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आखिर एक साथ चुनाव कराने पर इतना हंगामा क्यों बरपा है भाई!

लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना देश हित में होगा, क्योंकि बार-बार होने वाले चुनावों के दौरान लगने वाली आचार संहिता की वजह से विकास के काम प्रभावित हो रहे हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 13 Jul 2018 11:39 AM (IST)Updated: Fri, 13 Jul 2018 11:39 AM (IST)
आखिर एक साथ चुनाव कराने पर इतना हंगामा क्यों बरपा है भाई!
आखिर एक साथ चुनाव कराने पर इतना हंगामा क्यों बरपा है भाई!

डॉ. शिव कुमार राय। क्या यह सच नहीं है कि देश में आए दिन किसी न किसी कोने में चुनावी जीत के लिए भाषणबाजी और चुनावी नारे सुनाई पड़ते हैं? और आए दिन होने वाले इन चुनावों की वजह से राज्य और केंद्र की पूरी प्रशासनिक मशीनरी इसके इंतजाम में ही जुटी रहती है। बार-बार होने वाले चुनावों के दौरान लगने वाली आचार संहिता की वजह से क्या विकास के काम प्रभावित नहीं होते हैं? देश भर में सुरक्षा बल अलग-अलग राज्यों में चुनाव के सुरक्षा बंदोबस्त में जुटे रहते हैं और तमाम सरकारी कर्मचारी अपना काम छोड़कर मतदान केंद्रों पर ड्यूटी देते नजर आते हैं।

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नीति आयोग के मुताबिक 2009 में चुनाव आयोग को लगभग 1110 करोड़ रुपये और 2014 के लोकसभा चुनाव में आयोग को लगभग 3870 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े। अगर इसके अलावा राजनीतिक दलों के खर्चो की बात की जाए तो 2014 के लोकसभा चुनाव में करीब 30 हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान था। कभी लोकसभा तो कभी किसी राज्य की विधानसभा या फिर स्थानीय निकाय के चुनावों की वजह से क्या धन और समय दोनों की बर्बादी नहीं होती? ऐसे एक नहीं कई सवाल हैं जो देश में आए दिन होने वाले चुनावों की सार्थकता पर सवाल खड़े करते हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर देश में राजनीतिक सुधार के लिए कोई बड़ा कदम उठाया जाए तो फिर विपक्षी दलों को इसमें राजनीतिक चाल क्यों नजर आती है?

जो विपक्षी दल इसे नरेंद्र मोदी की राजनीतिक चाल बता रहे हैं, उनके लिए यह जानना जरूरी है कि एक देश, एक चुनाव कोई नई बात नहीं है। 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे। दोबारा 1983 में चुनाव आयोग ने इसको लेकर चर्चा शुरू की थी। जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अगुआई में खुद विधि आयोग ने मई 1999 में अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया था। आयोग ने अपनी इस रिपोर्ट में साफ-साफ कहा कि हमें उस व्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने होंगे जहां लोकसभा के साथ ही विधानसभा के चुनाव भी एक साथ कराए जाएं।

फिलहाल मोदी सरकार के एक देश-एक चुनाव के सुझाव पर राजनीतिक दल एकमत नहीं हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने के लिए विधि आयोग ने मसौदा तैयार किया है। इस पर चर्चा के लिए आयोग ने पार्टियों की बैठक भी बुलाई थी। इसमें एनडीए के दो सहयोगी समेत पांच दलों ने प्रस्ताव का समर्थन किया तो नौ विरोध में खड़े हो गए। उन्होंने एक स्वर में इसे गैर-संवैधानिक करार दिया। इन दलों का कहना है कि यह संविधान के खिलाफ है और इसे क्षेत्रीय हितों के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि एक देश एक चुनाव के विचार को लागू करने के लिए कई राज्य सरकारों के कार्यकाल को घटाना या बढ़ाना होगा। चुनाव आयोग ईवीएम और वीवीपैट का इंतजाम कैसे करेगा?

विरोध के नाम पर विरोध की राजनीति भारत में नई नहीं है। देश में अगर कोई सरकार सकारात्मक बदलाव के लिए पहल करे और अगर यह कदम विरोधी या सहयोगी राजनीतिक दलों के मनमुताबिक नहीं हो तो कुछ लोग इसे लोकतंत्र पर हमला करार देंगे तो कुछ इसे राज्यों की स्वायत्तता और संघीय ढांचे के साथ खिलवाड़ बताकर उसका विरोध शुरू कर देंगे। कुछ क्षेत्रीय दलों की चिंता यह भी है कि एक साथ चुनाव होने में देश का मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर मतदान करेगा और इसका खामियाजा उन्हें उठाना होगा। विपक्षी दलों को आशंका है कि एक साथ चुनाव होने की दशा में उनकी एकजुटता भी खतरे में पड़ जाएगी और राज्यों में उनकी वापसी मुश्किल हो सकती है। नीति आयोग का कहना है कि साल 2024 से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना देश हित में होगा। इन चुनावों के साथ ही स्थानीय निकायों के चुनाव भी साथ कराने की बात हो रही है।

एक देश-एक चुनाव के मसले पर एक यूपी फॉमरूला भी सामने आया है, इसके तहत 2019 में लोकसभा चुनाव के साथ 20 राज्यों के विधानसभा चुनाव करवाने की बात कही गई है। इन बीस राज्यों में से 10 राज्यों का कार्यकाल तो 2019 में ही पूरा हो रहा है, लेकिन बाकी दस राज्यों के आगे के कार्यकाल को समय के पहले ही समाप्त करना होगा। संविधान संशोधन और आम सहमति के बिना यह प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकती। यह फॉमरूला उत्तर प्रदेश के मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने तैयार किया है। इस बात के भी कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर इन सिफारिशों को मान लिया जाए तो 2024 तक लोकसभा विधानसभा चुनाव एक साथ संभव है।

चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव के संवैधानिक और कानूनी दायरे को ध्यान में रखते हुए एक मसौदा तैयार किया है। आयोग ने इस मसौदे को सरकार के पास भेजने से पहले इस पर राजनीतिक दलों, संविधान विशेषज्ञों, नौकरशाहों, शिक्षाविदों और अन्य लोगों से सुझाव मांगे हैं। वैसे भी मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों को देखते हुए एक देश एक चुनाव कोई आसान प्रक्रिया नहीं है और इस दिशा में कोई भी कदम उठाने के लिए कई तरह के संवैधानिक बदलाव भी करने होंगे। यह भी तय करना होगा कि अगर किसी राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती है तो क्या केंद्र सरकार उस राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकेगी? और अगर बर्खास्त करती है तो फिर उस राज्य में चुनाव कब होंगे? और उस राज्य की विधानसभा का कार्यकाल क्या होगा?

अगर केंद्र में एक गठबंधन की सरकार बनती है और वह बहुमत खो देती है तो क्या केंद्र के साथ फिर सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने होंगे? ऐसे एक नहीं, कई सवाल हैं जिनका जवाब खोजे बिना एक देश एक चुनाव के विचार को अमलीजामा नहीं पहनाया जा सकता, लेकिन भारतीय राजनीति में किसी भी सकारात्मक पहल को राजनीतिक चाल बताकर खारिज नहीं किया जा सकता। आज जरूरत इस बात की है कि देश के सभी राजनीतिक दल इस मसले पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विचार करें।

 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 


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