महाराष्ट्रः यूं ही नहीं सुहाने लगते नेताओं को कजरी-बिरहा
Kajari birha. दहिसर में आयोजित कजरी के कार्यक्रम में शिवसेना विधायक प्रकाश सुर्वे मंच पर पधारकर बड़े गर्व से कहते हैं कि मैं तो उत्तर भारतीयों का विधायक हूं।
मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। इन दिनों जब पूरा उत्तर प्रदेश बछड़ों से अपने धान के खेत बचाने के लिए रात-रात भर पहरे दे रहा है, तो वहां की सांस्कृतिक पहचान कजरी-बिरहा जैसे लोकगीतों को बचाने की जिम्मेदारी मुंबई महानगर पूरी गंभीरता से निभा रहा है। सांस्कृतिक संस्था लोकायन एवं बयार मित्र परिवार की तरफ से दहिसर उपनगर में आयोजित कजरी के ऐसे ही एक कार्यक्रम में स्थानीय शिवसेना विधायक प्रकाश सुर्वे मंच पर पधारकर बड़े गर्व से कहते हैं कि मैं तो उत्तर भारतीयों का विधायक हूं।
मैंने ही इस कार्यक्रम के आयोजक अभय मिश्र से आग्रह किया था कि तीन वार्डों के बीच कजरी का एक कार्यक्रम यहां रख लिया जाए, तो दूसरा ठाकुर विलेज में। प्रकाश सुर्वे के विदा होते ही दूसरी विधायक मनीषा चौधरी भी कजरी के मंच पर गायकों के साथ फोटो खिंचवाती दिख रही थीं। स्थानीय सभासद जीतेंद्र पटेल तो पूरे समय उपस्थित थे ही। ये सभी नेता उत्तर भारतीय सांस्कृतिक आयोजनों में भरपूर सहयोग का वादा करके जाते हैं, और निभाते भी हैं।
ऐसे आयोजन एक जगह या एक संस्था की ओर से नहीं, बल्कि विभिन्न संस्थाओं की ओर से मुंबई में अलग-अलग स्थानों पर इन दिनों हो रहे हैं। सुरेश शुक्ल और राधा मौर्या से लेकर सुप्रसिद्ध लोकगायिका मालिनी अवस्थी तक इन कार्यक्रमों में अपने सुर बिखेर रही हैं। मुंबई में उत्तर प्रदेश दिवस मनाने के लिए विख्यात मुंबई भाजपा के महासचिव अमरजीत मिश्र अपनी सांस्कृतिक संस्था अभियान के माध्यम हर साल सावन लगते ही कजरी पखवाड़े का आयोजन करते हैं।
राज्य की भाजपानीत सरकार में महाराष्ट्र चित्रपट
रंगभूमि सांस्कृतिक विकास महामंडल के उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा रहे मिश्र के आयोजनों में तो उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के नेताओं का आगमन सामान्य बात है। इस बार भी उनकी कजरी में उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री अनिल राजभर, देवरिया से सांसद रमापति राम त्रिपाठी, उत्तर प्रदेश के ग्राम विकास मंत्री डॉ. महेंद्र सिंह, उत्तर प्रदेश फिल्म निर्माण निगम के अध्यक्ष राजू श्रीवास्तव के साथ महाराष्ट्र के भी कई मंत्री शिरकत कर चुके हैं। पारंपरिक तरीके से कजरी का आयोजन कराने में भाजपा प्रवक्ता प्रेम शुक्ल भी पीछे नहीं रहते। ठाणे स्थित येऊर की हरी-भरी पहाडि़यों के बीच स्वानंद बाबा आश्रम में आयोजित उनके कार्यक्रम में तो उत्तर भारतीय महिलाओं को मायके का अहसास दिलाने के लिए बाकायदा झूले के साथ-साथ चूड़ी, महावर, मेहंदी, सिंदूर और बिंदी का भी प्रबंध रहता है।
दो राय नहीं कि यह सांस्कृतिक आयोजन उत्तर प्रदेश से दूर रह रहे उत्तर प्रदेश मूल के लोगों को उनकी संस्कृति एवं रीति-रिवाजों से जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। लेकिन महाराष्ट्र के चुनावी वर्षो में इनका रंग और गाढ़ा हो जाता है। यही स्थिति इस बार के आयोजनों की है। करीब 60 विधानसभा सीटें रखने वाले मुंबई और ठाणे उत्तर भारतीय मतदाताओं बड़ा गढ़ हैं। माना जाता है कि इन दोनों शहरों में मिलाकर अब 45 फीसद आबादी हिंदीभाषी हो चुकी है। यहां की कई सीटों पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, बस्ती, गोंडा, कुशीनगर, आजमगढ़ और देवरिया आदि जनपदों के मूलनिवासियों की संख्या इतनी है कि वे किसी भी दल के उम्मीदवार के लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
यही कारण है कि कांग्रेस हमेशा यहां उत्तर भारतीयों को विशेष महत्व देती रही है। एक समय रायबरेली के मूल निवासी डॉ. राममनोहर त्रिपाठी यहां हिंदी भाषियों के सर्वमान्य नेता माने जाते थे। वह वसंतदादा पाटिल के मंत्रिमंडल के सदस्य रहे। फिर वाराणसी के चंद्रकांत त्रिपाठी भी मंत्री रहे। उत्तर भारतीय नेताओं का स्वर्णिम युग आया वर्ष 2000 में जब विलासराव देशमुख के मंत्रिमंडल में करीब पांच हिंदीभाषी मंत्री बने। इनमें गृह राज्यमंत्री कृपाशंकर सिंह, नागरिक आपूर्ति राज्यमंत्री मोहम्मद आरिफ नसीम खान, गृह निर्माण राज्यमंत्री नवाब मलिक के नाम महत्वपूर्ण रहे। वर्ष 2009 में कृपाशंकर सिंह के मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष रहते कांग्रेस के पांच हिंदीभाषी विधायक भी चुनकर आए।
लेकिन केंद्र की राजनीति में कांग्रेस कमजोर हुई, तो मुंबई में भी कांग्रेस से हिंदीभाषियों का मोहभंग होने लगा। कांग्रेस इसे संभाल भी नहीं पाई। उसने किसी उत्तर प्रदेश के हिंदीभाषी को कमान सौंपने के बजाय बिहार मूल के संजय निरुपम पर भरोसा जताया। जबकि मुंबई में उत्तर प्रदेश मूल के हिंदीभाषियों की आबादी करीब 25 फीसद, तो बिहार मूल के लोगों की आबादी सिर्फ चार फीसद है। कांग्रेस अभी भी हिंदीभाषियों को पुन: अपने से जोड़ने के लिए कोई कारगर रणनीति नहीं बना पाई है। मुंबई अध्यक्ष की जिम्मेदारी कांग्रेस ने फिलहाल राजस्थान मूल के मिलिंद देवड़ा को दे रखी है, जो हिंदीभाषी तो जरूर हैं, लेकिन मुंबई के उत्तर भारतीयों में उनकी पैठ बनना अभी बाकी है। दूसरी ओर भाजपा को कांग्रेस से छिटके उत्तर भारतीयों के वोट का लाभ तो जरूर मिला, लेकिन वह मुंबई में कांग्रेस जैसा कोई कद्दावर हिंदीभाषी नेतृत्व आज भी खड़ा नहीं कर सकी है।
नाम के लिए फड़नवीस सरकार में विद्या ठाकुर को राज्यमंत्री बनाया जरूर गया है, लेकिन संगठन में उत्तर भारतीयों को कोई खास महत्व आज भी नहीं दिया जाता। अब भाजपा चुनाव प्रभारी और सहप्रभारी के रूप में क्रमश: भूपेंद्र यादव एवं उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्या को लाकर हिंदीभाषियों को रिझाने की जुगत भिड़ा रही है। मुंबई अध्यक्ष की जिम्मेदारी उसने पहले ही राजस्थान मूल के मंगलप्रभात लोढ़ा को दे रखी है। इस प्रकार, भाजपा हो या कांग्रेस, इस समय दोनों के पास पूरी मुंबई पर प्रभाव रखनेवाला कोई सर्वमान्य नेता किसी के पास नजर नहीं आता। ऐसी स्थिति में सभी दलों के नेता अपने-अपने स्तर पर इस बड़े वोटबैंक को रिझाने में लगे हैं। अभी इसका बड़ा जरिया मुंबई में आयोजित कजरी समारोह बन रहे हैं, तो कुछ दिन बाद यहां होनेवाली रामलीलाएं बनेंगी।