नेहरू-इंदिरा की भी आलोचना करने से नहीं डरे पत्रकारिता के भीष्म पितामह कुलदीप नैयर
कुलदीप नैयर उन लोगों और पत्रकारों में से एक थे जिन्होंने सरकार के सही फैसलों पर उनकी सराहना करने और गलत फैसलों पर उनकी आलोचना करने से कभी नहीं चूके।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। कुलदीप नैयर को सिर्फ पत्रकार कहना सही नहीं होगा। हालांकि उन्हें पत्रकारिता का भीष्म पितामह जरूर कहा जा सकता है। कुलदीप नैयर उन लोगों और पत्रकारों में से एक थे जिन्होंने सरकार के सही फैसलों पर उनकी सराहना करने और गलत फैसलों पर उनकी आलोचना करने से कभी नहीं चूके। उन्होंने भारतीय राजनीति को बेहद करीब से जाना भी और समझा भी। यही वजह है कि जब इंदिरा गांधी ने ऑपरेशन ब्लूस्टार के जरिये स्वर्ण मंदिर में मौजूद उग्रवादियों को बाहर खदेड़ने या मार गिराने का फैसला किया था तब उन्होंने इस फैसले को जल्दबाजी में लिया गया फैसला कहा। हाल ही में उनके प्रकाशित लेखों में इस बात की तस्दीक भी होती है। उनका कहना था कि इंदिरा गांधी को यह फैसला लेने में और विचार करना चाहिए था। उनकी निगाह में इस फैसले और बाद में सिखों की नाराजगी से बचा जा सकता था।
आलोचना करने से नहीं डरे
बहरहाल, कुलदीप नैयर की बात की जाए तो उन्होंने सिर्फ इंदिरा गांधी का ही नहीं बल्कि जवाहरलाल नेहरू फिर लाल बहादुर शास्त्री का दौर और उनकी राजनीति बेहद करीब से देखी थी। जहां तक पंडित नेहरू की बात है तो उनकी भी आलोचना करने से वह कभी पीछे नहीं रहे। अपनी एक किताब में उन्होंने नेहरु के बारे में लिखा था कि उन्होंने ऐसे समझौते किए थे जो उन्हें नहीं करने चाहिए थे। लेकिन फिर भी वे मेरे हीरो थे और मैं उनकी कमियों के लिए यह तर्क देता था कि देश को एक रखने के लिए उन्हें सभी तरह के हितों, प्रदेशों और धर्मों का ध्यान रखना पड़ता था।
जब शास्त्री के साथ ताशकंद में मौजूद थे नैयर
जिस वक्त ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री का निधन हुआ था उस वक्त खुद नैयर भी उसी होटल में मौजूद थे। उन्होंने शास्त्री के निधन पर काफी कुछ लिखा और कहा भी। प्रधानमंत्री के तौर पर शास्त्री का निधन उनके लिए काफी बड़ा झटका भी था। वह भी तब जब भारत ने पाकिस्तान के साथ ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। नैयर उस पल के गवाह थे।
बंटवारे का दर्द
जहां तक भारतीय राजनीति का सवाल है तो उन्होंने देश की आजादी का वह कठिन दौरन भी देखा जिसमें बंटवारे के नाम पर रातों-रात एक मुल्क को लकीर खींच कर दो मुल्कों में बांट दिया गया। पाकिस्तान के सियालकोट से रातों-रात उन्हें भी अपना घरबार छोड़कर भारत में शरणार्थी बनने के लिए मजबूर होना पड़ा था। करीब आठ वर्ष हुए जब उनकी एक आत्मकथा सामने आई थी। अंग्रेजी में प्रकाशित इस आत्मकथा का नाम उन्होंने बियोंड द लाइन्स रखा था। इसमें बंटवारे के वक्त के दर्द का अहसास साफतौर पर महसूस किया जा सकता है। इस आत्मकथा को लिखने में उन्हें दो दशक से ज्यादा का समय लगा था। बाद में इसका हिंदी अनुवाद किया गया और इसका नाम ‘एक जिन्दगी काफी नहीं’ रखा गया।
आपातकाल का समय
1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के समय का उन्होंने जबरदस्त तरीके से विरोध किया था। इसके चलते उन्हें जेल तक जाना पड़ा था। एक बार उन्होंने लिखा था कि इंदिरा गांधी इस्तीफा देना चाहती थीं, लेकिन उनके सलाहकारों ने इंदिरा को ऐसा न करने और देश में आपातकाल लगाने की सलाह दे डाली। इमरजेंसी की ही बात करें तो उस वक्त जय प्रकाश नारायण का शोर हर जगह सुनाई देता था। उनके बारे में एक बार कुलदीप नैयर ने कहा था कि जेपी न तो संसद में थे और न दिल्ली में रहते थे। फिर भी, वे जब भी कुछ कहते थे तो लोगों का ध्यान सहज ही उनकी तरफ खिंच जाता था। नैयर खुद भी जेपी के काफी कायल थे। वहीं उनकी कलम का लोहा हर कोई मानता था।
नैयर की कलम
उर्दू रिपोर्टर से अपनी शुरुआत करने वाले नैयर की कलम यूनीवार्ता की स्थापना से लेकर स्टैट्समैन, फिर इंडियन एक्सप्रेस में लगातार चलती रही। उनकी एक किताब ‘द जजमेंट’ और ‘बिटवीन द लाइंस’ काफी चर्चित किताबों में से एक रही है। इसके अलावा ‘डिस्टेण्ट नेवर: ए टेल ऑफ द सब कॉंटिनेंट, ‘इण्डिया आफ्टर नेहरू', ‘वाल एट वाघा, इण्डिया पाकिस्तान रिलेशनशिप', ‘इण्डिया हाउस', ‘स्कूप' भी काफी चर्चित रही है। सन् 1985 से उनके द्वारा लिखे गये सिंडिकेट कॉलम विश्व के अस्सी से ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।
विराट व्यक्तित्व
कुलदीप नैयर का व्यक्तित्व और प्रभाव दोनों ही विराट थे। यही वजह है कि बहूमुखी प्रतिभा के धनी नैयर को 1996 में संयुक्त राष्ट्र के लिए भारत के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य बनाया गया था। इससे पहले 1990 में उन्हें ग्रेट ब्रिटेन में उच्चायुक्त नियुक्त किया गया था, अगस्त 1997 में राज्यसभा में नामांकित किया गया था। वह डेक्कन हेराल्ड (बेंगलुरु), द डेली स्टार, द संडे गार्जियन, द न्यूज, द स्टेट्समैन, द एक्सप्रेस ट्रिब्यून पाकिस्तान, डॉन पाकिस्तान समेत करीब अस्सी से अधिक समाचार पत्रों के लिए 14 भाषाओं में कॉलम भी लिखते थे।
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