84 के दंगे: जानिए, कांग्रेस ने सज्जन कुमार को क्यों नहीं दिखाया बाहर का रास्ता
सज्जन कुमार भले ही कानून की नजर में दोषी हों लेकिन उनका समुदाय उन्हें अब भी अपना नेता मानता है। यह रिश्ता कानून एवं संविधान के बंधनों से मुक्त होता है।
नई दिल्ली (जेएनएन)। दिल्ली में 1984 के सिख विरोधी दंगे में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को मरते दम तक कैद की सजा सुनाए जाने के बाद पीड़ितों को उम्मीद जगी कि पार्टी इस दोषी नेता को बाहर का रास्ता दिखा देगी, लेकिन सोमवार (17 दिसंबर) को फैसला सुनाए जाने के दिन राहुल गांधी तीन राज्यों में अपनी सरकारों के शपथ ग्रहण समारोह में इतना व्यस्त रहे कि उन्हें फुर्सत ही नहीं मिली। अगले दिन भी पार्टी ने सज्जन को कुमार को बाहर नहीं निकाला बल्कि इस दोषी नेता ने खुद की इस्तीफा दे दिया।
आखिर क्या वजह है कि राहुल गांधी देश में बंटवारे के बाद हुए सबसे बड़े कत्लेआम में सजा पाए एक नेता को पार्टी से निकालने का साहस क्यों नहीं कर पाए? क्या सज्जन कुमार ने अपनी मर्जी से इस्तीफा दिया या फिर यह फैसला उसने दबाव में लिया? क्या इस फैसले के पीछे कोई राजनीतिक लेन-देन या सौदेबाजी है?
ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब ढूंढना आसान नहीं है क्योंकि न तो राहुल गांधी और उनकी पार्टी और न ही सज्जन कुमार इस पर कभी मुंह खोलेंगे, लेकिन सियासत के गलियारों में यह चर्चा है कि तीन राज्यों में जीत से उत्साहित राहुल गांधी अब किसी को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते, इसलिए राजनीतिक शुचिता के बजाय व्यावहारिक राजनीति को तरजीह दे रहे हैं।
अगर राहुल ने सज्जन को पार्टी से बाहर निकाल दिया होता तो इससे देश की जनता खासकर सिखों में एक अच्छा संदेश जाता कि कांग्रेस अध्यक्ष व्यावहारिक राजनीति के बजाय सैद्धांतिक सियासत को ज्यादा तवज्जो देते हैं। अब आप कहेंगे कि एक सजायाफ्ता नेता आखिर देश की सबसे पुरानी पार्टी का आखिर क्या बिगाड़ सकता है?
दरअसल, इसी सवाल के जवाब में सज्जन कुमार को लेकर राहुल के कदम का राज छिपा हुआ है। कानून और लोगों की नजर में भले ही सज्जन कुमार दोषी हों लेकिन उसके अपने जाट समुदाय में तो उसका रसूख बरकरार है। ये रिश्ते कानून और संविधान की धाराओं और अनुच्छेदों से ज्यादा मजबूत होते हैं। अगर पार्टी से निकाला जाता तो बाहरी दिल्ली में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता था। आसपास की सीटों पर भी असर पड़ सकता था। सज्जन कुमार को कौन नहीं जानता है।
पिछली सदी के सातवें दशक से लेकर अब तक दिल्ली की राजनीति के अहम खिलाड़ी रहे इस नेता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यह राहुल और उनके सिपहसालार बखूबी जानते हैं। सज्जन कुमार को 2009 में पार्टी ने चुनावी राजनीति से अलग कर दिया लेकिन यह उसकी ताकत का ही नतीजा था कि 2013 में उसके बेटे को पार्टी को विधानसभा का टिकट देना पड़ा।
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