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पढ़िए- 100 साल पहले अंग्रेजों ने ऐसे रची थी जलियांवाला बाग हत्याकांड की साजिश

13 अप्रैल 1919। दुनिया के इतिहास में शायद ही इससे ज्यादा काली तारीख दर्ज हो जब एक बाग में शांतिपूर्ण तरीके से सभा कर रहे निहत्थे-निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसा दी गई थीं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 13 Apr 2019 09:00 AM (IST)Updated: Sat, 13 Apr 2019 09:03 AM (IST)
पढ़िए- 100 साल पहले अंग्रेजों ने ऐसे रची थी जलियांवाला बाग हत्याकांड की साजिश
पढ़िए- 100 साल पहले अंग्रेजों ने ऐसे रची थी जलियांवाला बाग हत्याकांड की साजिश

नई दिल्ली [जागरण स्‍पेशल]। 13 अप्रैल 1919। दुनिया के इतिहास में शायद ही इससे ज्यादा काली तारीख दर्ज हो जब एक बाग में शांतिपूर्ण तरीके से सभा कर रहे निहत्थे-निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसा दी गई थीं। वह जगह थी अमृतसर का जलियांवाला बाग और इस अत्याचार का सबसे बड़ा गुनहगार था जनरल डायर। उस नरसंहार को आज सौ साल हो गए। हर भारतीय का मन उस त्रासदी के जख्मों से आहत है। ब्रिटिश सरकार ने लंबा वक्त लगा दिया इस घटना पर शर्मिंदगी जताने में, माफी अभी भी नहीं मांगी है।

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अंग्रेजों के रौलेट एक्ट के विरोध में लोग जलियांवाला बाग में सभा के लिए एकत्र हुए थे। वहां आए लोगों में अंग्रेज सरकार के प्रति गुस्सा था, फिर भी वे शांत थे। यह एक दिन में पैदा हुआ आक्रोश नहीं था। इसकी चिंगारी 1857 में ही पैदा हो गई थी। मार्च 1919 में जब ‘न वकील, न दलील और न अपील’ वाला काला कानून पास हुआ तो लोगों ने इसका विरोध किया। इसी विरोध की बौखलाहट में अंग्रेज शासन ने जलियांवाला बाग में मानवता-सभ्यता की हदें पार कर दीं। इन्हीं जख्मों की टीस से भगत सिंह और शहीद ऊधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों का जन्म हुआ, जिन्होंने जंग-ए-आजादी की च्वाला और तेज कर दी। इस घटनाक्रम के सौ साल पूरे होने पर पेश है इतिहास के उस काले अध्याय की कुछ यादें :

घटनाक्रम की पृष्ठभूमि

भारत में बढ़ती क्रांतिकारी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए ब्रिटिश भारत की अंग्रेज सरकार ने रौलेट एक्ट पास किया था। इसके तहत किसी व्यक्ति को संदेह होने पर भी गिरफ्तार किया जा सकता था या गुप्त मुकदमा चलाकर दंडित किया जा सकता था। विरोध के बावजूद इस कानून को 21 मार्च 1919 को लागू कर दिया गया। इस एक्ट के विरोध में गांधी जी ने पूरे देश में 30 मार्च को सभाएं करने और जुलूस निकालने का आह्वान किया था। बाद में यह तिथि बदलकर छह अप्रैल कर दी गई थी। इस दिन पूरे देश में हड़ताल हुई। गांधी जी को बंबई (अब मुंबई) से पंजाब जाते समय गिरफ्तार करके अहमदाबाद भेज दिया गया। इस हड़ताल में पंजाब, विशेषकर अमृतसर के लोगों ने सक्रिय रूप से भाग लिया।

बंद था अमृतसर

छह अप्रैल को पूरा अमृतसर बंद था। टाउन हॉल के आस-पास की सड़कें तकरीबन खाली हो गई थीं, क्योंकि सब लोग जलियांवाल बाग पहुंच चुके थे। रौलेट एक्ट का विरोध कर रहे पंजाब के दो प्रमुख नेताओं डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सतपाल को गिरफ्तार कर लिया गया तो पंजाबियों का गुस्सा भड़क उठा। 10 अप्रैल 1919 को अमृतसर में दंगे भड़क गए। गुस्साए लोगों ने कई यूरोपीय लोगों को मार दिया।

बोलती तस्वीर...

डायर की करतूत से भले ही इंग्लैंड आज शर्मिंदा है लेकिन भारतीयों के मन में उसके लिए नफरत आज भी जिंदा है... इस नफरत की जुबां बन गई है जलियांवाला बाग स्थित संग्रहालय में लगी पेंटिंग। कलाकार जसवंत सिंह द्वारा बीसवीं सदी के सातवें दशक में बनाई गई नरसंहार की इस मार्मिक तस्वीर पर यहां आने वाले दर्शक आज भी अपनी नफरत की निशानियां छोड़ जाते हैं। लोगों को जनरल डायर का चेहरा देखना गवारा नहीं इसलिए वे इसे खुरच देते हैं। जलियांवाला बाग नेशनल मेमोरियल ट्रस्ट के सचिव एसके मुखर्जी के अनुसार इस चित्र पर जनरल डायर के चेहरे (लाल घेरे में) को कई बार ठीक भी करवाया गया है, लेकिन यहां आने वाले दर्शक उस पर अपना गुस्सा निकाल ही जाते हैं।

गुरुदेव ने त्यागी ‘नाइटहुड’ की उपाधि

जलियांवाला बाग के नरसंहार ने हर भारतीय को झकझोर दिया था। भारतीय साहित्य के एक मात्र नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्र नाथ टैगोर भी इससे अछूते न थे। इस घटना के विरोध में उन्होंने अंग्रेज हुकूमत द्वारा दिए गए सम्मान और ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी थी, जिससे उन्होंने अपने नाम के साथ जुड़ा ‘सर’ त्याग दिया।जालंधर में रहता था जल्लाद जलियांवाला बाग हत्याकांड से एक साल पहले जनरल रेगिनाल्ड डायर जालंधर में तैनात हुआ था। मार्च 1918 में इंग्लैंड से पंजाब लौटे डायर ने यहां 45वीं इन्फेंट्री ब्रिगेड में अस्थायी जनरल के रूप में कार्यभार संभाला था। 100 साल बाद आज भी जालंधर छावनी के मॉल रोड पर वह घर आज भी है। इस इमारत पर उसने एक सुंदर गुंबद बनवाया था और पास में ही अपने हाथों से सिल्वर ओक का पेड़ लगाया था, जो अब भी है।

खून से रंग गया जलियांवाला बाग

वह बैसाखी का दिन था। किसान की पकी फसलें काटे जाने की प्रतीक्षा में थीं, पर देशवासी गेहूं से ज्यादा भारत मां की गुलामी की जंजीरों को काटने को बेचैन थे। जलियांवाला बाग में लोग पहुंच रहे थे। ठीक साढ़े चार बजे सभा शुरू हुई। जब जनरल डायर बाग में गया तो दुर्गादास भाषण दे रहे थे। ठीक पांच बजकर दस मिनट पर डायर के हुक्म से गोलियां बरसने लगीं। जान बचाने के लिए जनता भागने लगी, पर रास्ता नहीं था। बाग का कुआं लाशों से भर गया और अनेक लोग कुएं में ही मारे गए। स्वयं डायर ने एक संस्मरण में लिखा है-‘1650 राउंड गोलियां चलाने में छह मिनट से ज्यादा ही लगे होंगे।’ सरकारी आंकड़ों के अनुसार 337 लोगों के मरने और 1500 के घायल होने की बात कही गई है, किंतु दुर्भाग्य से सच्चाई आज तक सामने नहीं आई है।

उभरे नायक

जलियांवाला बाग में हुए गोलीकांड के बाद स्वतंत्रता संग्राम की च्वाला और भड़क गई थी। इस दिन यहां से कई नायक आजादी के परवाने बन कर उभरे।

ऊधम सिंह

जलियांवाला बाग नरसंहार के समय ऊधम सिंह जनसभा में आए लोगों को पानी पिला रहे थे। नरसंहार के बाद इन्होंने बाग की मिट्टी उठाकर कसम खाई कि वह निर्दोष हिंदुस्तानियों के हत्यारों जनरल डायर और पंजाब के तत्कालीन गवर्नर जनरल माइकल ओ ड्वायर को जान से मार देंगे। बीस साल बाद 13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में पंजाब के गवर्नर रहे माइकल ओ ड्वायर की गोलियां मारकर हत्या कर दी। 31 जुलाई 1940 को उत्तरी लंदन के पेंटनविले जेल में ऊधम सिंह को फांसी दे दी गई।

डॉ सैफुद्दीन

स्वतंत्रता सेनानी डॉ सैफुद्दीन किचलू प्रसिद्ध नेता और वकील थे। 1919 में रौलेट एक्ट के विरोध में महात्मा गांधी ने सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया तो डॉ सैफुद्दीन ने उसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। इस पर अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें और डॉ. सतपाल को गिफ्तार कर लिया, जिससे लोग भड़क उठे। इसके बाद जलियांवाला नरसंहार जैसी दुखद घटना हुई। बाद में इनके सहित 15 लोगों पर मुकदमा चलाया गया। अदालत ने उन्हें देश निकाला की सजा दे दी थी। इनका निधन देश की आजादी के बाद नौ अक्टूबर 1963 को हुआ।

डॉ. सत्यपाल

जलियांवाला नरसंहार के समय उनकी आयु 33 वर्ष थी। महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें भी डॉ. सैफुद्दीन किचलू के साथ गिरफ्तार कर लिया गया था। इन्हें धर्मशाला में नजरबंद कर दिया गया था। बाद में मुकदमा चलाकर उन्हें देश निकाला की सजा सुना दी गई थी।

रतन चंद

नवयुवकों को व्यायाम सिखाया करते थे। अंग्रेजों को शक था कि क्रांतिकारी युवकों से इनके संबंध हैं। रौलेट एक्ट के विरोध के कारण शहर के हालात खराब हुए तो 16 अप्रैल 1919 को अंग्रेज सैनिकों ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया। मार्शल लॉ की अदालत ने उनको मौत की सजा सुनाई। पं. मोतीलाल नेहरू ने केस लड़ सजा को उम्रकैद में बदलवाया। उन्हें दो साल अंडमान जेल में रखकर यातनाएं दी गईं। बंगाल की अलीपुर, लाहौर और मुल्तान की जेलों में भी रखा गया। 1936 में इन्हें रिहा किया गया। वर्ष 1964 में इनका निधन हो गया।

चौधरी बुग्गा मल

चौधरी बुग्गा मल को असीरा-अल-मार्शल (सैनिक राज का बंदी) का खिताब मिला था। बुग्गा मल युवाओं को कुश्ती और व्यायाम सिखाया करते थे। रौलेट एक्ट लागू हुआ था तो डॉ. सैफुद्दीन किचलू, डॉ. सत्यपाल और रतन चंद के साथ जंग-एआजादी में कूद गए। 12 अप्रैल को 450 सैनिकों की मौजूदगी में इन्हें गिरफ्तार किया गया। मौत की सजा सुनाई गई। पं. मोती लाल नेहरू के हस्तक्षेप पर सजा उम्रकैद में तब्दील हो गई। 17 साल बाद 1936 में इनको भी रिहा किया गया। इनका निधन 24 अप्रैल 1953 को हुआ।


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