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Emergency @45 Year: सेनानियों ने यूं सुनाई आपबीती, लोकतंत्र का हर समर्थक हो गया था सरकार का दुश्मन

Emergency 45 Year यहां पढ़ें आपातकाल में अत्‍याचार के शिकार हुए लोकतंत्र सेनानियों की बताई आपबीती।

By Pradeep SrivastavaEdited By: Published: Thu, 25 Jun 2020 11:11 AM (IST)Updated: Fri, 26 Jun 2020 08:13 AM (IST)
Emergency @45 Year: सेनानियों ने यूं सुनाई आपबीती, लोकतंत्र का हर समर्थक हो गया था सरकार का दुश्मन
Emergency @45 Year: सेनानियों ने यूं सुनाई आपबीती, लोकतंत्र का हर समर्थक हो गया था सरकार का दुश्मन

गोरखपुर, जेएनएन। इमरजेंसी, जो शब्द ही किसी को भयभीत करने के लिए काफी है। उसे देश की जनता को पूरे 21 महीने झेलना पड़ा। केवल तत्कालीन सरकार की तानाशाही प्रवृत्ति की वजह से। वह 21 महीने बहुत भारी पड़े थे हर उस व्यक्ति पर, जो इंदिरा गांधी सरकार के इस फैसले से इत्तेफाक नहीं रखता था। यानी लोकतंत्र का समर्थक हर व्यक्ति सरकार के निशाने पर था। नतीजन लोगों पर जमकर अत्याचार हुआ। विरोध की इ'छा रखने वाले व्यक्ति को भी खोजकर जेल में डाल दिया गया। किसी पर मीसा यानी मेंटिनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट लगाया गया तो कोई डीआइआर यानी डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स के दायरे में आया। लोकतांत्रिक देश तानाशाही का शिकार हो गया। इमरजेंसी को लेकर यह बातें वह लोग बताते हैं, जिन्होंने तत्कालीन सरकार के अत्याचार को झेला था और लोकतंत्र की बहाली में भूमिका निभाई थी। उस काले दिन की बरसी पर जब लोकतंत्र के सेनानियों से बात की गई तो उन्होंने खुलकर अपनी आपबीती बयां की।

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पैर से कुचलकर निकाल दिया नाखून

इमरजेंसी के दौरान आताताई हो गई थी तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार। विरोध करने वालों के खिलाफ दुश्मन सा व्यवहार हो रहा था। जब इमरजेंसी की घोषणा हुई तो पुलिस वालों ने विरोधी खेमे में होने के कारण मुझे भी खोजना शुरू कर दिया। ऐसे में मैंने बिहार के पश्चिमी चंपारन की राह पकड़ ली और वहां अपने एक मित्र के यहां रहकर इमरजेंसी के खिलाफ पर्चा बांटना शुरू दिया। पर्चा बांटने के लिए हम कई बार महराजगंज तक चले आते थे। पुलिस जब मुझे खोजने में असहाय हो गई तो उसने दोहरीघाट थाने में घर के मवेशियों सहित पिताजी को बैठा लिया। जानकारी मिली तो मैंने गिरफ्तारी देने का फैसला किया। गोरखपुर आकर यहां आंदोलन चला रहे मित्रों से संपर्क साधा। सबने तय किया कि थाने में हाजिर नहीं होना है, सम्मान के साथ गिरफ्तारी देनी है। तय हुआ कि कलेक्ट्रेट में पर्चा बांटा जाएगा। निर्धारित समय ठीक 11 बजे मैं और मेरे मित्रों ने पर्चा बांटना शुरू किया और इंदिरा गांधी मुर्दाबाद, लोकतंत्र जिंदाबाद का नारा लगाने लगे। जैसे ही पुलिस वालों ने देखा, एक-एक पर 50-50 की संख्या में टूट पड़े। एक दारोगा ने तो मेरे हाथ अंगुली को अपने पैर से इस तरह कुचला कि नाखून ही निकल गया। बवाल न बढ़े, इसलिए आनन-फानन में हमें मीसा लगाकर जेल भेज दिया गया। जेल में भी हम शांत नहीं बैठे। अधिकारों की लड़ाई वहां भी चलती रही। साथी रवींद्र सिंह और मैं दो बार अधिकारों के लिए धरने पर बैठे, सो जेलर ने दो दिन के लिए हमें तन्हाई बैरक में डाल दिया था। जेल में साथियों के घर के लोगों की मौत की सूचना मिलती तो हम वहीं अपने-अपने हिस्से के राशन को जुटाकर ब्रह्मभोज आयोजित करते और जेल के सभी बंदियों को खिलाकर अपना संस्कारिक फर्ज पूरा करते। 18 महीने जेल में रहने के बाद पता चला कि आपातकाल समाप्त हो गया है और हम रिहा हुए। इतना दर्द सहने के बाद इस बात का सुकून और गर्व था कि हम लोकतंत्र बहाली कराने में कामयाब रहे। - जितेंद्र राय, महामंत्री, लोकतंत्र सेनानी सेवा संस्थान, उत्तर प्रदेश।

जेल में भी खानी पड़ीं थीं लाठियां

वह ऐसा दौर था जब लोकतंत्र को तानाशाही में तब्दील किया जा रहा था। इंदिरा गांधी का देश के चारों स्तम्भ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस पर कब्जा हो गया था। जैसे ही 25 जून 1975 को इमरजेंसी की घोषणा हुई, देश भर में ऐसे लोगों की गिरफ्तारी का सिलसिला शुरू हो गया, जो उसके विरोध में थे। हम भी विरोधियों में से थे, सो हमें भी पुलिस ने खोजना शुरू कर दिया। ऐसे में तत्काल प्रभाव से हम अंडर ग्राउंड हो गए पर विरोध का क्रम जारी रखा। इमरजेंसी के खिलाफ पर्चा बांटना और अवसर मिलते ही नारे लगाकर अपना विरोध जताना हमारी दिनचर्या हो गई थी। इसे लेकर हमारी एक टीम बनी हुई थी। सुबह ही यह तय हो जाता था कि आज हमें कहां पर्चा बांटना है और कहां नारा लगाना है। यह सिलसिला करीब 20 दिन चला। 16 जुलाई को मैं अपने दोस्तों के साथ कलेक्ट्रेट परिसर में नारा लगा रहा था तो पुलिस को मौका मिल गया और उसने तत्काल गिरफ्तार कर लिया। हालांकि हमने तब भी जितना हो सका भाषण और नारे लगा कर विरोध दर्ज कराया। हमें जीप में ठंूस कर कैंट थाने ले जाया गया। एक दिन और एक रात थाने के लॉकअप में रखने के बाद अगले दिन डीआइआर लगाकर हमें जेल भेज दिया गया। उस समय जेल में ऐसे बंदियों की बड़ी संख्या थी, जो इमरजेंसी का विरोध कर रहे थे। जेल में मेले जैसा माहौल था। 13 महीने की जेल की रिहाइश के दौरान हमारे विरोध का सिलसिला वहां भी जारी रहा। धरना, प्रदर्शन, नारेबाजी वहां भी खूब हुई। इस चक्कर में दो बार जेल में लाठीचार्ज भी हुआ, जिसमें हल्की चोटें आईं। जेल में हमें अपने घर वालों से मिलने नहीं दिया जाता था। मेरे बड़े भाई और भतीजे जब भी मिलने के लिए जेल पहुंचते, वहां से उन्हेंं यह कहकर भगा दिया गया कि अगर दोबारा आए तो उन्हेंं भी जेल में डाल दिया जाएगा। खैर हमारी मेहनत रंग लाई और देश में लोकतंत्र की बहाली हुई। - राम सिंह, पूर्व अध्यक्ष, छात्रसंघ, गोरखपुर विश्वविद्यालय, अध्यक्ष,लोकतंत्र सेनानी सेवा संस्थान , उत्तर प्रदेश

हमें देखते ही टूट पड़ी थी पुलिस

देश में इमरजेंसी तब लगाई गई जब किसी की कल्पना में भी नहीं था कि लोकतांत्रिक देश की पहचान रखने वाले देश में तानाशाही का राज होगा। इंदिरा गांधी ने पूरे देश को अपनी बपौती समझ लिया था। हद तो तब हो गई जब इमरजेंसी का विरोध करनेवाले हर नेता या व्यक्ति को जेल की राह दिखा दी गई। उन्हेंं प्रताडि़त किया गया। मैं भी विरोध करने वालों में से था, इसलिए पुलिस ने गिरफ्तारी के लिए मेरी भी तलाश शुरू कर दी। जगह-जगह छापेमारी शुरू हो गई। ऐसे में दो महीने के लिए मैं और मेरे दोस्त भूमिगत हो गए। कभी किसी के घर में रात बीतती तो कभी किसी के। कोई ठिकाना ही नहीं रह गया था हमारा। दिन में घूमते और रात में कहीं खाकर सो जाते। अगले दिन से फिर वही दिनचर्या। हां, इस दौरान छुप-छुप कर इमरजेंसी के विरोध का सिलसिला जारी रहा। दो महीने बाद हम दोस्तों की टीम के मुखिया रवींद्र सिंह ने गिरफ्तारी देने का फैसला किया। सभी  ने कलेक्ट्रेट परिसर से गिरफ्तारी देने की योजना बनाई। तय समय पर सब लोग भेष बदलकर तय स्थान पर पहुंचे और इमरजेंसी विरोध का नारा लगाते हुए पर्चा बांटने लगे। आमतौर पर मैं उन दिनों धोती-कुर्ता पहनता था लेकिन कलेक्ट्रेट पैंट-शर्ट पहनकर पहुंचा। जैसे ही पुलिस वालों ने हमें देखा, टूट पड़े। देखते ही देखते हम पुलिस की जीप में ठंूस दिए गए। कैंट थाने लाए गए लेकिन बवाल होने के डर से हमें वहां बहुत देर नहीं रोका गया। मीसा लगाकर जेल भेज दिया गया। जेल में भी इमरजेंसी विरोध का सिलसिला जारी रहा। इस चक्कर में कई बार वहां लाठीचार्ज भी हुआ। कुल 17 महीने तक मैं जेल में रहा। परिवार को हमसे मिलने नहीं दिया जाता था, इसलिए पत्नी का रो-रो कर बुरा हाल रहता था। आखिरकार इंदिरा गांधी को इमरजेंसी हटानी पड़ी। इमरजेंसी से हमें नहीं बल्कि पूरे देश को निजात मिली। हमारा देश अपनी पहचान को फिर से हासिल कर सका। - विश्वकर्मा द्विवेदी, पूर्व अध्यक्ष, छात्रसंघ, गोरखपुर विश्वविद्यालय, लोकतंत्र सेनानी।

अपराधी की तरह खोज रही थी पुलिस

जब इमरजेंसी लगी तो मैं झंगहा विधानसभा क्षेत्र से विधायक था। चूंकि मेरी पार्टी लोकदल थी, सो मैं तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के सीधे निशाने पर था। इमरजेंसी की घोषणा की जानकारी हुई तो लखनऊ से अपने गांव के लिए चल दिया। लखनऊ की पुलिस मुझे वहां खोज रही थी, झंगहा की पुलिस मेरे गांव विशुनपुरा में। जैसे कि मैं कोई अपराधी हूं, जबकि मैं तो रास्ते में था। पुलिस को जब यह पता चला कि मैं गोरखपुर पहुंचने वाला हूं और बस से आ रहा हूं तो गोरखपुर बस स्टेशन पर घेराबंदी कर दी गई।  मैं पैडलेगंज में ही उतर गया। यहां उतरने के बाद जब मुझे पुलिस की गतिविधियों की जानकारी मिली तो मैंने ससुराल जाने की योजना बना ली। ससुराल पहुंचने ही वाला था कि पता चला, वहां भी छापेमारी हो रही है। ऐसे में मैं अपने गांव की ओर रुख कर लिया। गांव पहुंचा और  छुप-छुप कर रहने लगा। पुलिस जब भी छापेमारी करती मैं बचकर निकल जाता। आखिरकार मैं एक दिन उनकी पकड़ में आ गया। अभी खिड़की के रास्ते भागने की कोशिश कर रहा था कि पुलिस ने यह कहकर गिरफ्तार होने के लिए मजबूर कर दिया कि आखिर एक दिन तो गिरफ्तारी देनी ही पड़ेगी। क्योंकि इससे बचना संभव नहीं। मेरे ऊपर इस आरोप के साथ मीसा लगाया गया कि मैं इमरजेंसी के खिलाफ झंगहा चौराहे पर भाषण दे रहा था। जेल में रहने के दौरान पता चला कि मेरे पिताजी की किसी पागल ने दांत से अंगुली काट ली है। पिताजी को देखने के लिए कुछ दिन पेरोल पर छोड़ दिया जाए लेकिन इसकी मोहलत नहीं दी गई। अंत में मुझे जेल में अनशन करना पड़ा, तब जाकर पेरोल मिली। पेरोल की अवधि खत्म होने पर जब फिर जेल जाने की नौबत आई तो उसी दौरान इमरजेंसी हटा ली गई। इस दौरान मुझे करीब 14 महीने मीसा बंदी के रूप में जेल में रहना पड़ा। जेल की रिहाइश के दौरान सुविधाओं को लेकर कई बार जेल प्रशासन से मोर्चा भी लेना पड़ा। जेल में हुए लाठीचार्ज में चोट भी आई। - फिरंगी प्रसाद विशारद, पूर्व सांसद व लोकतंत्र सेनानी। 


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