पांच विधानसभा चुनाव के बाद सामने आई बड़ी बात, अब अपराजेय नहीं रही भाजपा!
भाजपा के जो कद्दावर नेता टिकट नहीं मिलने की वजह से बागी बने, उन्हें मनाने के लिए कारगर प्रयास नहीं किए गए। इससे भाजपा को कम से कम एक दर्जन सीटों पर हार का सामना करना पड़ा है।
प्रमोद भार्गव। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अपराजेयता का तिलिस्म और कांग्रेस मुक्त भारत का भ्रम टूट गया है। विधानसभाओं के चुनाव परिणामों ने भाजपा का विजयरथ थामकर उसे दुविधा में डाल दिया, जबकि कांग्रेस नए उत्साह से भरकर 2019 के लोकसभा चुनाव में जुट जाने के लिए प्रोत्साहित होगी। इन चुनावों में जहां कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया है, वहीं राजस्थान में बहुमत लाने में सफल हुई है, किंतु रोचक नतीजे मध्य प्रदेश में देखने में आए हैं। यहां कांग्रेस स्पष्ट बहुमत से महज दो सीट पीछे रह गई। हालांकि सपा और बसपा ने समय रहते कांग्रेस को समर्थन कर उसकी सरकार बनाने की मुश्किलों को आसान कर दिया। साथ ही प्रदेश में निर्दलियों को भी साथ लेने में कांग्रेस को किसी तरह की मुश्किल नहीं आने वाली। कांग्रेस के चार बागी उसके समर्थन में आ खड़े हुए हैं।
चेहरों का रंग उड़ा
इस चुनाव परिणामों ने उन सब हुनरबंदों के चेहरों का रंग उड़ा दिया है जो चुनाव विश्लेषक, चुनावी सर्वेक्षणों के विशेषज्ञ और जमीनी पत्रकार होने का दंभ भरते थे। मध्य प्रदेश में ज्यादातर एक्जिट पोल कांग्रेस को 140 सीटें रहे थे, लेकिन उसे भाजपा से बड़े मुकाबले में बहुमत से दो सीटें कम मसलन 114 पर अटक जाना पड़ा। जबकि भाजपा 109 सीटों पर जीत के साथ विपक्ष की मजबूत भूमिका निभाएगी। एक्जिट पोल छत्तीसगढ़ में कांटे की टक्कर का अनुमान लगा रहे थे, किंतु वहां मुख्यमंत्री रमन सिंह सरकार को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। कांग्रेस की एकतरफा जीत बड़ी सफलता है। हिंदी पट्टी में छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो एंटी इनकम्बैंसी से ज्यादा नुकसान केंद्र सरकार की गलत नीतियों, अहंकार और बड़बोलेपन से हुआ है, जबकि कांग्रेस को किसान कर्जमाफी की घोषणा से जबरदस्त फायदा हुआ है।
टूट गया भ्रम
यह धारणा टूट रही है कि कांग्रेस में मोदी का मुकाबला करने का सामर्थ्य नहीं रहा। मध्य प्रदेश और राजस्थान में क्षेत्रीय क्षत्रपों की टकराहटों को साधने में कांग्रेस सफल रही है। दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश में कांग्रेस के धुर विरोधियों में समन्वय बिठाने और रूठों को मनाने में सफल हुए। राहुल गांधी ने बीते एक वर्ष के भीतर जिस तरह से स्वयं और पार्टी को किसान, दलित, आदिवासी और युवा हितैषी के रूप में स्थापित किया है, उससे मतदाता उनके प्रति आकर्षित हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि शिवराज के कार्यो के प्रति जनता में ज्यादा नाराजगी नहीं थी। परिणामों ने इसे सच भी साबित किया है। भाजपा को कांग्रेस से लगभग शून्य दशमलव एक प्रतिशत ज्यादा ही वोट मिले हैं। किंतु इतने बड़े प्रदेश की कमान संभालने की वजह से भाजपा के जो कद्दावर नेता टिकट नहीं मिलने की वजह से बागी बने, उन्हें मनाने के लिए कारगर प्रयास नहीं किए गए। इससे भाजपा को कम से कम एक दर्जन सीटों पर हार का सामना करना पड़ा है।
नुकसान की वजह
दूसरी तरफ जीएसटी, नोटबंदी और आरक्षण विधेयक को लेकर भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ। इसी की बुनियाद पर सवर्णो का आक्रोश सपाक्स पार्टी के रूप में बदल गया। उसने अपने प्रत्याशी खड़े कर भाजपा का माहौल बिगाड़ने का काम किया। जीएसटी पर अमल कुछ इस तरह से हुआ कि व्यापारी वर्ग को बेईमान घोषित करने की कोशिश की गई। जबकि जीएसटी को पारदर्शी बनाने और नौकरशाही से मुक्त रखने के कोई नीतिगत उपाय नहीं हुए। इसमें यदि तार्किक सुधार नहीं किए गए तो लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के नाम पर भी किसानों के साथ ईमानदारी नहीं बरती गई। इस चुनाव में गठबंधन का मिथक भी टूटा है।
तेलंगाना की स्थिति
तेलंगाना में कांग्रेस गठबंधन हर तरह से तेलंगाना राष्ट्र समिति से भारी दिख रहा था, लेकिन एकाएक हुआ गठबंधन अवसरवाद का परिणाम था, इसीलिए समझदार मतदाता ने उसे नकार दिया। नतीजतन टीआरएस की एक बार तेलंगाना में फिर वापसी हुई है। मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने समय से पहले चुनाव कराने का जो जोखिम उठाया, उसमें वह कामयाब रहे। कांग्रस ने टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू से गठबंधन किया था। पूर्वोत्तर में कांग्रेस का अंतिम किला मिजोरम पूरी तरह ध्वस्त हो गया। मिजोरम नेशनल फ्रंट ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लिया है। यह फ्रंट 10 साल बाद सत्ता में वापसी कर रहा है।
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