वर्ष 2020 में फिर छा सकता है दुनिया में आर्थिक संकट, बढ़ सकती हैं ब्याज दरें!
मौजूदा वैश्विक आर्थिक हालात की मजबूती को देखते हुए यह आशंका कम है कि 2020 की भयावहता 2008 की तरह होगी। वर्ष 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी का एक दशक पूरा हो चुका है।
भुवन भास्कर। पूरी दुनिया को हिला देने वाले आर्थिक संकट के आगाज की घोषणा करने वाली एक घटना को 10 साल पूरे हो चुके हैं। वह घटना थी दुनिया की चौथी सबसे बड़ी वित्तीय संस्था लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने की। ऐसा नहीं था कि इसके दिवालिया होने भर से यह आर्थिक भूचाल आया था। दरअसल लीमैन के दिवालिया घोषित होने से पहले अमेरिकी सरकार ने कई दूसरे बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को करदाताओं के पैसे से उबारा था। आखिरकार जब 15 सितंबर 2008 को लीमैन ब्रदर्स दिवालिया घोषित हो गया, तब पूरी दुनिया में उस आर्थिक भूचाल की शुरुआत हुई, जिसे सब-प्राइम संकट का नाम दिया गया। दुनियाभर के शेयर बाजारों में अभूतपूर्व बिकवाली देखी गई और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआइ) के भरोसे टिके भारत जैसे देशों के शेयर बाजार सूचकांक अगले 3-4 महीनों तक हुई भीषण गिरावटों को बाद आधे के भी नीचे आ गए। पिछले 10 सालों में दुनिया बदल चुकी है। और जब लगने लगा कि 2008 की मुश्किलें केवल इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वालों के मतलब की चीज रह गई हैं, जेपी मॉर्गन ने एक भविष्यवाणी से सबको चौंका दिया है। संस्था के एनालिस्ट जॉयस चांग और जैन लोइस ने 10 सितंबर को जारी एक नोट में चेतावनी दी कि 2020 में दुनिया एक और आर्थिक संकट से रूबरू होने की तैयारी कर रही है।
क्या थी वजह
सवाल यह है कि जब सब कुछ सही चल रहा है, तो फिर ऐसा क्या हो गया जिससे महज दो सालों के बाद एक बार फिर 10 साल पुराने संकट की पुनरावृत्ति के खतरे जाहिर होने लगे। दरअसल 2008 का आर्थिक संकट सरकारी और निजी सेक्टर की मिलीभगत से खेले गए असीमित लालच के खेल का स्वाभाविक नतीजा था। इसकी शुरुआत 1998 में ग्लास-स्टीगल विधेयक से हुई, जिसके जरिये सामान्य बैंकों और निवेश बैंकों के बीच का अंतर खत्म कर दिया गया। इससे बैंकों के लिए आमलोगों की बचत के पैसे से भारी जोखिम वाले वित्तीय दाव लगाने का रास्ता साफ हो गया। फिर दो साल बाद साल 2000 में डॉट कॉम बुलबुला फूटा, जिसे संभालने के लिए अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों को घटाकर एक प्रतिशत पर कर दिया। ब्याज दर करेंसी की कीमत होती है।
दरें घटने का अर्थ
दरें घटना मतलब करेंसी का सस्ता होना और करेंसी का सस्ता होना मतलब उससे खरीदी जाने वाली वस्तुओं का महंगा होना। अमेरिकी फेड के इस एक कदम से तीन घटनाओं की शुरुआत हुई। पहली, डॉलर के प्रभुत्व वाली तमाम अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी जैसे- सोना, कच्चा तेल आदि महंगे होने शुरू हो गए। दूसरी, महज एक प्रतिशत ब्याज का फायदा उठाकर बड़े निवेशकों ने अरबों डॉलर कर्ज लिया और भारत व चीन जैसे विकासशील देशों के शेयर बाजारों में जमकर खरीदारी शुरू की। और तीसरी, अमेरिका के अंदर आम लोगों ने लोन बोनांजा का उत्सव मनाने के लिए धड़ाधड़ होम लोन पर घर खरीदने शुरू कर दिए। लेकिन जिन बैंकों ने एक रुपये सैकड़े पर कर्ज दिया था, वो भला ऐसी बहती गंगा में हाथ धोने से क्यों चूकते। उन्हें लगा कि एक रुपये ब्याज पर कर्ज देने से उन्हें खास आमदनी नहीं हो रही, तो उन्होंने कर्ज के बदले गिरवी रखे मकानों के कागजों का सौदा करना शुरू कर दिया।
नीतियों में फेरबदल
इस तरह 20 लाख का मकान बिना किसी वास्तविक सौदे के 40 से 50 लाख रुपये तक पहुंच गया। फिर बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने मॉर्टगेज बेस्ड सिक्योरिटीज लॉन्च करने शुरू किए यानी गिरवी रखे कई मकानों की वैल्यू को मिलाकर उन्हें कई छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ कर अलग-अलग प्रोडक्ट। ये ऐसे जटिल इंस्ट्रूमेंट थे, जिसके बारे में किसी को भी नहीं पता था कि वे किनके डेरिवेटिव हैं। अर्थात उनकी कीमत किन वास्तविक संपत्तियों की कीमत पर आधारित है। फिर भी वे एक हाथ से दूसरे हाथ और दूसरे से तीसरे हाथ गए और कीमतें बढ़ती गईं। सबसे कमाल की बात यह थी कि जिन अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की शाबासी पाने के लिए संप्रभु देशों की सरकारें भी अपनी नीतियों में फेरबदल करती रहती हैं, वैसी एजेंसियों जैसे- मूडीज, एसएंडपी और फिच ने इन गैर-भरोसेमंद सिक्योरिटीज को उच्चतम रेटिंग देकर इन्हें अमेरिकी फेडरल के बॉन्ड जितना सुरक्षित घोषित कर दिया।
डेरिवेटिव उत्पाद
वित्तीय बाजारों में सबसे ज्यादा खतरनाक माने जाने वाले डेरिवेटिव उत्पादों को तमाम रेगुलेटरी प्रावधानों से मुक्त कर दिया और 2004 में एसईसी (अमेरिका में सेबी की समरूप संस्था) ने बिग-5 यानी गोल्डमैन सैक्स, मॉर्गन स्टैनली, मेरिल लिंच, लीमैन ब्रदर्स और बीयर स्टर्न्स के लिए 1977 के नेट कैपिटलाइजेशन नियम को खत्म कर उन्हें असीमित कर्जखोरी की अनुमति दे दी। इससे पैदा हुई खतरनाक स्थिति को समझने के लिए एक उदाहरण काफी है कि जब एआइजी ने तीन लाख करोड़ डॉलर के डेरिवेटिव सौदे कर रखे थे, उस समय उसके पास भविष्य के दावों को निपटाने के लिए एक डॉलर भी नहीं था। मतलब एक भी सौदे में नुकसान की कोई गुंजाइश नहीं थी। सारांश यह कि गलत सरकारी नीतियों और वित्तीय संस्थाओं के असीम लालच ने 2008 आते-आते ताश का एक ऐसा महल तैयार कर दिया, जिसका ढहना तय था।
हिल गई पूरी दुनिया
लेकिन इस महल के ढहने से उठे गुबार ने पूरी दुनिया के अर्थ चक्र को हिला कर दिया। सब-प्राइम संकट के साथ जिस आर्थिक मंदी की शुरुआत हुई, उससे कंपनियों के शेयर धूल चाटने लगे, उनकी वैल्यूएशन चौथाई से लेकर दसवें हिस्से तक रह गई। बाजार में विश्वास का एक ऐसा संकट खड़ा हो गया कि मनी-फ्लो पूरी तरह रुक गया। कंपनियों को कर्ज मिलने बंद हो गए और निजी क्षेत्र ने निवेश योजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया। बड़े पैमाने पर कंपनियों ने कर्मचारियों की छंटनी की। उपभोक्ताओं के खर्च घटाने से उत्पादों की बिक्री घटी जिससे कंपनियों ने उत्पादन घटाना शुरू कर दिया। सरकारों को चाहिए था कि वे रोजगार पैदा करने और माल की खपत बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश करतीं। लेकिन इस तरीके से नतीजे आने में कुछ समय लगता। लिहाजा नीति निर्माताओं ने मर्ज को ठीक करने के लिए कड़वी दवा देने के बजाय दर्द का अहसास खत्म करने वाले स्टेरॉयड का इस्तेमाल शुरू कर दिया।
ब्याज दर बढ़ने की उम्मीद
एक अनुमान के मुताबिक 2020 तक ब्याज दरें बढ़कर 3.5 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। जाहिर है कि तब एफआइआइ अपना निवेश तेजी से विकासशील देशों से निकाल कर अमेरिका शिफ्ट करेंगे। ऐसे में शेयर बाजारों में आने वाले महीनों में भारी गिरावट दिख सकती है। इसके अलावा अमेरिका-चीन ट्रेड वार और यूरोप, मैक्सिको, कनाडा, ईरान आदि के साथ डोनाल्ड ट्रंप की भिड़ंत के नतीजे विश्व व्यापार में बड़ा गतिरोध खड़ा कर सकते हैं। जेपी मॉर्गन के अगली आर्थिक मंदी 2020 में आने के दावे में कितना सच है, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन इतना तय है कि 2008 के बाद की वैश्विक अर्थव्यवस्था जिस बुनियाद पर खड़ी है, उसमें एक बार फिर आर्थिक संकट आना तय है, चाहे उसमें समय दो साल का लगे या चार साल का। हालांकि विभिन्न संपत्तियों की श्रेणियों में 2008 के पहले के दौर की तुलना में हालात बहुत ठीक हैं। न ही सरकारें नियमन को ध्वस्त कर अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के लिए उल-जुलूल नीतिगत रियायतें दे रही हैं और न ही निजी क्षेत्र की मुनाफाखोरी किसी भी लिहाज से पराकाष्ठा पर दिख रही है। ऐसे में भले ही एक और आर्थिक संकट आसन्न और अवश्यंभावी हो, वह 2008 जितना भयावह नहीं होगा।
(लेखक एनसीडीईएक्स में असिस्टेंट वाइस प्रेसिडेंट हैं)
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