कर्नाटक के जॉर्ज को बिहार ने दी सियासी उड़ान, सरोजिनी से शरद तक और भी कई नाम
दिवंगत जॉर्ज फर्नांडिस का गुरुवार को अंतिम संस्कार होगा। बिहार ने उन्हें सियासी पहचान दी। दरअसल, बिहार दूसरे प्रदेशों से बिहार आकर राजनीतिक पहचान बनाने वालों की लंबी सूची है।
पटना [अरविंद शर्मा]। जातीय आधार पर चुनाव के लिए बदनाम बिहार की सियासत ने मंगलोर (कर्नाटक) में पले-बढ़े जॉर्ज फर्नांडिस के अलावा भी दूसरे प्रदेशों के कई अन्य नेताओं को सहारा दिया है। सरोजिनी नायडू, जेबी कृपलानी मीनू मसानी, मधु लिमये, अशोक मेहता, मो. यूनुस सलीम, चंद्रशेखर से लेकर वर्तमान में शरद यादव सरीखे कई नेता बिहार की सियासी जमीन पर खड़े होकर सदन में लोकतंत्र की आवाज बुलंद कर चुके हैं। इन्हें जन्मभूमि से ज्यादा कर्मभूमि में शोहरत मिली।
चेहरा देखा, संभावनाएं समझी और चुन लिया प्रतिनिधि
बिहार की सियासत को जातीय चश्मे से देखने वालों के नजरिए को ऐसे नेता खारिज करते नजर आते हैं। वोटरों ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुनते वक्त न जाति पूछी, न पहचान। किसी के मन में यह भी नहीं आया कि जीतने के बाद वे सदन में बिहार की बातें और हित की रक्षा करेंगे भी या नहीं। तात्कालिक तौर पर चेहरा देखा। संभावनाएं समझी और चुन लिया।
शरद यादव भी जॉर्ज के नक्शेकदम पर
मंगलोर में जन्मे और मुंबई में सियासी उभार पाने के बाद पहली बार जॉर्ज जब बिहार आए तो यहीं के होकर रह गए। जबलपुर से पहली बार सांसद बने शरद यादव भी जॉर्ज के नक्शेकदम पर हैं। मध्य प्रदेश से एक बार आए तो लौटकर नहीं गए। जॉर्ज बिहार से सात बार तो शरद चार बार लोकसभा की दूरी तय कर चुके हैं। 1991, 1996, 1999 एवं 2009 में मधेपुरा से सांसद चुने गए। हालांकि, 1998 और 2004 में लालू प्रसाद से हार गए तो राज्यसभा भी भेज दिए गए। अब अगली बार के लिए भी बिहार में ही जमीन तैयार कर रहे हैं।
बिहार से चार बार सांसद बने मधु लिमये
समाजवादी नेता मधु लिमये की सियासत की कहानी बिहार के बिना पूरी नहीं हो सकती है। जॉर्ज की तरह वे भी महाराष्ट्र से ही बिहार आए थे। सादगी और वैचारिक पैमाने के बड़े नेताओं में शुमार लिमये मुंगेर और बांका संसदीय सीटों से कुल चार बार 1964 से 1979 तक लगातार लोकसभा जाते रहे।
चंद्रशेखर के लिए भी शुभ साबित हुई बुद्ध की धरती
बलिया से बार-बार जीत रहे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के लिए भी बुद्ध की धरती शुभ साबित हुई। 1991 में वे महाराजगंज से लोकसभा पहुंचे तो प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए। यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने यह सीट छोड़ दी थी।
यूनुस सलीम की कहानी भी दिलचस्प
लखनऊ के मो. यूनुस सलीम की कहानी और दिलचस्प है। उन्हें बिहार ऐसा रास आया कि राज्यपाल पद से इस्तीफा देकर जनता दल के टिकट पर कटिहार से चुनाव लड़े और जीते। गुजरात के भावनगर में जन्मे अशोक मेहता मुजफ्फरपुर से 1957 के चुनाव में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से चुने गए थे। यह पार्टी उन्हीं की अध्यक्षता में बनी भी थी, जिसका एक समय बिहार की सियासत में अच्छा हस्तक्षेप था।
सरोजिनी ने शुरू किया था सिलसिला
सियासत में बिहार आकर किस्मत आजमाने का सिलसिला सरोजनी नायडू से शुरू होता है। आजादी से पहले 1946 में संविधान सभा के लिए उन्हें बिहार से ही सदस्य चुना गया था। हैदराबाद में जन्मी सरोजिनी बाद में उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बनीं।
हैदराबाद में ही जन्मे प्रसिद्ध कांग्रेेसी नेता जेबी कृपलानी वर्ष 1912 में मुजफ्फरपुर के एक कालेज में प्रोफेसर बनकर आए तो दोबारा वापस नहीं गए। 1953 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से भागलपुर से चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे। एक बार सीतामढ़ी से भी चुने गए। हालांकि, बाद में पार्टी से इस्तीफा देकर निर्दलीय हो गए।
जॉर्ज से पहले मुंबई के मीनू मसानी भी संयुक्त बिहार में 1957 में रांची से निर्दलीय लड़कर सांसद बने थे। 1943 में वह मुंबई के महापौर भी बने थे।
उच्च सदन की लाइन भी छोटी नहीं
राज्यसभा जाने वालों की भी लाइन छोटी नहीं है। ऐसे नेताओं में इंद्रकुमार गुजराल प्रमुख हैं। वे बिहारी सांसद के रूप में ही प्रधानमंत्री बने थे। हालांकि, इसके पहले 1991 का लोकसभा चुनाव वे पटना से हार गए थे। उनके अतिरिक्त कपिल सिब्बल, प्रेमचंद गुप्ता, पवन वर्मा, हरिवंश, केसी त्यागी, राम जेठमलानी एवं धर्मेंद्र प्रधान समेत दर्जन भर से ज्यादा नेता बिहार के रास्ते उच्च सदन की यात्रा कर चुके हैं।