जानें आखिर सुप्रीम कोर्ट के किस फैसले से अटकी हैं कई सियासी पार्टियों की सांसें!
सुप्रीम कोर्ट के एक ताजा फैसले से कई राजनीतिक पार्टियों की नींद उड़ी हुई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें अब वो काम करना पड़ेगा जो अब तक उन्होंने सोचा तक नहीं था।
रमेश ठाकुर। अगर सख्ती से कार्रवाई की गई तो ‘चंदे के फंदे’ में समूचे सियासी दल फंस जाएंगे। यह सच है कि सियासी पार्टियों को धन के रूप में मिलने वाली बड़ी रकम कालेधन का हिस्सा होती है। चुनाव सुधार के क्षेत्र में सुप्रीम कोर्ट का सभी सियासी दलों से चुनाव खर्च का ब्यौरा मांगने वाले निर्णय ऐतिहासिक बताया जा रहा है। वर्ष 2017 के आम बजट में इस मसले पर चर्चा भी हुई थी, लेकिन तब वाम दलों ने अड़ंगा लगा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने सभी सियासी दलों से अपने चुनावी खर्च का पूर्ण ब्यौरा देने को कहा है। चुनावों के बीच सुप्रीम कोर्ट द्वारा लेखा-जोखा लेने के फरमान से समूचे राजनीतिक दल हलकान हैं। यह सच्चाई किसी से नहीं छिपी है कि आधुनिक युग में चुनाव सिर्फ दौलत की नींव पर टिके है।
चुनावों में प्रचार के रूप में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। देश के बड़े औद्योगिक घराने, कारोबारी, रसूखदार व आम आदमी चंदे के रूप में अपने पसंद की पार्टियों को चुनाव लड़ने के लिए पैसा देते हैं। यह पैसा चंदे के रूप में गुप्त दिया जाता है, जिनका कोई लेखा-जोखा नहीं होता है। देने वाला पैसा कहां से लाता है, उसका जरिया क्या होता है? कौन लोग धन मुहैया कराते हैं? कितना धन देता है और किस शर्त पर देता है आदि व्यावहारिक बातों को सार्वजनिक करने के लिए कोर्ट ने तारीख मुकर्रर की है। सियासत का परिदृश्य बदल चुका है। राजनीति का मकसद अब समाज सेवा नहीं रहा। चुनाव में ताल ठोकना सबके बूते की बात नहीं।
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चुनाव लड़ने की पहली शर्त होती है कि उम्मीदवार के पास असीमित धन हो। सब जानते हैं कि चुनावों में चंदे का पैसा ‘काला धन’ होता है। काले धन को सफेद में परिवर्तित करने के लिए चुनावी बांड का नाम दिया गया। चुनावी बांड के जरिये काले धन को सफेद करने से कारोबारी लाभ लेने के लिए कॉरपोरेट समूह, कर पनाहगाहों में रातों-रात कोई कंपनी बनाकर उसके जरिये चुनावी बांड खरीदकर उसे दान कर सकते हैं। व्यवस्था ज्यादा पुरानी नहीं है। चुनावों में राजनीतिक दलों के चंदा जुटाने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के उद्देश्य से चुनावी बांड की घोषणा की गई थी। करीब दो वर्ष पहले केंद्र सरकार ने अपने आम बजट में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को लेकर नियमों में बदलाव किया था, जिसके बाद राजनीतिक पार्टियों के बीच बहस छिड़ गई थी।
एक दूसरे पर अपने से ज्यादा चंदे मिलने का आरोप गढ़ने लगे थे। पूर्व नियमों के मुताबिक सियासी दलों को किसी भी व्यक्ति विशेष या कंपनी से प्राप्त हुए बीस हजार रुपये से कम का स्नोत बताने की आवश्यकता नहीं थी। पर 2017 के बजट में अरुण जेटली ने इसे घटाकर दो हजार कर दिया था और इसे राजनीतिक दलों के कामकाज में पारदर्शिता बढ़ाने वाला कदम बताया था। लेकिन उसी वक्त नेशनल इलेक्शन वॉच और एडीआर यानी एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट ने सभी के दावों की हवा निकाल दी।
एडीआर की रिपोर्ट पर गौर करें तो पिछले दस-बारह सालों में विभिन्न राजनीतिक दलों की करीब 70 फीसद आय अज्ञात स्नोतों से हुई। वर्ष 2004 से लेकर मार्च 2015 तक सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की कुल आय 11,367 करोड़ रुपये रही जिसमें से केवल 31 फीसद आय के ही स्नोत का पता चला। हालांकि कुछ क्षेत्रीय दलों ने चंदे से परहेज भी किया। खैर, अगर चंदे के धन में पारदर्शिता आती है तो चुनाव सुधार क्षेत्र में उठाया गया यह पहला कदम माना जाएगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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