परंपरा को नमन, लेकिन कांवड़ यात्रा के नाम पर फूहड़ता निंदनीय
अगले साल भी कांवड़ यात्रा होगी, तब भी कांवडि़यों के जत्थे निकलेंगे, परंतु वे अनुशासित रहें इसकी चिंता सरकारों को ही करनी होगी।
[ प्रशांत मिश्र ]: बंद हो कांवड़ यात्रा के नाम पर फूहड़ता। आज भी पूरी दिल्ली वह तस्वीर नहीं भूली है, जब कुछ कांवडि़ये गुंडे एक कार को बुरी तरह से तोड़ रहे थे और कानून के रक्षक पुलिस वाले उन्हें रोकने की विफल कोशिश कर रहे थे। करीब एक हफ्ते तक दिल्ली के सभी रास्ते, हरिद्वार-मेरठ-दिल्ली हरियाणा राजमार्ग ऐसे ही उत्पाती कांवडि़यों की गिरफ्त में रहा।
::: त्वरित टिप्पणी :::
गुरूवार को सुप्रीम कोर्ट को इन कांवडि़यों पर नाराज होना पड़ा, तो उसका कारण जायज था। ट्रकों में बैठकर शराब पीना, कानफोड़ू संगीत, डीजे, जगह-जगह अराजक व्यवहार, ट्रेफिक नियमों को धत्ता बताना, आम जनता में दहशत पैदा करना और उदंडता से यह यात्रा श्रद्धा व भक्ति के बजाय भय का प्रतीक अधिक बन चुकी है। हम यह नहीं कहते हैं कि कांवड़ यात्रा बुरी है। लेकिन कुछ अराजक तत्व इस पूरी आस्था को अपनी गिरफ्त में ले चुके हैं। शायद यही वजह है कि हर वर्ष सावन आते ही लोग अपना ट्रेफिक प्लान बदलने लगते हैं। जाम की आशंका से घर से घंटों पहले निकलने लगते हैं। स्कूल बंद हो जाते हैं और यहां तक कि लोग अपने प्रियजन की सकुशल वापसी की कामना करने लगते हैं।
यह वह कांवड़ यात्रा तो नहीं है, जिसे हम अपने बचपन से देखते और सुनते आए हैं। कांवडि़ये तब भी निकलते थे, बम-बम भोले के जयकारे के साथ मंदिर जाते और वहां जल चढ़ाकर घर चले जाते थे। तब कांवडि़ये कौतुहल और आस्था का प्रतीक हुआ करते थे। आज भी अधिसंख्य कांवडि़ये वहीं हैं, जो सदियों पुरानी स्वस्थ परंपरा का निर्वहन करते हैं। समस्या तो उनके कारण उठ खड़ी हुई है, जिनकी संख्या तो थोड़ी है, लेकिन जिनका उत्पात और उपद्रव मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ चुका है। इनके कारण भक्तिरस में पगी एक नितांत धार्मिक यात्रा बहुत बड़े समुदाय में जुगुप्सा और अरुचि का कारण बन चुकी है।
दोष सरकार का है। चूंकि सरकार चुप है तो पुलिस प्रशासन इसे संकेत मानकर चुप और निष्कि्रय हो जाता है। एक मोटरसाइकिल पर बिना हेलमेट चलने वाले तीन अराजक कांवडि़ये को रोकने की हिम्मत ये पुलिस कर ले, तो किस धर्म की आस्था को चोट पहुंचेगी? जिस दिल्ली में पीछे बैठने वाले के लिए भी हेलमेट पहनना जरूरी हो और जहां लालबत्ती लांघना अपराध हो, वहां कांवडि़ये पुलिस की आंख के सामने ही यातायात नियमों को ठेंगा दिखाते हों, तो अपराधी पुलिस है और यह साबित करता है कि उसका डंडा और कानून केवल आम शहरियों पर चल पाता है उपद्रवियों पर नहीं।
उत्तरप्रदेश की आर्थिक रीढ़ उसका पश्चिमी अंचल है। लेकिन वह पूरा क्षेत्र कांवड़ यात्रा के दौरान उत्पातियों का बंधक हो जाता है। व्यापारी घर बैठ जाते हैं, मजदूर फैक्ट्रियां पहुंच नहीं पाते और ट्रांसपोर्टर ट्रक को खड़ी कर देते या रास्ता बदल देते हैं। लिहाजा सबकुछ ठप्प। मानना यह चाहिए कि पश्चिम उत्तरप्रदेश को कांवडि़ये एक हफ्ते की जबरिया छुट्टी पर भेज देते हैं। यही हाल उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान के कुछ इलाके का भी हो जाता है। केवल कांवडि़ये ही नहीं, सालभर होने वाले धार्मिक आयोजनों में बजने वाला कानफोड़ू संगीत और डीजे भी समाज विरोधी घोषित होना चाहिए।
कांवड़ यात्रा के पीछे एक लंबी और उदात्त सोच है। लेकिन कुछ कांवडि़यों के हालिया उत्पात ने पूरा यात्रा को ही अपने आगोश में ले लिया है। जब व्यक्तिगत धार्मिक विश्वास कुरीति और उद्दंडता में बदल जाता है तो वह समाज विरोधी हो जाता है। शायद कुछ कथित लंपट कांवडि़ये भी वही कर रहे हैं। इस बार का कांवड़ यात्रा तो संपन्न हो गई। लेकिन पुलिस, संबंधित प्रशासन, संबंधित जिला प्रशासन, उससे पहले राज्य सरकारों को इसपर लगाम लगाने की इच्छाशक्ति दिखानी होगी। अगले साल भी कांवड़ यात्रा होगी, तब भी कांवडि़यों के जत्थे निकलेंगे, परंतु वे अनुशासित रहें इसकी चिंता सरकारों को ही करनी होगी। उन्हें यह समझना होगा कि कांवड़ यात्रा तो अच्छी है, पर उत्पाती कांवडि़ये नहीं।