लखनऊ, जेएनएन। सपा अध्यक्ष की कुर्सी हासिल कर उत्साहित अखिलेश यादव सत्ता की चाहत में आंख मूंदकर ऐसे दौड़े कि मजबूत संगठन और भरोसेमंद बेस वोट की साइकिल काफी पीछे छूट गई। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन कर गच्चा खा चुके सपा मुखिया अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव में भी वही पैंतरा आजमाते हुए बसपा से गठबंधन किया। अब हाल यह है कि तेजी से बढ़ने की चाहत में वह साख भी गंवा बैठे हैं। यादव वोट बैंक के भी खिसक जाने के सबसे बड़े संकट की ओर तो बसपा प्रमुख मायावती ने इशारा किया है।
इसमें कोई शक नहीं कि लोकसभा चुनाव में गठबंधन का असल लाभ बसपा को हुआ है। उसके सांसदों की संख्या शून्य से सीधे 10 पर पहुंच गई। मायावती भले ही सपा पर यादव वोट ट्रांसफर नहीं हो पाने की तोहमत लगाएं, लेकिन गठबंधन के बिना बसपा को यह उपलब्धि मिल पाना मुमकिन नहीं था। मुस्लिम वोटों में बिखराव न होने का लाभ गठबंधन को मिला, जबकि कांग्रेस खाली हाथ रह गई।
वहीं, बसपा से हाथ मिलाने का सपा को नुकसान ही हुआ। 2014 की तरह पांच सीटें बचाने में भले ही सफलता मिल गई हो, लेकिन पारंपरिक कन्नौज, बदायूं और फीरोजाबाद सीट से परिवार को मिली हार सबसे बड़ा नुकसान है। दबी जुबां से खांटी सपाई भी मान रहे हैं कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन हुआ तो सौ से अधिक सीटों पर सपा नेता चुनाव नहीं लड़ पाए। अब बसपा से गठबंधन में सीटें बंटी तो आधी सपा अपने आप ही सिमट गई। इससे संगठन कार्यकर्ताओं का हौसला भी टूटा।
फिसलती एमवाइ की ताकत
सपा और बसपा के पास अपने-अपने बेस वोट के साथ ही हमेशा मुस्लिम वोट को लेकर होड़ रही है। माना जाता है कि मुस्लिम वोट उसी तरफ जाता है, जो भाजपा से मुकाबले में मजबूत नजर आए। शून्य से दस सीट पर पहुंची बसपा ने तो संदेश दे दिया कि उसका दलित वोट बैंक अब भी उसी के पास है लेकिन, गढ़ मानी जाने वाली सीटों पर हार ने सपा की कमजोरी का इशारा कर दिया है। सपा संरक्षक मुलायम सिंह ने लंबे संघर्ष से जिस 19 फीसद मुस्लिम वोट को सपा से जोड़ा था, अब उसके भी छिटक जाने का संकट मंडरा रहा है।
अखिलेश का एक और इम्तिहान
छह माह पुराने गठबंधन को बसपा प्रमुख मायावती ने न सिर्फ तोड़ दिया, बल्कि सपा के बेस वोटबैंक यादवों को कोसकर अखिलेश के लिए नए इम्तिहान की परिस्थिति ला दी है। मायावती के तंज से यादवों में नाराजगी है।
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