Maharashtra: 20 साल बाद फिर भाजपा को सत्ता से दूर किया 50-50 फार्मूले ने
Maharashtra BJP. महाराष्ट्र में भाजपा व शिवसेना के हाथ से उस समय सत्ता फिसली तो अगले 15 साल तक इन्हें महाराष्ट्र में सत्ता से दूर ही रहना पड़ा।
मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। महाराष्ट्र की राजनीति में 20 साल बाद एक बार फिर इतिहास खुद को दोहराता दिखाई दिया, जब 50-50 फार्मूले के चक्कर में एक बार फिर सत्ता भाजपा के हाथ से फिसल गई। 1999 में यह कहानी तब सामने आई थी, जब भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री पर अड़कर हाथ आई सत्ता गंवा बैठे थे।
1995 में शिवसेना-भाजपा गठबंधन पहली बार सत्ता में आया था, जिसमें शिवसेना 169 सीटें लड़कर 73 सीटें जीती थी, और भाजपा 116 सीटें लड़कर 65 सीटें। चूंकि दोनों दलों के बीच ज्यादा सीटें पाने वाले दल के मुख्यमंत्री बनने का फार्मूला तय था, इसलिए शिवसेना के मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने थे और भाजपा के गोपीनाथ मुंडे उपमुख्यमंत्री। लेकिन पांच साल साथ में सरकार चलाकर गोपीनाथ मुंडे को अहसास हो गया कि कम सीटों पर लड़कर भाजपा कभी अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकेगी, इसलिए 1999 के चुनाव में उन्होंने पहले बराबरी की सीटों पर लड़ने का दबाव बनाया। लेकिन यह फार्मूला बदलवाने में वह सफल न हो सके।
शिवसेना फिर भाजपा से करीब 53 सीटें ज्यादा ही लड़ी। शिवसेना को 69 सीटें जीती और भाजपा को 56 सीटें। दोनों दलों को मिलाकर 125 सीटें हो रही थीं। निर्दलीय विधायकों की संख्या 30 थी। चुनाव शिवसेना के मुख्यमंत्री नारायण राणे के नेतृत्व में हुए थे। राणे इनमें से सरकार बनाने लायक विधायकों को अपने साथ जोड़कर सरकार बनाने को तैयार बैठे थे। लेकिन गोपीनाथ मुंडे मुख्यमंत्री पद के ढाई-ढाई साल के बंटवारे पर अड़े हुए थे। जोकि शिवसेना उन्हें ठीक उसी तरह देने को तैयार नहीं थी, जैसे इस बार भाजपा ढाई-ढाई साल के फार्मूले पर राजी नहीं हुई।
दूसरी ओर, चंद माह पहले ही सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर शरद पवार कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन कर चुके थे। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) एक-दूसरे के विरुद्ध चुनाव लड़कर आए थे। इसके बावजूद कांग्रेस को 75 एवं राकांपा को 58 सीटें हासिल हुई थीं। दिल्ली में उपजी कड़वाहट के कारण महाराष्ट्र में भी उनका साथ आना आसान नहीं था। लेकिन शिवसेना-भाजपा के आपसी संघर्ष ने इन दोनों दलों के बीच संवाद कायम करने में बड़ी भूमिका अदा की। शरद पवार की परिपक्वता उस समय भी काम आई। चंद दिनों बाद ही गठबंधन के जिस फार्मूले पर 1995 में शिवसेना-भाजपा की सरकार बनी थी, उसी फार्मूले पर महाराष्ट्र में कांग्रेस-राकांपा की सरकार शपथ लेती दिखाई दी।
कांग्रेस के विलासराव देशमुख मुख्यमंत्री बने और राकांपा के छगन भुजबल उपमुख्यमंत्री। जबकि एक-दूसरे के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ने वाली भाजपा-शिवसेना 50-50 के झगड़े में हाथ आई सत्ता गंवा बैठे। दोनों के हाथ से उस समय सत्ता फिसली तो अगले 15 साल तक इन्हें महाराष्ट्र में सत्ता से दूर ही रहना पड़ा। इतिहास इस बार खुद को करीब-करीब वैसे ही दोहराता नजर आया। फर्क सिर्फ इतना रहा कि इस बार ढाई-ढाई साल के फार्मूले पर शिवसेना न सिर्फ अड़ी रही, बल्कि वह अपने गठबंधन के साथी भाजपा को छोड़ उन्हीं लोगों के साथ सरकार बनाने जा रही है, जिनके विरुद्ध वह अब तक लड़ती आई है।
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