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जम्‍मू कश्‍मीर: लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव न कराए जाने के फैसले पर उठ रहे सवाल

जम्‍मू कश्‍मीर में लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव न कराए जाने के चुनाव आयोग के फैसले पर राष्ट्रवादी सोच रखने वाले इसे राष्ट्रहित में बता रहे हैं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 11 Mar 2019 11:08 AM (IST)Updated: Mon, 11 Mar 2019 11:08 AM (IST)
जम्‍मू कश्‍मीर: लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव न कराए जाने के फैसले पर उठ रहे सवाल
जम्‍मू कश्‍मीर: लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव न कराए जाने के फैसले पर उठ रहे सवाल

जम्मू, अवधेश चौहान, राज्य में लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव न कराए जाने के चुनाव आयोग के फैसले पर कश्मीर केंद्रित सियासी दल भले ही सवाल उठा रहे हों लेकिन राष्ट्रवादी सोच रखने वाले इसे राष्ट्रहित में बता रहे हैं। हाल ही में केंद्र सरकार व राज्य शासन ने कड़े कदम उठाकर अलगाववादी ताकतों को कमजोर करने का प्रयास किया है। ऐसे में चिंता थी कि नई सरकार के सत्ता में आते ही यह तमाम उपाय वापस न ले लिए जाएं।

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एनसी व पीडीपी जमात जैसे अलगाववादी संगठनों पर रोक के खिलाफ हैं। राज्य शासन ने रोशनी एक्ट को समाप्त कर बड़ा कदम उठाया है। ग्राम सुरक्षा समितियों से हथियार वापस लेने के फैसले को बदल दिया गया। उन्हें राज्य प्रशासन ने आतंकवाद से लड़ने के लिए हथियार मुहैया करवाए। अलगाववादी संगठनों के करीब 71 बैंक खातों को सील कर दिया गया।

जमात-ए-इस्लामी के करीब 600 दफ्तरों को सील कर दिया गया। हुर्रियत कांफ्रेंस के अलगाववादी मीरवाइज उमर फारूक और यासीन मलिक सहित बड़े नेताओं की सुरक्षा वापस ले ली गई। राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने मीरवाइज के घर पर छापा मार कर कई आपत्तिजनक दस्तावेज बरामद किए।

यासीन मलिक और अन्य अलगाववादी नेताओं को श्रीनगर से जम्मू के कोट भलवाल जेल भेज दिया गया।महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी कश्मीरी अलगाववादियों के समर्थन में दिखती है। उमर अब्दुल्ला भी जमात पर रोक का विरोध जता चुके हैं। ऐसे में लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव होने से कुछ दल अलगाववादियों के एजेंडे को हवा दे सकते थे और इसका लाभ वह चुनावों में भी लेना चाहते। ऐसे में कई दल नहीं चाहते कि राज्य शासन के कठोर कदम वापस ले लिए जाए। विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ न करवाए जाने के फैसले पर सोशल मीडिया पर भी बधाइयों का सिलसिला शुरू हो गया है।

जम्मू के लोग फिर से 1996 जैसी स्थिति नहीं चाहते

राज्य में वर्ष 1990 के दौर में राज्यपाल शासन के दौरान आतंकवाद पर काबू पा लिया गया था, लेकिन जम्मू के लोग नहीं चाहते कि राज्य में फिर से 1996 जैसी स्थिति दोहराया जाए। 19 जनवरी 1990 से लेकर नौ अक्टूबर 1996 तक जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन रहा था।

राज्य शासन और गृह मंत्रालय से मिल रिपोर्ट के आधार पर लिया निर्णय

मुख्य चुनाव आयुक्त ने जम्मू कश्मीर के चुनाव पर विशेष फोकस किया। उन्होंने कहा कि राज्य शासन और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने वहां के सुरक्षा हालात पर विस्तृत रिपोर्ट सौंपी थी। उस रिपोर्ट का अध्ययन कर और अन्य सुरक्षा एजेंसियों से चर्चा के बाद सुरक्षा बलों की उपलब्धि व अन्य बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए विधानसभा चुनाव साथ न करने का निर्णय लिया। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग जम्मू कश्मीर की स्थिति पर निरंतर नजर रखे हुए है और जल्द वहां के हालात को देखते विधानसभा चुनाव पर निर्णय लिया जाएगा। फिलहाल केवल लोकसभा के चुनाव ही करवाने का निर्णय लिया गया है।

तीन सदस्यीय पर्यवेक्षक करेंगे निगरानी

चुनाव आयोग ने जम्मू कश्मीर के चुनाव प्रबंधों पर नजर रखने के लिए तीन सदस्यीय सेवानिवृत्त आइएएस और आइपीएस अधिकारियों का पैनल बनाया है। यह पैनल वहां के हालात पर नजर रखेगा। इसके अलावा इसके अलावा संवेदनशील क्षेत्रों में निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए विशेष पर्यवेक्षक तैनात किए जाएंगे।

जम्मू कश्मीर के लिए नियुक्त पर्यवेक्षकों में 1977 बैच के सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी नूर मोहम्मद, 1982 बैच के सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी विनोद जुत्सी और प्रख्यात सेवानिवृत्त आइपीएस अधिकारी अमरजीत सिंह गिल को शामिल किया गया है। 1972 बैच के आइपीएस रहे एएस गिल के पास सुरक्षा प्रबंधों को बड़ा अनुभव है। वह सीआरपीएफ के महानिदेशक रह चुके हैं। वह अपने सेवाकाल के दौरान कश्मीर में आइजी रह चुके हैं।

नूर मोहम्मद केंद्र सरकार में सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए थे और उनके पास चुनाव प्रबंधन का एक दशक से अधिक का अनुभव है। वह अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ हैं और अफगानिस्तान के सलाहकार रह चुके हैं।विनोद जुत्सी भी केंद्र में सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए थे। उनका भी चुनाव प्रबंधन में लंबा अनुभव है। वह राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी और केंद्रीय चुनाव आयोग में उप चुनाव आयुक्त रह चुके हैं। वह फिलहाल चुनाव आयोग को प्रशिक्षक के तौर पर सहयोग करते हैं।


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