बिलासपुर में कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस का पलड़ा रहा है भारी
बिलासपुर में भाजपा और कांग्रेस के दो-दो सुरक्षित गढ़ हैं। राज्य बनने के बाद मरवाही और कोंटा सीट पर कांग्रेस का कब्जा है।
संजीत कुमार, रायपुर। छत्तीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर में विधानसभा की कुल सात सीटें हैं। इनमें से पांच सामान्य हैं, जबकि एक अनुसूचित जाति व एक अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। जिले में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर होती है।
सीटों के लिहाज से पलड़ा कभी कांग्रेस का भारी होता है तो कभी भाजपा का। हालांकि, कुछ सीटों पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की भी स्थिति अच्छी है। इससे मुकाबला त्रिकोणीय हो जाता है, लेकिन राज्य बनने के बाद से पार्टी जिले में एक भी सीट नहीं जीत पाई है। वोट शेयर के गणित में कांग्रेस की स्थिति भाजपा के मुकाबले बेहतर नजर आती है।
दोनों के दो-दो सुरक्षित गढ़
जिले में भाजपा और कांग्रेस के दो-दो सुरक्षित गढ़ हैं। राज्य बनने के बाद मरवाही और कोंटा सीट पर कांग्रेस का कब्जा है। कोट सीट तो लंबे अर्से से कांग्रेस के पास है। इसी तरह बिलासपुर सीट पर भाजपा का कब्जा है। वहीं, पहले सिपत और फिर परिसीमन के बाद बने बेलतरा सीट पर भी भाजपा का बीते तीन चुनाव से कब्जा बरकरार है। भाजपा के अमर व बद्रीधर लगातार जीत रहे हैं।
वोट प्रतिशत बढ़ा, लेकिन भाजपा की सीटें घट गईं
राज्य गठन के पहले चुनाव में जिले में आठ सीटें थीं। भाजपा की लहर के बावजूद पार्टी आठ में से केवल तीन ही सीट जीत पाई। पार्टी को करीब 35 फीसद वोट मिले। 2008 के चुनाव में भाजपा का वोट शेयर महज दो फीसद बढ़ा, लेकिन पार्टी पांच सीट जीत गई। 2013 में वोट शेयर में मामूली बढ़ोतरी हुई, लेकिन सीट फिर सिमट कर तीन ही रह गईं।
कांग्रेस का वोट व सीट बढ़ी
2013 में कांग्रेस को जिले में करीब 44 फीसद वोट और चार सीटें मिलीं। 2008 में 39 फीसद वोट शेयर के बावजूद कांग्रेस केवल अपने दोनों गढ़ मरवाही और कोंटा ही बचा पाई थी। 2003 में पार्टी लगभग 44 फीसद वोट शेयर के साथ पांच सीटों पर काबिज थी।
मरवाही बढ़ता है कांग्रेस का वोट शेयर
बिलासपुर में कांग्रेस का वोट शेयर बढ़ने की सबसे बड़ी वजह मरवाही सीट है। इस सीट से दो बार अजीत जोगी व पिछली बार उनके पुत्र अमित जोगी ने चुनाव लड़ा था। तीनों ही बार यह सीट प्रदेश की सर्वाधिक अंतर से जीती गई सीट बनी।
रिपीट नहीं करता बिल्हा
जिले की बिल्हा सीट से दोनों दल हर बार एक ही चेहरे को मैदान में उतार रहे हैं, लेकिन वोटर एक प्रत्याशी को दूसरी बार मौका नहीं देते। यानी हर बार जीतने वाला प्रत्याशी और पार्टी बदल जाती है। भाजपा सरकार में मंत्री रहे डॉ. कृष्णमूर्ति बांधी दो चुनाव लगातार जीतने के बाद 2013 में हार गए।