'कांग्रेस ने एक परिवार के हित के लिए संवैधानिक संस्थाओं को बार-बार तोड़ा-मरोड़ा'
कांग्रेस पार्टी द्वारा तथाकथित संविधान बचाने की मुहिम न सिर्फ जनता को बहकाने का प्रयास है, बल्कि यह अपने आप में हास्यास्पद भी है
अमित शाह। कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर से देश में घृणा और विद्वेष की राजनीति शुरू की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के लिए राहुल गांधी जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं, वह न सिर्फ प्रधानमंत्री पद की गरिमा का अनादर है, बल्कि उनकी स्वयं की बौखलाहट का परिचायक भी है। राहुल गांधी द्वारा लगातार किया जा रहा मोदी विरोध आज देश विरोध का रूप ले रहा है।
कांग्रेस पार्टी द्वारा तथाकथित संविधान बचाने की मुहिम न सिर्फ जनता को बहकाने का प्रयास है, बल्कि हास्यास्पद भी है। स्वतंत्र भारत का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है जिनमें कांग्रेस पार्टी ने एक परिवार के हित के लिए भारत की संवैधानिक संस्थाओं को बार-बार तोड़ा-मरोड़ा है।
आज कांग्रेस पार्टी और उनका समर्थन करने वाली तथाकथित बौद्धिक लॉबी के बीच में भारत के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाना अत्यधिक चर्चा का विषय है। कांग्रेस पार्टी का यह गैरजिम्मेदाराना रवैया मुझे 1973 की याद दिलाता है जब जस्टिस जेएम शेलाट, जस्टिस केएस हेगड़े और जस्टिस एएन ग्रोवर को नजरअंदाज करके वरिष्ठता में चौथे नंबर के अपने प्रिय जस्टिस एएन राय को इंदिरा गांधी ने देश का प्रधान न्यायाधीश बना दिया था। अपने इस असंवैधानिक निर्णय को सही साबित करने के लिए इंदिरा गांधी के एक मंत्री ने कहा था कि सरकार को प्रधान न्यायाधीश बनाने से पहले व्यक्ति की फिलॉसफी और आउटलुक को ध्यान में रखना पड़ता है। यहां पर इन मंत्री महोदय का फिलॉसफी और आउटलुक का मतलब निश्चित रूप से गांधी परिवार के प्रति निष्ठा से था।
यही कहानी 1975 में दोहराई गई जब इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को इलाहबाद हाई कोर्ट द्वारा निरस्त करने के बाद जस्टिस एचआर खन्ना को दरकिनार कर गांधी परिवार के प्रति निष्ठा रखने वाले जस्टिस बेग को भारत का प्रधान न्यायाधीश बनाया गया था। अत: इतिहास गवाह है कि कांग्रेस पार्टी ने अनेकों बार न्यायपालिका को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़ा-मरोड़ा है और वर्तमान में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध लाया गया महाभियोग प्रस्ताव निश्चित रूप से कांग्रेस पार्टी द्वारा देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने का एक और घिनौना प्रयास है।
न्यायपालिका के बाद देश की दूसरी सबसे पवित्र संस्था सेना के राजनीतिकरण से भी कांग्रेस पार्टी को गुरेज नहीं रहा। संप्रग सरकार के समय चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को किस तरह से आड़े हाथों लेकर सेना को राजनीति में घसीटा गया, वह सभी को पता है। यहां तक कि जब हमारे वीर जवानों ने पकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक करके हमारे निहत्थे जवानों की हत्या का बदला लेने का साहसी काम किया था तो कांग्रेस पार्टी ने स्ट्राइक का प्रमाण मांगकर हमारे जवानों की वीरता पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया। संप्रग कार्यकाल में जब एक के बाद एक लाखों करोड़ रुपये के भ्रष्टाचार के मामले जनता के सामने आ रहे थे तो कांग्रेस ने सीएजी जैसी तटस्थ संस्था और उसके मुखिया की ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगाए।
कांग्रेस के मंत्रियों ने जीरो लॉस का सिद्धांत लाकर देश को बरगलाने का प्रयास किया, परंतु जब मोदी सरकार नीलामी प्रक्रिया में सुधार करके देश के खजाने में लाखों रुपये लाई तो कांग्रेस की कलई खुल गई। यह भी सिद्ध हो गया कि सीएजी पर कांग्रेस का प्रहार संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने के उनके इतिहास का एक और प्रमाण था।
पिछले चार वर्षों में कांग्रेस पार्टी को लगातार प्रादेशिक चुनावों में एक के बाद एक हार मिली है जिससे 2014 में 12 राज्यों में शासन करने वाली कांग्रेस सिर्फ चार राज्यों में सिमट गई। राहुल गांधी को देश की जनता द्वारा पूरी तरह से नकारे जाने के बाद कांग्रेस पार्टी ने अपने आका की साख बचाने के लिए ईवीएम की तटस्थता पर प्रश्नचिह्न लगाकर चुनाव आयोग जैसी संस्था को ही शक के घेरे में लाने की नाकाम कोशिश की। मजे की बात यह है कि जब भाजपा और राजग को कुछ राज्यों में पराजय मिली तो ईवीएम पर कोई सवाल नहीं उठा। अत: ईवीएम पर चयनात्मक प्रश्न उठाना सिर्फ चुनाव आयोग को व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कमजोर करना ही था।
समय और प्रसंग बदलता है, परंतु जनतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर कर गांधी परिवार के स्वार्थ को बचाने का कांग्रेस पार्टी का प्रयास जारी रहता है। भारतीय प्रजातंत्र के इतिहास का काला दिन 25 जून, 1975 किसे याद नहीं होगा जब देश की सभी संस्थाओं को बंधक बनाकर देश में आपातकाल लागू किया गया था। आपातकाल का एकमात्र उद्देश्य इंदिरा गांधी के पैरों से खिसकती राजनीतिक जमीन को बचाने का प्रयास था जिसे कांग्रेस पार्टी ने देश हित का नाम दे दिया। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी ने किस तरह अपने राजनीतिक विरोधियों के साथ- साथ प्रेस और दूसरी संस्थाओं का दमन किया, वह इतिहास के पन्नों में कैद है।
कांग्रेस पार्टी द्वारा असंवैधानिक तरीके से विरोधी दलों की प्रादेशिक सरकारों को संविधान के अनुच्छेद 356 के द्वारा अस्थिर करना आम बात रही है। प्रधानमंत्री नेहरू और कांग्रेस अध्यक्षा इंदिरा गांधी के काल में 1957 में असंवैधानिक तरीके से केरल में कम्युनिस्टों की वैध सरकार को बर्खास्त किया गया। इसी तर्ज पर समय-समय पर तेलुगु देसम, सोशलिस्ट और अकाली सरकारों को कांग्रेस पार्टी द्वारा अनुच्छेद 356 की मार सहनी पड़ी। सरकारों की बर्खास्तगी और विपक्षी नेताओं का दमन बार-बार सिर्फ इसलिए किया गया क्योंकि इन पार्टियों और उनके नेताओं का कांग्रेस से राजनीतिक विरोध था।
संविधान ही नहीं, गांधी परिवार की दासता स्वीकार नहीं करने वाले संविधान निर्माताओं को भी कांग्रेस पार्टी ने नहीं बख्शा। सर्वविदित है कि पंडित नेहरू ने स्वयं एक नहीं, बल्कि दो चुनावों में बाबा साहब को हरवाने का काम किया। बाबा साहब के प्रति कांग्रेस का द्वेषपूर्ण रवैया इस बात से भी साबित होता है कि उसके राज में बाबा साहब को भारत रत्न का सम्मान नहीं मिल पाया। यहां पर इस बात का उल्लेख भी तर्कसंगत है कि जिस वर्ष 1997 में सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ली, उसी वर्ष कांग्रेस समर्थित तीसरे मोर्चे की सरकार ने दलितों और आदिवासियों को पदोन्नति में मिलने वाली प्राथमिकता को खत्म किया।
बाद में वाजपेयी सरकार ने अनुच्छेद 16 (4अ) में संशोधन करके दलितों और आदिवासियों को उनका अधिकार वापस दिया। यह हास्यास्पद है कि जिस पार्टी ने अनेकों बार न्यायपालिका, सेना, चुनाव आयोग, सीएजी, संसद जैसी संस्थाओं को कमजोर करने का प्रयास किया हो, वह आज प्रजातंत्र खतरे में है, की दुहाई दे रही है। बाबा साहब द्वारा दिया गया भारत का संविधान अत्यधिक मजबूत और परिपक्व है। जनता की अदालत में फेल होने के बाद कांग्रेस पार्टी द्वारा इसके खिलाफ किया जा रहा प्रचार सिर्फ एक परिवार की राजनीतिक साख को बचाने का एक झूठा प्रचार है।
[ लेखक भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं ]