Bihar Assembly ELection 2020: क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता के सवालों को बिहार चुनाव ने दिया विराम
बिहार में दोनों मुख्य गठबंधनों के चुनावी चेहरे भी क्षेत्रीय पार्टियों के ही नेता हैं। एनडीए गठबंधन की अगुआई कर रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड का सूबे के बाहर कोई सियासी आधार नहीं तो तेजस्वी यादव की राजद भी बिहार की सियासत में ही रची-बसी है।
संजय मिश्र, नई दिल्ली। बिहार विधानसभा के मौजूदा चुनाव ने लोकसभा चुनाव 2019 के बाद देश में क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक प्रासंगिकता पर उठाए गए सवालों पर विराम लगा दिया है। आधा दर्जन से अधिक बड़े राज्यों में क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व के साथ सत्ता उनके हाथ में होना इस बात का सबूत है कि क्षेत्रीय पार्टियों का राजनीतिक आधार अब भी कायम है।
बिहार समेत आधा दर्जन से अधिक बड़े सूबों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व
बिहार के राजनीतिक अखाड़े में आर-पार की जंग में उतरे दोनों मुख्य गठबंधनों के चुनावी चेहरे भी क्षेत्रीय पार्टियों के ही नेता हैं। एनडीए गठबंधन की अगुआई कर रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड का सूबे के बाहर कोई सियासी आधार नहीं तो महागठबंधन का नेतृत्व कर रहे तेजस्वी यादव की राजद भी बिहार की सियासत में ही रची-बसी है। एनडीए में भाजपा भले ही लगभग जदयू के बराबर सीट पर चुनाव लड़ रही है, मगर उसे नीतीश कुमार के नेतृत्व को कबूल करना पड़ा है। जबकि महागठबंधन में कांग्रेस तो राजद के मुकाबले आधी केवल 70 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है। ऐसे में उसके पास तेजस्वी के नेतृत्व को स्वीकार करने के अलावा विकल्प ही नहीं है।
बिहार के मौजूदा चुनाव ही नहीं 2019 लोकसभा चुनाव के बाद अब तक जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, वहां क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ा है। लोकसभा चुनाव के चार महीने बाद ही महाराष्ट्र और हरियाणा के हुए चुनाव में दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां क्षेत्रीय दलों के सामने मजबूर नजर आए। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव बाद सत्ता हासिल कर ली। तो हरियाणा में बहुमत से दूर रही भाजपा को सत्ता के लिए दुष्यंत चौटाला को उपमुख्यमंत्री पद देकर जजपा को सूबे की सियासत में अपनी जगह बनाने का मौका देना पड़ा। इसके बाद हुए झारखंड के चुनाव में जेएमएम ने बाजी मारते हुए मुख्यमंत्री पद हासिल किया और कंधे पर सवार कांग्रेस इस गठबंधन में जूनियर पार्टनर है।
जबकि फरवरी 2020 में दिल्ली के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सूबे की आम आदमी पार्टी के सामने नहीं दूर- दूर तक नहीं टिक पाए। लोकसभा के पिछले आम चुनाव में तीन दशक पश्चात भाजपा को अपने बूते मिली तीन सौ से अधिक सीटों के बाद क्षेत्रीय दलों को लेकर किंतु-परंतु के सवाल तेज हुए थे। हालांकि हकीकत यह भी है कि बिहार के अलावा मौजूदा समय में पश्चिम बंगाल, ओडि़सा, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना जैसे बड़े राज्यों में क्षेत्रीय दलों का सियासी वर्चस्व कायम है। झारखंड और महाराष्ट्र में भी सत्ता की कमान क्षेत्रीय पार्टियों के हाथों में हैं। इसी तरह दिल्ली के अलावा मिजोरम, सिक्किम, नगालैंड, मेघालय जैसे छोटे सूबों में भी क्षेत्रीय पार्टियों की सत्ता है।
मौजूदा लोकसभा में भी क्षेत्रीय दलों के सांसदों की संख्या करीब 164
वैसे यह भी कम दिलचस्प तथ्य नहीं है कि मौजूदा 17वीं लोकसभा में भी क्षेत्रीय दलों के सांसदों का आंकड़ा करीब 164 है। इसमें आधा दर्जन ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां हैं जिनके लोकसभा सदस्यों की संख्या एक से दो दर्जन के बीच है। लोकसभा में इस समय द्रमुक के 24, तृणमूल कांग्रेस के 22, वाइएसआर कांग्रेस 21, शिवसेना 18, जदयू 15 और बीजद के 12 सांसद हैं। इसी तरह टीआरएस के नौ, लोजपा के छह, सपा के पांच और टीडीपी जैसे दल के तीन सदस्य हैं। इतना ही राज्यों में मौजूदा सत्ता के मौजूदा सियासी मानचित्र के हिसाब से भी आंका जाए तो लोकसभा की करीब 350 ऐसी सीटे हैं जहां क्षेत्रीय का प्रभाव है और इन सीटो पर वे दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों में से किसी न किसी से टक्कर की स्थिति में हैं।