Partition Museum: यहां रखी वस्तुओं के पीछे का दर्द जान आप भी हो जाएंगे भावुक
स्वतंत्रता संग्राम में पहले ही बहुत कुर्बानियां दे चुके भारत ने आजादी पाई तो इस विभाजन में बहुत कुछ खो दिया। किसी ने बेटा खोया तो किसी ने सुहाग।
अमृतसर [नितिन धीमान]। 15 अगस्त 1947, जश्न का दिन। जश्न.. गुलामी की बेड़ियों को तोड़ देने का, जश्न.. आजाद फिजा में सांस लेने का और जश्न.. नई पहचान का। परंतु इसके साथ ही हुई त्रासदी.. मिला बंटवारे का दर्द..। अपनों को खो देने का दर्द.. अपनो से बिछुड़ जाने का दर्द..। वो दर्द जो लाखों लोगों ने सहा। भारत से एक टुकड़े को काटकर पाकिस्तान बना दिया गया।
स्वतंत्रता संग्राम में पहले ही बहुत कुर्बानियां दे चुके भारत ने आजादी पाई तो इस विभाजन में बहुत कुछ खो दिया। किसी ने बेटा खोया तो किसी ने सुहाग। किसी का परिवार ही बिछड़ गया। करीब 1.45 करोड़ लोग बंट गए, जबकि 20 लाख से ज्यादा लोग मौत हो गई। इस दौरान लोगों का सबकुछ पीछे छूट गया, लेकिन जो चीजें पाकिस्तान से उजड़कर भारत आए लोग अपने साथ लाए थे वह उनके लिए अनमोल हो गईं।
इन्हीं यादों को 'बंटवारे के दर्द' की धरोहर को एक अनोखे संग्रहालय में सहेजा गया है। यहां रखी हर चीज के पीछे दर्द की दास्तां छिपी है। इस संग्रहालय को ‘पार्टिशन म्यूजियम’ का नाम दिया गया है। 2017 में आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज ट्रस्ट द्वारा अमृतसर में बनाया गया ‘पार्टिशन म्यूजियम’ विश्व में अपनी तरह का पहला व एकमात्र संग्रहालय है। अमृतसर में श्री हरिमंदिर साहिब के पास बनी हेरिटेज स्ट्रीट पर स्थित यह संग्रहालय पाकिस्तान सीमा से करीब 29 किलोमीटर दूर है। इसे अंग्रेजों द्वारा 1866 में बनाई गई टाउन हाल की इमारत में बनाया गया है।
‘पार्टिशन म्यूजियम’ की सीईओ मल्लिका आहलूवालिया कहती हैं कि यह लोगों का अपना संग्रहालय है। यहां रखी वस्तुएं विभाजन का दौर देखने व झेलने वाले लोगों ने स्वेच्छा से दान की हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी उस ऐतिहासिक समय के दर्द को समझ सकें। साथ ही कुछ लोगों ने ऑडियो या वीडियो के जरिए भी उस त्रासदी से जुड़ी अपनी यादें भी साझा की हैं। संग्रहालय की चेयरपर्सन कीश्वर देसाई तथा डिजाइनर नीरज सहाय द्वारा यहां कुछ रचनात्मक कृतियों के रूप में विभाजन की टीस को एक रूप दिया गया है।
वो मेरी गुड़ियोंं का संदूक
बंटवारे के बाद पाकिस्तान छोड़ भारत आईं सुदर्शना कुमारी 1947 में आठ साल की थींं। पाकिस्तान के जिला शेखूपुर की रहने वाली सुदर्शना कुमारी अब दिल्ली में रहती हैं। उनका एक छोटा सा संदूक पार्टिशन म्यूजियम में रखा गया है। 81 वर्षीय सुदर्शना बताती हैं, बचपन में गुड़ियों से खेलना मुझे बहुत पसंद था। वही मेरी जान थीं, सहेलियां थीं। विभाजन का बिगुल बजा तो घर छोड़ना पड़ा। गुड्डियां भी वहीं रह गईं। हमें बहुत से लोगों के साथ एक खुले मैदान में इकट्ठा किया गया। रात को हम वहीं सोए। सुबह उठे तो देखा कुछ ही दूरी पर दंगों में एक कोठी जल गई थी।
बकौल सुदर्शना हम पांच-छह बच्चे उस जली हुई कोठी में गए और कुछ न कुछ उठा लाए। मुझे यह संदूक वहीं मिला था। मैंने लौटकर मां से कहा कि इसमें मैं अपनी गुड़ियों का सामान रखा करूंगी। फिर एक ट्रक में हमें वाघा के जरिए भारत छोड़ दिया गया। यहां आकर भी भटकना पड़ा, लेकिन मैंने अपना संदूक संभाले रखा। मेरी बड़ी बहन ने कुछ माह बाद मेरे लिए एक गुड़िया बनाई। इस संदूक में उस गुड़िया के लिए मैं तरह-तरह के कपड़े इकट्ठे करती थी।
मैं जब भी उस संदूक को देखती थी, बचपन में लौट जाती थी। शादी के बाद भी इसे ससुराल ले गई। तब इसमें अपने सर्टिफिकेट व मेकअप का सामान आदि रखने लगी। फिर हम आसाम चले गए और वहां से 30 साल बाद लौटे तो सबसे पहले अपने संदूक को मैंने पुन: संभाला। 79 साल की की उम्र में इसे संग्रहालय के लिए दिया तो तसल्ली हुई कि मेरी यादें आने वाली पीढ़ी से साझा होंगी।
संग्रहालय में पड़ी पॉकेट वॉच सुदर्शना कुमारी के ससुर की है। विभाजन के बाद उनके ससुर बिछड़ गए थे। परिवार के सदस्यों ने उन्हें हर ओर तलाशा, पर कहीं कोई खोज खबर नहीं मिली। इसी बीच रेडियो पर खबर आई कि एक शव मिला है। मृतक की पॉकेट से एक वॉच मिली है। जिस किसी का अपना है, वह आकर शिनाख्त करे। खबर सुनकर सुदर्शना कुमारी के पति वहां पहुंचे। शव की शिनाख्त की व अंतिम संस्कार भी। इसे भी संग्रहालय में रखा गया है।
बंटवारे की लकीर के पार 'रब्ब ने मिला दी जोड़ी'
यहां रखी फुलकारी जैकेट और ब्रीफकेस पाकिस्तान से भारत आए भगवान सिंह मैणी और प्रीतम कौर की निशानी हैं। विभाजन से पहले उनकी सगाई हुई थी। विवाह की तैयारियों के बीच विभाजन ने कहर ढा दिया। उनके परिवारों को उजड़ना पड़ा। प्रीतम कौर गोद में दो साल के भाई और हाथ में एक बैग में अपनी सबसे प्रिय फुलकारी जैकेट को लेकर अमृतसर जाने वाली ट्रेन में सवार हुईंं और यहां शरणार्थी शिविर में पहुंची। यह संयोग ही था कि उन्हें इसी शिविर में उसके होने वाले पति भगवान सिंह दिखाई दिए।
सरहद के पार डेढ़ करोड़ शरणार्थियों में यह मिलन चमत्कार से कम नहीं था। भगवान सिंह मैणी एक ब्रीफकेस लाए थे, जिसमें प्रॉपर्टी के दस्तावेज और स्कूल सर्टिफिकेट थे। 1948 में उनका विवाह हुआ। दोनों लुधियाना चले गए। भगवान सिंह का तीस वर्ष पूर्व, जबकि प्रीतम कौर का 2002 में देहांत हो गया। उनकी जैकेट और ब्रीफकेस आज भी उनकी कहानी बयां करते हैं।
एसपी रावल की गागर से पिया था शरणार्थियों ने पानी
एसपी रावल पाकिस्तान के मिंटगुमरी से संबंधित थे। रावल के पिता पाकिस्तान में अमीर जमींदार के रूप में जाने जाते थे। विभाजन के दौरान एसपी रावल अपने परिवार के साथ एक रेहड़े पर घरेलू सामान लादकर भारत आए। इसी सामान में एक पीतल की गागर भी थी। गागर इसलिए रखी गई थी, ताकि रास्ते में पानी की कमी न हो। जब वह कुरुक्षेत्र रिफ्यूजी कैंप में पहुंचे तो इसी गागर से सभी को पानी पिलाते थे। यह गागर उन्होंने स्वेच्छा से म्यूजियम को भेंट की है।
अमोल स्वानी का रेडियो व कंबल
अमोल स्वानी का परिवार विभाजन से पहले पेशावर में रहता था। पिता सूखे मेवों का कारोबार करते थे। दंगे भड़के तो अमोल स्वानी को उनके परिवार सहित उनके कुछ मुस्लिम कर्मचारियों ने ट्रक में मेवों से भरी बोरियों के पीछे छुपाकर सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। परिवार की महिलाओं ने बुर्का पहनकर अपनी जान बचाई। अमोल स्वानी अपने साथ तब यह रेडियो तथा कंबल लाए थे। इसी रेडियो पर दंगों से जुड़ी हर खबर को वह सुनते और आगे बढ़ते रहे। यही रेडियो उनका मनोरंजन कर समय-समय पर उनके गमों पर मरहम का काम भी करता रहा। इस रेडियो तथा कंबल को भी यहां सहेजा गया है।
शादी में मिली चारपाई, अंत तक रही साथ
कमलनैन भाटिया का परिवार भावलपुर में रहता था। उन्होंने एक मुसलमान खुदाबख्श की मदद से अपने परिवार को सुरक्षित भारत भेज दिया और स्वयं 1951 में आए। परिवार को उन्होंने एक चारपाई दी थी, ताकि रात को कहीं रुक कर आराम कर लें। चारपाई इसलिए भी खास थी, क्योंकि यह उनकी शादी में पत्नी अपने साथ लाई थीं। कमलनैन के पोते अंकित भाटिया बताते हैं कि करीब 15 साल पहले कमलनैन की पत्नी का निधन हुआ और वो तब तक इसी चारपाई का इस्तेमाल करती थीं। दो साल पहले कमलनैन का भी देहांत हो गया है।
कीश्वर का कश्मीरी कुर्ता
यहां रखा एक कुर्ता शकुंतला कीश्वर का है। देश विभाजन के समय वह परिवार सहित पेशावर से कश्मीर घूमने आई हुई थीं। घटनाक्रम इतनी तेजी से बदला कि वे लोग पेशावर नहीं लौट पाए। यह कुर्ता उनके पास उस वक्त की धरोहर था, जिसे उनके परिवार की मधु पूर्णिमा कीश्वर ने स्मृति के रूप में संग्रहालय को सौंप दिया।
इसी साड़ी में तो हुए थे फेरे
अमृतसर की रहने वाली शकुंतला खोसला 1935 में विवाह बंधन में बंधकर लाहौर चली गईं। विभाजन के दौरान जब दंगे भड़के तो वह परिवार सहित अमृतसर लौटना चाहती थी, पर उनके पति लाहौर में रहकर ही व्यापार करना चाहते थे। कुछ महीनों तक वह अपने रिश्तेदारों के यहां छिपकर रहे। जब रिश्तेदारों को भी जान से मारने की धमकियां मिलीं तो शकुंतला व उनके पति को भारत आना पड़ा। शकुंतला खोसला अपने साथ वह साड़ी लेकर आई जो उसने विवाह के दिन पहनी थी। उसे भी यहां रखा गया है।