हमलावर होकर बोफोर्स के 'दाग' राफेल से धोएगी कांग्रेस, बनाई रणनीति
कांग्रेसी नेताओं के कहने भर से जनता राफेल सौदे में भ्रष्टाचार होने की बात सही मान लेगी क्योंकि मोदी सरकार ने यह छवि बनाई है कि वह भ्रष्टाचार को सहन करने के लिए तैयार नहीं है।
नई दिल्ली, जागरण स्पेशल। यह तय है कि कांग्रेस ने 2019 के चुनावों के लिए राफेल विमान सौदे के चुनावी हथियार बनाने का फैसला कर लिया है। कांग्रेस को यह लग रहा है कि राफेल सौदे से ही उसकी नैया पार लगेगी। इसके मद्देनजर देशभर के 100 शहरों में प्रेस कॉफ्रेंस करके राफेल विमान सौदे का मामला उठाया जाएगा। इसके लिए जयराम रेड्डी की अध्यक्षता में 6 सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया है। पार्टी ने मांग की है कि इस मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को गठन किया जाए। पार्टी को कहना है कि अगर उसकी मांगें नहीं मानी गई तो वह देश भर में एक माह तक विरोध प्रदर्शन करेगी।
2014 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस को भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण हारना पड़ा था और साठ साल तक देश पर राज करने वाली पार्टी महज 44 सीटों पर सिमट गई। ऐसे में कांग्रेस के लिए राफेल विमान सौदा बदले का चुनावी अस्त्र है। कांग्रेस राफेल सौदे को शायद इसलिए चुनावी मसला बना रही है क्योंकि वह जानती है कि बोफोर्स तोप सौदे में दलाली के मसले के साथ संप्रग शासन में घपले-घोटालों के मामलों ने उसे कैसे-कैसे दिन दिखाए? नि:संदेह उच्च स्तर का भ्रष्टाचार सदैव से लोगों का ध्यान आकर्षित करता रहा है लेकिन यह कहना कठिन है कि आम जनता राफेल सौदे में कथित गड़बड़ी के कांग्रेस के आरोप को भ्रष्टाचार के मसले के तौर पर देखेगी।
बोफार्स तोप सौदे में दलाली के मसले पर केंद्रीय मंत्री वीपी सिंह ने तत्कालीन राजीव गांधी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद उस मंत्रिमंडल में इस्तीफों की झड़ी लग गई थी। उसके बाद वीपी सिंह ने पूरे देश में घूम-घूम कर सौदे में दलाली का प्रचार किया। उसमें भाजपा से लेकर वामपंथी पार्टियों ने वीपी सिंह का साथ दिया। यही कारण कि प्रचंड बहुमत वाली राजीव गांधी सरकार को हार का सामना करना पड़ा और वह आधी सीटों पर सिमट कर रह गई। इस चुनाव में बोफोर्स भ्रष्टाचार का प्रतीक बना और उसका निशाना सीधे-सीधे गांधी परिवार बना। ठीक ऐसे ही कांग्रेस राफेल सौदे को लेकर बदले की राजनीति करना चाहती है। वह बताना चाहती है कि जैसे तुमने हमारे साथ किया, हम तुम्हारे साथ करेंगे। लेकिन राफेल विमान सौदे को लेकर राजनेताओं को छोड़कर इस मुद्दे को लेकर आम लोगों के बीच कोई चर्चा नहीं है। सभी कुछ बयानबाजी तक सिमटा हुआ था। यही कारण है कि कांग्रेस कुछ-कुछ शगूफे छोड़कर इस मुद्दे को हवा देना चाहती है।
राहुल गांधी राफेल सौदे पर लगातार मोदी सरकार पर निशाना साध रहे हैं। राहुल का कहना है कि मौजूदा सरकार राफेल विमानों के लिए यूपीए सरकार में तय कीमत से कहीं अधिक कीमत चुका रही है। उन्होंने कहा कि सरकार ने इस सौदे में बदलाव सिर्फ एक उद्योगपति को फायदा पहुंचाने के लिए किया है। उनका कहना है कि अगले चुनाव से पहले हम सिद्ध कर देंगे कि राफेल सौदे में घोटाला हुआ था।
मोदी सरकार भ्रष्टाचार को सहन करने को तैयार नहीं
इसमें संदेह है कि कांग्रेसी नेताओं के कहने भर से जनता राफेल सौदे में भ्रष्टाचार होने की बात सही मान लेगी क्योंकि मोदी सरकार ने यह छवि बनाई है कि वह भ्रष्टाचार को सहन करने के लिए तैयार नहीं है। यह एक तथ्य भी है कि सरकार के उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार का कोई मामला अब तक सामने नहीं आया है लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राफेल सौदे को लेकर पहले खुद रक्षा मंत्री ने यह कहा था कि वह सारी जानकारी सामने रखेंगी। बाद में उन्होंने कहा कि गोपनीयता संबंधी प्रावधान के चलते वह ऐसा नहीं कर सकतीं। अब जब कांग्रेस ने राफेल सौदे को तूल देने का इरादा स्पष्ट कर दिया है तो सरकार को ऐसा कुछ करना होगा जिससे वह इस मसले पर कुछ छिपाती हुई न दिखे।
सौदे को लेकर सरकार नहीं है रक्षात्मक
कांग्रेस किसी भी मसले को अपनी चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन दाल तब गलेगी जब सरकार उस मसले पर रक्षात्मक नजर आएगी या फिर विपक्ष की ओर से उठाए गए सवालों का जवाब देने से बचेगी। राफेल सौदे को लेकर सरकार यह दावा करती चली आ रही है कि इससे बेहतर सौदा और कोई नहीं हो सकता लेकिन वह गोपनीयता संबंधी प्रावधान का हवाला देकर सारी जानकारी सार्वजनिक करने को तैयार भी नहीं। उसकी मानें तो ऐसा करने से राफेल लड़ाकू विमान की विशेषताएं दुनिया को पता लग जाएंगी। इस तर्क का अपना महत्व है लेकिन देखना यह होगा कि आम जनता उससे सहमत होती है या नहीं?
अदालत में क्यों नहीं जा रही है कांग्रेस
बेहतर होगा कि वह ऐसे जतन करे जिससे कांग्रेस के आरोपों की हवा भी निकल जाए और राफेल सौदे की गोपनीयता भी न भंग हो। कांग्रेस के लिए भी यह जरूरी है कि वह राफेल सौदे में गड़बड़ी के अपने आरोपों के पक्ष में कुछ प्रमाण सामने रखे। वैसे यदि उसके पास अपनी बात साबित करने के पक्ष में कुछ सूचना-सामग्री है तो वह अदालत का रुख क्यों नहीं करती? अगर कांग्रेस राफेल सौदे को एक बड़ा मसला बनाने को लेकर वास्तव में गंभीर है तो फिर उसे यह भी पता होना चाहिए कि इस सौदे की समीक्षा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की ओर से की जा रही है। यदि कैग ने अपनी समीक्षा में इस सौदे को सही पाया तो कांग्रेस के चुनावी हथियार की हवा निकल सकती है।
आइये जानते हैं क्या है राफेल समझौता
वायु सेना को अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए कम से कम 42 लड़ाकू स्क्वाड्रंस की जरूरत थी, लेकिन उसकी वास्तविक क्षमता घटकर महज 34 स्क्वाड्रंस रह गई। इसलिए वायुसेना की मांग पर 126 लड़ाकू विमान खरीदने का सबसे पहले प्रस्ताव अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने रखा था, लेकिन इस प्रस्ताव को कांग्रेस सरकार ने आगे बढ़ाया। रक्षा खरीद परिषद, जिसके मुखिया तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटोनी थे ने 126 एयरक्रॉफ्ट खरीद को अगस्त 2007 में मंजूरी दी थी। यहां से ही बोली लगने की प्रक्रिया शुरू हुई। इसके बाद आखिरकार 126 विमानों की खरीद का आरएफपी जारी किया गया। राफेल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये 3 हजार 800 किलोमीटर तक उड़ान भर सकता है।
छह फाइटर विमानों में से चुना गया था राफेल
यह डील उस मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बेट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसे रक्षा मंत्रालय की ओर से इंडियन एयरफोर्स (आईएएफ) लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ्ट और सुखोई के बीच मौजूद अंतर को खत्म करने के इरादे से शुरू किया गया था। खबरों के अनुसार एमएमआरसीए की प्रतियोगिता में अमेरिका के बोइंग एफ/ए-18ई/एफ सुपर हॉरनेट, फ्रांस का डसॉल्ट राफेल, ब्रिटेन का यूरोफाइटर, अमेरिका का लॉकहीड मार्टिन एफ-16 फाल्कन, रूस का मिखोयान मिग-35 और स्वीडन के साब जैस 39 ग्रिपेन जैसे एयरक्राफ्ट शामिल थे। छह फाइटर जेट्स के बीच राफेल को इसलिए चुना गया क्योंकि राफेल की कीमत बाकी जेट्स की तुलना में कम थी। इसका रखरखाव भी सस्ता था।
कई सालों तक लटकी रही डील
वायुसेना ने कई विमानों के तकनीकी परीक्षण और मूल्यांकन किए और साल 2011 में यह घोषणा की कि राफेल और यूरोफाइटर टाइफून उसके मानदंड पर खरे उतरे हैं। साल 2012 में राफेल को एल-1 बिडर घोषित किया गया और इसके मैन्युफैक्चरर दसाल्ट एविएशन के साथ कॉन्ट्रैक्ट पर बातचीत शुरू हुई. लेकिन आरएफपी अनुपालन और लागत संबंधी कई मसलों की वजह से साल 2014 तक यह बातचीत अधूरी ही रही।
यूपीए सरकार में नहीं हो पाया समझौता
यूपीए सरकार के दौरान इस पर समझौता नहीं हो पाया क्योंकि खासकर टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के मामले में दोनों पक्षों में गतिरोध बन गया था। दसाल्ट एविएशन भारत में बनने वाले 108 विमानों की गुणवत्ता की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थी। दसाल्ट का कहना था कि भारत में विमानों के उत्पादन के लिए 3 करोड़ मानव घंटों की जरूरत होगी, लेकिन एचएएल ने इसके तीन गुना ज्यादा मानव घंटों की जरूरत बताई, जिसके कारण लागत कई गुना बढ़ जानी थी।
मोदी सरकार ने किया फ्रांस से समझौता
साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार बनी तो उसने इस दिशा में फिर से प्रयास शुरू किया। पीएम की फ्रांस यात्रा के दौरान साल 2015 में भारत और फ्रांस के बीच इस विमान की खरीद को लेकर समझौता किया। इस समझौते में भारत ने जल्द से जल्द 36 राफेल विमान फ्लाइ-अवे यानी उड़ान के लिए तैयार विमान हासिल करने की बात कही। समझौते के अनुसार दोनों देश विमानों की आपूर्ति की शर्तों के लिए एक अंतर-सरकारी समझौता करने को सहमत हुए।
समझौते के अनुसार विमानों की आपूर्ति वायु सेना की जरूरतों के मुताबिक उसके द्वारा तय समय सीमा के भीतर होनी थी और विमान के साथ जुड़े तमाम सिस्टम और हथियारों की आपूर्ति भी वायुसेना द्वारा तय मानकों के अनुरूप होनी है। इसमें कहा गया कि लंबे समय तक विमानों के रखरखाव की जिम्मेदारी फ्रांस की होगी। सुरक्षा मामलों की कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद दोनों देशों के बीच 2016 में आईजीए हुआ। समझौते पर दस्तखत होने के करीब 18 महीने के भीतर विमानों की आपूर्ति शुरू करने की बात है यानी 18 महीने के बाद भारत में फ्रांस की तरफ से पहला राफेल लड़ाकू विमान दिया जाएगा।
सरकार ने कहा, 12,600 करोड़ रुपये बचाए
एनडीए सरकार ने दावा किया कि यह सौदा उसने यूपीए से ज्यादा बेहतर कीमत में किया है और करीब 12,600 करोड़ रुपये बचाए हैं । सरकार का दावा है कि पहले भी टेक्नोलॉजी स्थानांतरण की कोई बात नहीं थी, सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी की लाइसेंस देने की बात थी लेकिन मौजूदा समझौते में 'मेक इन इंडिया' पहल किया गया है। फ्रांसीसी कंपनी भारत में मेक इन इंडिया को बढ़ावा देगी।
कांग्रेस ने उठाए सवाल
विपक्ष सवाल उठा रहा है कि अगर सरकार को आंकड़े सार्वजनिक करने में क्या दिक्कत है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि यूपीए 126 विमानों के लिए 54,000 करोड़ रुपये दे रही थी, जबकि मोदी सरकार सिर्फ 36 विमानों के लिए 58,000 करोड़ दे रही है। कांग्रेस का आरोप है कि एक प्लेन की कीमत 1555 करोड़ रुपये हैं, जबकि कांग्रेस 428 करोड़ में रुपये में खरीद रही थी।
एचएएल का मामला
सौदे के आलोचकों का कहना है कि यूपीए के सौदे में विमानों के भारत में एसेंबलिंग में सार्वजनिक कंपनी हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड को शामिल करने की बात थी। भारत में यही एक कंपनी है जो सैन्य विमान बनाती है. लेकिन एनडीए के सौदे में एचएएल को बाहर कर इस काम को एक निजी कंपनी को सौंपने की बात कही गई है। मोदी सरकार ने यह आरोप भी खारिज किया है कि एचएएल पर एक प्राइवेट कंपनी को तरजीह दी गई है। मोदी सरकार का कहना है कि दैसॉ एविएशन ने ऑफसेट या निर्यात से जुड़े अपने दायित्व पूरे करने के लिए रिलायंस डिफेंस को अपना पार्टनर चुना और इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं थी।