जानिए विभिन्न दलों के नेताओं को अपने मंच पर बुलाने के पीछे क्या है आरएसएस की मंशा
जबरदस्त सांगठनिक विस्तार, समर्थकों और स्वयंसेवकों की बढ़ती संख्या के बावजूद RSS को लेकर नकारात्मक अवधारणा ज्यादा है। समानता, सादगी और राष्ट्रप्रेम का पाठ पढ़ाने वाले संघ के प्रति प्रचलित नैरेटिव कुछ ज्यादा ही नकारबोध भरा है।
उमेश चतुर्वेदी। जबरदस्त सांगठनिक विस्तार, समर्थकों और स्वयंसेवकों की बढ़ती संख्या के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर नकारात्मक अवधारणा ज्यादा है। समानता, सादगी और राष्ट्रप्रेम का पाठ पढ़ाने वाले संघ और उसके संगठनों के प्रति प्रचलित नैरेटिव कुछ ज्यादा ही नकारबोध भरा है। लगातार बढ़ती शाखाएं, नौजवानों में बढ़ता आकर्षण, बौद्धिक वर्ग में पहुंच के बावजूद संघ के प्रति नकारात्मक सोच हैरतअंगेज ही मानी जाएगी। तटस्थ प्रेक्षक इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक का बौद्धिकों से कम संवाद को बड़ी वजह मानते रहे हैं, लेकिन संघ इस सामाजिक सोच को तोड़ने की कोशिश में जुट गया है। अगले महीने बौद्धिकों और राजनीतिक दलों से संघ के प्रमुख मोहन राव भागवत के संवाद को इस दिशा में बड़ा कदम माना जा सकता है। यह संवाद दिल्ली के विज्ञान भवन में 17 से 19 सितंबर तक होगा।
किन नेताओं को बुलाया जाएगा
संघ ने आधिकारिक तौर पर अभी तक यह नहीं बताया है कि ‘भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ शीर्षक वाले उसके कार्यक्रम में किन-किन दलों और नेताओं को बुलाया जाएगा, लेकिन माना जा रहा है कि इस संवाद में शिरकत करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की घोर आलोचक देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी, संघ से छुआछूत की हद तक दूरी रखने वाली वामपंथी पार्टियों के साथ ही दूसरे दलों के नेताओं को भी बुलाया जाएगा। संघ को लेकर जैसी राजनीतिक रवायत रही है, इस संवाद को उसके विरोधियों द्वारा नाकाम करने और उसे अस्पृश्य बनाए जाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। जाहिर है कि इन कोशिशों में वे ही राजनीतिक दल और सामाजिक समूह शामिल हैं, जो अब तक संघ के कट्टर विरोधी रहे हैं।
कांग्रेस का मत
कांग्रेस की तरफ से यह कहना कि संघ के कार्यक्रम में राहुल गांधी तभी आएंगे, जब संघ अपने यहां शीर्ष पदों पर महिलाओं, दलितों को प्रतिनिधित्व देगा, इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। यह बात और है कि केंद्र सरकार के अविश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में चर्चा में राहुल गांधी कह चुके हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के मन में उन्हें लेकर चाहे जितनी भी नफरत हो, लेकिन वे उनसे नफरत नहीं करते। अब तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रमों में कांग्रेस या दूसरे दलों के जो भी नेता जाते रहे हैं, कांग्रेस और वामपंथी खेमे से उनकी लानत-मलामत की जाती रही है। इसी साल सात जून को जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर स्थित संघ मुख्यालय में जाकर संघ शिक्षा वर्ग में हिस्सा लिया तो उस पर कांग्रेस में ही बावेला मच गया था। दिल्ली महिला कांग्रेस की अध्यक्ष और प्रणब की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी तक ने उन पर सवाल उठाए थे।
संघ की मुस्लिम ब्रदरहुड से तुलना
वैसे अपनी हालिया जर्मनी यात्रा में राहुल गांधी ने संघ की मुस्लिम ब्रदरहुड से तुलना करके संघ के प्रति अपने पारंपरिक दृष्टिकोण को जाहिर कर चुके हैं, लेकिन कांग्रेस केंद्रित नैरेटिव के दौर में 20 जुलाई को लोकसभा में दिए राहुल के बयान के आलोक में उनसे सवाल नहीं पूछा गया। बहरहाल संघ और भारतीय जनता पार्टी के प्रति नफरत न रखने का एलान कर चुके अगर राहुल गांधी इस संवाद कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे तो उनकी ही छवि दांव पर होगी। संघ की अपनी सोच है कि अपने सिद्धांतों के मुताबिक निस्पृह भाव से काम करते रहना है। उसे प्रचार की जरूरत नहीं है, लेकिन आज के युगीन बोध में मार्केटिंग भी शामिल है, पर पारंपरिकता के वैचारिक सांस्कृतिक आधार पर टिकी संघ की विचारधारा में मार्केटिंग की कोई जगह ही नहीं है। ऐसा नहीं कि संघ संवाद नहीं करता।
संघ के प्रचारक
संघ के प्रचारक रहे लोगों के पास बैठिए तो वे बताते हैं कि जिला या क्षेत्रीय प्रचारक रहते वक्त उनका संबंध उस कांग्रेस के स्थानीय रसूखदार लोगों से भी रहा, जो राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर संघ का कड़ा विरोध करती है। चूंकि संघ के प्रशिक्षण में खुद को परदे के पीछे रखने, नींव की ईंट बनने का भाव इतना ज्यादा है कि उसका छोटे से छोटा प्रचारक तक अपना अनुभव, अपना प्रयास, अपनी कुरबानियां जाहिर करने से हिचकता रहता है। संघ सांस्कृतिक वैचारिक दर्शन में भले ही भरोसा करता हो, लेकिन उसने खुद को लेकर ‘नाचे गावे तोरै तान, ताकी दुनिया राखे मान’ की अवधारणा को कभी तवज्जो नहीं दी। हालांकि नेपथ्य में रहने, कंगूरे के बजाय नींव की ईंट बनने की उसकी सोच उसकी ताकत भी रही है। यही वजह है कि संघ की स्थापना के बाद से ही उसके प्रति नौजवानों की रूझान बढ़ती रही है।
जरूरी वक्त पर सामने आते संघ के कार्यकर्ता
देश में कहीं भी आपदा आए, रेल दुर्घटना हो, आग लगे, बाढ़ हो, संघ के स्वयंसेवक स्वत: स्फूर्त बिना किसी निर्देशन के खुद मैदान में अगर उतरते रहे हैं तो इसकी बड़ी वजह संघ का अपना दर्शन ही है। ऐसा नहीं कि शहरी समाज ने संघ कार्यकर्ताओं की इस निष्ठा को नहीं देखा है। पिछले साल दिल्ली के नजदीक गुरुग्राम में जब भारी बारिश से घंटों का जाम लग गया तो उसमें फंसे लोगों को चाय, पानी, बिस्किट देने वालों में संघ के कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या थी। ये कार्यकर्ता किसी के निर्देश के चलते वहां नहीं पहुंचे थे, बल्कि संघ से मिली सेवाभाव की शिक्षा ने उन्हें खुद इसके लिए प्रेरित किया था। संघ के प्रति युवाओं में बढ़ते आकर्षण ने पिछली सदी के तीस के दशक में कांग्रेस के अध्यक्ष बने सुभाष चंद्र बोस को भी परेशान कर दिया था।
एक पत्र का जवाब
30 अक्टूबर, 1938 को कांग्रेस के महाराष्ट्र प्रांत के तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष शंकरराव देव को लिखे पत्र में उन्होंने पूछा था कि आखिर क्या वजह है कि कांग्रेस की तुलना में छात्रों और नौजवानों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर आकर्षण बढ़ता जा रहा है। तब शंकरराव देव ने बोस को जो जवाबी पत्र भेजा था, उसमें उन्होंने कहा था कि संघ का अनुशासन, उसका गणवेश, और उसकी परेड समाज में व्याप्त असमानता के भाव को ढंक देते हैं। 6 नवंबर, 1938 को लिखे अपने पत्र में शंकरराव देव ने लिखा कि संघ की इतिहास दृष्टि और भारत की प्राचीन संस्कृति को सम्मान दिलाने एवं राष्ट्रीयता को भारतीय सभ्यता के संदर्भ में पारिभाषित करने का संघ का प्रयास युवाओं और छात्रों के आकर्षण की बड़ी वजह है, लेकिन संघ को लेकर शंकरराव देव जैसे लोगों की सोच को समझा नहीं गया।
संघ की बढ़ती ताकत
संघ की बढ़ती ताकत और उसके प्रति युवाओं के बढ़ते आकर्षण से घबराए संगठनों ने उसे हमेशा वर्ण व्यवस्था का पोषक, समाज और देश तोड़क के साथ ही मुस्लिम विरोधी के तौर पर प्रचारित किया है, लेकिन कुछ दस्तावेजों से गुजरते हुए जो हकीकत सामने आती है, वह अलग ही नजर आती है। वर्ण व्यवस्था पर संघ की क्या सोच रही है, इसे मराठी की मासिक पत्रिका किलरेस्कर के अगस्त 1973 के अंक को देखना चाहिए। जिसमें प्रकाशित अपने साक्षात्कार में बालासाहब देवरस ने कहा था, संघ को किसी भी रूप में चातुर्वण्ार्य व्यवस्था स्वीकार नहीं है। इस व्यवस्था ने सबसे बड़ी समस्या का निर्माण किया है। यह है अस्पृश्यता और सामाजिक विषमता। संघ के कार्यक्रमों में स्पृश्य और अस्पृश्य का भेद नहीं रहता, लेकिन यह ध्यान में रखिए, यह दो-चार हजार साल पुरानी समस्या है।
संघ के संवाद कार्यक्रम
संघ के संवाद कार्यक्रम के बहाने कांग्रेस ने एक बार फिर संघ में दलितों और अस्पृश्यों की भूमिका को लेकर सवाल उठाया है। इसका जवाब बालासाहब देवरस के ही एक भाषण में मिल सकता है। 1986 में राष्ट्रीय सेविका समिति के स्वर्ण जयंती समारोह में उन्होंने कहा था ‘चातुर्वण्ार्य व्यवस्था किसी भी रूप में स्वीकार नहीं है। जाति-व्यवस्था को समाप्त कर देना चाहिए। हिंदू समाज की जातिप्रथा समाप्त होने पर सारा संसार हिंदू समाज को वरण करेगा। इसके लिए भारतीय महिला समाज को पहल अपने हाथ में लेकर अपने घर से ही अंतरजातीय और अंतरप्रांतीय विवाह की शुरुआत करनी चाहिए।’
पांचजन्य से साक्षात्कार
पांचजन्य के 17 फरवरी, 2003 के अंक में दिए साक्षात्कार ऐसा नहीं कि सिर्फ बालासाहब देवरस की ही ऐसी धारणा रही। उनके बाद सरसंघचालक रहे रज्जू भैया ने भी पांचजन्य के 17 फरवरी, 2003 के अंक में दिए साक्षात्कार में कहा था कि छूआछूत, छोटे-बड़े की भावना पूरी तरह समाप्त होनी चाहिए। देश में सब धाराओं से मिलकर एक समरस जीवन पैदा हो यह हमारी आशा और अपेक्षा है। मुस्लिम विरोध के संदर्भ में भी संघ को लेकर खूब दुष्प्रचार हुआ है, लेकिन हकीकत यह है कि संघ के कई वरिष्ठ कार्यकर्ता अल्पसंख्यकों के मोर्चे पर भी बहुत रचनात्मक कार्य कर रहे हैं।
दो तरह के नैरेटिव
भारत में दो तरह के नैरेटिव हैं। लोक संस्कृति वाले देश में एक लोक नैरेटिव है, जो लिखित और नागर नैरेटिव से अलग है। लिखित और शहरी नैरेटिव में संघ देश का सबसे बड़ा खलनायक है, जिसकी पोल उसके प्रति बढ़ता आकर्षण खोलता है। और यह लोक नैरेटिव की वजह से हो रहा है, लेकिन मौजूदा दौर में छवियां चूंकि शहरी सोच ही गढ़ती है, उसका प्रतिकार भी संवाद के जरिये ही किया जा सकता है। संघ प्रमुख का भावी संवाद इसी की अगली कड़ी माना जा सकता है। हालांकि यह मान लेना कि एक ही संवाद में सब कुछ पटरी पर आ जाएगा, आसमानी सोच होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)