिन स्मार्ट सिटी में शामिल चंडीगढ़ में बच्चे आज भी बैग के बोझ तले दब रहे हैं। शहर के स्कूलों में स्मार्ट एजुकेशन दी जा रही है। शिक्षा विभाग ने सरकारी स्कूलों के 300 कमरों को स्मार्ट क्लास रूम में तबदील कर दिया है, ताकि बच्चों को बेहतर शिक्षा मिले।

शहर में करीब 70 प्राइवेट स्कूल हैं, जिनमें स्मार्ट एजुकेशन का दावा किया जाता है, पर मासूमों के कंधों पर भारी-भरकम स्कूल बैग देखकर ये दावे हवा हो जाते हैं और किसी कवि की पंक्तियां याद आ जाती हैं कि ..यूं बस्तों का बोझ बढ़ाना ठीक नहीं।

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प्राइवेट स्कूल में नर्सरी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे का स्कूल बैग पांच किलो से कम नहीं है। सरकारी स्कूलों में पांचवीं कक्षा तक कुछ रियायत है क्योंकि उसमें चार किताबें और चार कापियों ही शामिल हैं, पर प्राइवेट स्कूलों में प्रोजेक्ट के नाम पर बच्चों के पास पहली कक्षा में ही 6 से 8 पुस्तकें। उन पुस्तकों की कापियों और स्टेशनरी, पानी की बोतल और लंच बॉक्स मिलाकर 5 से 8 किलो वजन हो जाता है।

तेलंगाना सरकार ने बस्तों का भार पांच से 1.5 किलोग्राम करने का फैसला लिया है, ताकि स्कूली बच्चों को राहत मिल सके।सरकारी स्कूलों में छठी से दसवीं तक कायम है बोझा1पांचवी कक्षा पास होने के बाद जैसे ही बच्चे छठी कक्षा में जाते हैं तो उसमें 5 से 7 प्रमुख विषय हैं। हर विषय की दो से तीन पुस्तकें हैं। उन सबकी कापियां को मिलाकर बच्चों का बैग 10 से 15 किलो का हो जाता है। यह सब बच्चों को स्कूल लेकर रोजाना जाना होता है।

स्मार्ट क्लास रूम में बोर्ड तो स्मार्ट हैं, लेकिन प्रेक्टिकल के बजाए थियोरी पर ही जोर दिया जाता है। स्मार्ट बोर्ड पर देखने के अलावा बच्चे को पुस्तक का इस्तेमाल करना ही होता है।

टॉप फ्लोर तक पहुंचने में फूल जाती है नन्हे-मुन्नों की सांस

स्कूल के भारी भरकम बैग को बच्चा जैसे-तैसे स्कूल तक तो ले आता है, लेकिन स्कूल में आने के बाद उसे कई बार फस्र्ट फ्लोर से तीसरी मंजिल तक जाना होता है क्योंकि उसका क्लास रूम वहीं पर होता है। शहर के कई स्कूल ऐसे हैं जहां पर रैंप नहीं है। बच्चों को सीढ़ियों से चढ़कर क्लास रूम तक पहुंचना होता है। कक्षा शुरू होने से पहले ही बच्चे को थकान इतनी हो जाती है कि वह कुछ में समझने में असमर्थ हो जाता है।

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