CoronaVirus Lockdown : प्रासंगिक : नन्हीं परियों की खामोशी और उदास सड़क
Lockdown कल के बच्चे जो अब नाना-बाबा हो गए याद करने बैठेंगे तो भी याद न कर पाएंगे कि भला वह कौन सी रामनवमी थी जब उनके या पड़ोसी के घर में कभी कन्या न खिलाई गई हो।
[आशुतोष शुक्ल]। सड़कों पर ठुमकती नन्हीं परियां नहीं थीं। एक हाथ में पैसे और दूसरे से रंगबिरंगा लहंगा-चुनरी संभालती इधर उधर दौड़ी जाती गुड़ियां अपने घरों में थीं। खिड़कियों पर टिकी और छतों से झांकती ये परियां शांत थीं। एक विशिष्ट आवभगत का आनंद न लेने का मलाल तो था उन्हें लेकिन, वे इतनी समझदार भी थीं कि मम्मी-पापा के समझाये समझ गई थीं कि यह समय कठिन है, यह सुबह अलग है और यह नवरात्र उदास है। साथ ही उनमें यह प्रबल विश्वास भी था कि ये दिन भी जाएंगे, नई सुबह भी आएगी और आज की कसर हम शारदीय नवरात्र में निकालेंगे।
कल के बच्चे जो अब नाना-बाबा हो गए याद करने बैठेंगे तो भी याद न कर पाएंगे कि भला वह कौन सी रामनवमी थी जब उनके या पड़ोसी के घर में कभी कन्या न खिलाई गई हो। दोनों नवरात्र का समापन कन्या भोज से ही होता है। घर-घर जाती हैं बच्चियां और हर आंगन में होता है हवन। नवमी के दिन मुहल्लों की रौनक देखते ही बनती। छोटी छोटी परियां और उनसे कुछ बड़ी उनकी एक विंग कमांडर। नवमी पर इनकी इतनी मांग कि आपूर्ति कम पड़ जाती। इस घर से निकल उस घर जाती लड़कियां सबका मन मोह लेतीं।
बेचारियों का नन्हा पेट तो पहले ही घर में भर जाता फिर भी बुलव्वा है कि आये पड़ा है। ये भी क्या करें ! इतनी जिम्मेदारी का काम ! मना भी कैसे करें लिहाजा यह सेना सबका मन रखती और सबके यहां जाती। खाते न बनती तो बांध लाती। थोड़ी ललक उस आर्थिक सम्मान की भी होती जो बाद में गृहस्वामिनी उन्हें पकड़ाती। इनके पीछे पीछे एक लंगूर चलता। यही वह दिन होता जब लड़कों की पूछ कम हो जाती और लड़कियां बात बेबात उसे डपट देतीं। जिस भी घर लड़कियां पहुंच जातीं, वह मधुर शोर से भर उठता। घंटों बाद अपने-अपने घर लौटी परियां जब अपने पैसे गिनतीं, जब अपने पेट पर हाथ फिराते हुए गहरी-गहरी सांसें लेतीं तो उनकी यह मुद्रा देख मां-बाप आह्लादित हो उठते। लड़कियों का पूरा दिन पहले आमंत्रण और फिर उसकी चर्चा में जाता।
2020 की यह रामनवमी इतिहास में दर्ज हो गई। गुरुवार की सूनी सड़कें सवाल बन गईं। सड़कों ने पूछा कि हमने अगर परियों को उतरते नहीं देखा तो तुम क्यों निकल आए घर से। पूछा सड़कों ने कि अगर हंसते खेलते बचपन ने मान ली सरकार की बात तो तुम कौन होते हो उनकी सुरक्षा को दांव पर लगाने वाले। तुम्हारा साहस कैसे हुआ लक्ष्मणरेखा को लांघने का। तुम मां के लिए दवा लेने निकले हो तो स्वागत है तुम्हारा। राशन लेने निकले हो तो लो और फौरन लौट जाओ। लेकिन, यह क्या ! तुम तो तफरी के लिए निकल आए। केवल इसलिए निकल आए क्योंकि सरकार की बात मानना तुम्हें स्वीकार नहीं। पूछा उदास सड़कों ने क्रोध में आकर कि अपने और दूसरों के भले के लिए खुद को घरों में कैद रखने की सरकारी सीख तुम मानना क्यों नहीं चाहते। यह क्यों नहीं समझते कि ऐसा करके तुम अपने लिए तो खतरा हो ही, अपने परिवार के लिए भी खतरनाक हो।
इसलिए राज्य और केंद्र सरकारों को और सख्त होना होगा। समग्र मानवता की भलाई के लिए...!
[संपादक, उत्तर प्रदेश]