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कश्मीरी पंडितों का छलका दर्द, कहा- कश्मीरियत को मिटाने की साजिश तो 1990 में ही रची गई

कश्मीरी पंडितों की कॉलोनी में अजब का सन्नाटा है। यहां रह रहे परिवार 5 अगस्त को आतंकवाद और अलगाववाद पर हुई सर्जिकल स्ट्राइक की खुशी चाहकर भी नहीं मना सकते।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Sun, 18 Aug 2019 11:26 PM (IST)Updated: Mon, 19 Aug 2019 09:50 AM (IST)
कश्मीरी पंडितों का छलका दर्द, कहा- कश्मीरियत को मिटाने की साजिश तो 1990 में ही रची गई
कश्मीरी पंडितों का छलका दर्द, कहा- कश्मीरियत को मिटाने की साजिश तो 1990 में ही रची गई

बडगाम, नवीन नवाज। तंग गलियों के सन्नाटे से गुजरते हुए किसी को आभास नहीं होता कि यहां जिंदगी अब भी खौफ के साये में कैद है। 370 से आजादी का जश्न पूरे देश में मन रहा है लेकिन अपने घरों से उजड़कर इस कॉलोनी में कैद हुए कुछ कश्मीरी पंडित अब भी अनिश्चितता के दौर से गुजर रहे हैं। कॉलोनी के गेट पर लगा बैरियर और सादे कपड़ों में तैनात सुरक्षाबलों की मौजूदगी अहसास करा देती है कि इनके हालात बदलने के लिए अभी काफी कुछ करना होगा।

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कॉलोनी में अजब का सन्नाटा है। यहां रह रहे परिवार 5 अगस्त को आतंकवाद और अलगाववाद पर हुई सर्जिकल स्ट्राइक की खुशी चाहकर भी नहीं मना सकते। बडगाम के कई क्षेत्रों में रह रहे कई कश्मीरी पंडितों ने 1990 के दशक में भी घाटी से पलायन नहीं किया था, लेकिन बाद में हुए नरसंहार के बाद वह अपने घरों से उजड़ गए और पुनर्वास के नाम पर बनाई गई कॉलोनी में बसा दिया गया। उनके साथ कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए घोषित रोजगार पैकेज के तहत नौकरियां पाने वालों को भी आश्रय दिया गया। लेकिन एक पखवाड़े में यहां रहने वाले 294 परिवारों में से भी 243 जम्मू चले गए हैं। शेष परिवारों के अधिकांश सदस्य भी जम्मू, उधमपुर या दिल्ली में हैं।

कॉलोनी में नहीं दिखी चहल-पहल
पूरी कालोनी में कोई चहल-पहल नहीं हैं। सिर्फ चार रिटायर्ड बुजुर्ग ही अखरोट के पेड़ के नीचे ताश खेल रहे हैं। पहले हालात के बारे में बातचीत करने को कोई राजी नहीं हुआ। जोर देने पर एक ने कहा कि हमसे क्या पूछते हो, बाहर जाकर बात करो? तभी दो युवक पिंटू और उपेंद्र भी वहां पहुंच गए। पेशे से अध्यापक उपेंद्र ने कहा कि हमारी खुशी-गम के बारे में मत पूछो। हम तो पहले ही उजड़ चुके हैं।

राज्य की बेटियों को होगा फायदा
राजस्व विभाग में पटवारी के पद से रिटायर्ड भूषण कौल ने कहा कि हमने कभी कश्मीर नहीं छोड़ा। लेकिन हमारा बचा भी क्या है। खैर, राज्य की बेटियों के साथ जो यहां राजनीतिक, आíथक और सामाजिक भेदभाव सरकारी तौर पर होता था, अब वह खत्म हो जाएगा।

वह परेशान हैं जिनका सियासी वर्चस्व समाप्त हो रहा है
लेखक मनोहर लालगामी ने कहा कि पहचान का डर दिखाने वालों को बता दें कि हमारी पहचान और कश्मीरियत 1990 के दशक में मिटाने की साजिश रची गई थी। हमारा अब क्या छिनेगा। निश्चित तौर पर अब वह परेशान होंगे, जिनका सामाजिक और सियासी वर्चस्व समाप्त हो रहा है। आज जो पहचान खत्म होने की बात करते हैं वे किस पहचान की बात करते हैं, यह भी तो बताएं।

 

अब भी 3500 कश्मीरी पंडित हैं वादी में
आतंकियों की धमकियों के बावजूद करीब 3500 कश्मीरी पंडित आज तक वादी में डटे हैं। इन कश्मीरी पंडितों के एक संगठन कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिक्कू ने कहा कि हमारे लिए हालात ज्यादा अनुकूल नहीं हैं। इसे टीवी चैनलों द्वारा किसी की जीत घोषित करने से यहां तनाव बढ़ ही रहा है। इसलिए बरसों से रह रहे हमारे समुदाय के कई लोग अब अपने भविष्य और सुरक्षा को लेकर आशंकित हैं।

अनंतनाग से सात परिवारों का हुआ पलायन
संजय टिक्कू ने बताया कि अनंतनाग के सोमरन में कश्मीरी पंडितों के सात परिवार पलायन कर चुके हैं। इसके अलावा 5 अगस्त को गांदरबल में पुलिस ने लार, वुसन और मनिगाम से भी कश्मीरी पंडितों के पांच परिवारों को सुरक्षित जगह पर पहुंचाया है।


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