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Maharashtra Politics: ठाकरे परिवार ने कभी सोचा भी नहीं था कि उद्धव ठाकरे राजनीति में भी आएंगे

उद्धव को अहसास था कि भाजपा उसके बगैर सरकार नहीं बना सकती और कांग्रेस-राकांपा भाजपा के साथ जाएंगे नहीं। तभी ढाई-ढाई साल के सीएम पद की बात उछाली गई।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Wed, 27 Nov 2019 10:25 PM (IST)Updated: Thu, 28 Nov 2019 12:35 AM (IST)
Maharashtra Politics: ठाकरे परिवार ने कभी सोचा भी नहीं था कि उद्धव ठाकरे राजनीति में भी आएंगे
Maharashtra Politics: ठाकरे परिवार ने कभी सोचा भी नहीं था कि उद्धव ठाकरे राजनीति में भी आएंगे

ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। प्रखर विचारक एवं समाज सुधारक प्रबोधनकार ठाकरे (केशव सीताराम ठाकरे) के पौत्र और शिवसेना के संस्थापक बालासाहब ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे कभी राजनीति में भी आएंगे, इसकी कल्पना उन दिनों किसी ने नहीं की होगी, जब ठाकरे परिवार के कई और चेहरे राजनीति में चमकने की तैयारी कर रहे थे।

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राज ठाकरे को माना जाता था बालासाहब ठाकरे का राजनीतिक उत्तराधिकारी

1995 में जब पहली बार शिवसेना-भाजपा गठबंधन की सरकार बनी थी तब उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे को ही शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे का राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जाता था। वही हावभाव, वही वक्ता शैली और बिल्कुल वही तेवर। बालासाहब ठाकरे के छोटे भाई श्रीकांत ठाकरे के पुत्र राज ठाकरे में लोगों को बाल ठाकरे की ही छवि दिखाई देने लगी थी।

तेजतर्रार छवि के आगे उद्धव टिकते नहीं थे

सौम्य उद्धव उस तेजतर्रार छवि के आगे कहीं टिकते ही नहीं थे। वह तो अपने लंबे लेंस वाले कैमरे से पंढरपुर यात्रा की हवाई तस्वीरें खींचने के लिए जाने जाते थे, लेकिन शिवसेना-भाजपा सरकार के दौरान ही मुंबई में हुए रमेश किणी हत्याकांड में राज का नाम आना शिवसेना में उनके अवसान का कारण बन गया। लेकिन ठाकरे परिवार में उद्धव की राह में रोड़े और भी थे। उनके सगे बड़े भाई जयदेव ठाकरे की महत्वाकांक्षी पत्नी स्मिता ठाकरे भी राजनीति में भाग्य आजमाने को आतुर थीं। जयदेव की परित्यक्ता होने के कारण उनके साथ स्वयं बालासाहब ठाकरे की सहानुभूति भी थी, लेकिन यह सहानुभूति उद्धव और उनकी पत्नी रश्मि ठाकरे की आंखों में हमेशा खटकती रहती थी।

यूं तो पूरा ठाकरे परिवार कला की किसी न किसी विधा में पारंगत है, लेकिन सियासत भी इस परिवार की नस-नस में है। सियासत की यही पारिवारिक परंपरा 59 वर्षीय उद्धव ठाकरे को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाने जा रही है।

राज ठाकरे ने छोड़ी शिवसेना और जागी उद्धव की किस्मत

उद्धव की किस्मत देखिए कि 2005 आते-आते राज ठाकरे ने शिवसेना में अपनी उपेक्षा से तंग आकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन कर लिया और स्मिता ठाकरे भी राजनीतिक परिदृश्य से बाहर हो गईं। अब निरंतर वृद्ध और अशक्त होते जा रहे बालासाहब ठाकरे के साथ मंच पर सिर्फ और सिर्फ उद्धव ठाकरे नजर आने लगे। शिवसेना के लिए मुंबई महानगरपालिका (मनपा) की सत्ता का बड़ा महत्व रहा है।

उद्धव ठाकरे की पहली राजनीतिक परीक्षा मनपा चुनाव में हुई और वह पास हुए

2007 में उद्धव ठाकरे की पहली राजनीतिक परीक्षा मुंबई मनपा चुनाव में ही हुई। बालासाहब ठाकरे ने उन्हें इन चुनावों की जिम्मेदारी सौंपी और उद्धव ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई। सभी आशंकाओं को परे ढकेलते हुए उद्धव ठाकरे 2007 के मनपा चुनाव में 79 सीटें जितवाने में कामयाब हुए। इस परीक्षा में पास होने के बाद उद्धव पर शिवसैनिकों का भरोसा जमने लगा। अब वह 2008-09 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी सक्रिय हो चुके थे। भाजपा के साथ गठबंधन की बातचीत में वह बालासाहब के साथ बराबर के भागीदार होते थे। शिवसेना की सियासत में भी स्वभाव से सौम्य होना उनका गुण माना जाने लगा था।

राज ठाकरे का उग्र स्वभाव उनका अवगुण था

चचेरे भाई राज ठाकरे का उग्र स्वभाव उनका अवगुण। हालांकि 2008-09 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने काफी अच्छा प्रदर्शन कर शिवसेना को कई तगड़े झटके दिए। उस समय यह माना जाने लगा था कि राज ठाकरे महाराष्ट्र की सियासत में उद्धव को पछाड़ने जा रहे हैं। लेकिन 2013 आते-आते परिदृश्य फिर बदल गया।

उद्धव को अपनाने के लिए बालासाहब साहब ठाकरे ने की थी शिवसैनिकों से अपील

शिवाजी पार्क की एक दशहरा रैली में बालासाहब साहब ठाकरे अपनी अस्वस्थता के कारण स्वयं नहीं आ सके। वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये उन्होंने शिवसैनिकों के विशाल जनसमूह को संबोधित करते हुए अपने पुत्र उद्धव और पौत्र आदित्य को अपनाने की भावनात्मक अपील की। शिवसैनिकों ने इस अपील को सिरमाथे लिया और आज तक उद्धव का साथ देते आ रहे हैं। कभी मंच पर शर्मीले से दिखने वाले उद्धव अब शिवाजी पार्क की दशहरा रैली में पूरे आत्मविश्वास से भाषण देते नजर आते हैं, तो मीडिया के हर सवाल का जवाब भी उनके पास तैयार रहता है।

जब सीटों को लेकर शिवसेना का भाजपा से गठबंधन टूटा

2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा का साथ देने के बाद शिवसेना की भाजपा से इसलिए खटक गई क्योंकि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा अपनी बढ़ी हैसियत के अनुसार बराबर सीटों पर लड़ने का आग्रह कर रही थी। जबकि शिवसेना उसे गठबंधन के पुराने फॉर्मूले के अनुसार 117-118 सीटों से ज्यादा नहीं देना चाहती थी। आखिरकार गठबंधन टूटा और इसका नुकसान शिवसेना को ही उठाना पड़ा। वह पूरी 288 सीटों पर लड़कर भी 63 सीटों पर सिमट गई। जबकि भाजपा अपने छोटे सहयोगी दलों के साथ लड़कर 122 सीटें लाने में सफल रही।

शिवसेना फड़णवीस सरकार में शामिल तो हो गई, लेकिन खटास पूरे पांच साल रही

हालांकि 2014 में बनी देवेंद्र फड़णवीस सरकार में एक माह बाद शिवसेना शामिल तो हो गई, लेकिन चुनाव के दौरान पैदा हुई खटास पूरे पांच साल बरकरार रही। फड़नणवीस सरकार में उसे उपमुख्यमंत्री का पद भी नहीं दिया गया।

उसी खटास का बदला शिवसेना ने भाजपा से लिया

माना जा रहा है कि उसी खटास का बदला चुकाने के लिए शिवसेना इस बार गठबंधन होते समय तो शांत रही और भाजपा से कम सीटों पर लड़ने को भी तैयार हो गई, लेकिन चुनाव परिणाम आते ही उसने तेवर दिखाने शुरू कर दिए। उसे अहसास हो गया था कि भाजपा उसके बगैर सरकार नहीं बना सकती और कांग्रेस-राकांपा भाजपा के साथ जाएंगे नहीं। शायद इसीलिए उद्धव ने ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री पद की बात उछालनी शुरू की।

मातोश्री से बाहर निकलकर कांग्रेस-राकांपा से मिलकर बनाई सरकार

मौका आने पर स्वयं मातोश्री से बाहर निकलकर कांग्रेस-राकांपा नेताओं से संपर्क शुरू किया। किसी और शिवसेना नेता को आगे करने के बजाय स्वयं रणनीति का हिस्सा बने। जिसका परिणाम है कि आज उनके रूप में पांच दशक तक महाराष्ट्र की राजनीति का अहम हिस्सा रहे ठाकरे परिवार का कोई सदस्य मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहा है।


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