ममता के सामने दोहरी चुनौती, मदरसों में नियुक्ति का अधिकार तो मिला, लेकिन प्रबंधकों से है खतरा
सुप्रीम कोर्ट का मदरसा सेवा आयोग कानून पर दिए गए फैसले पर किसी भी राजनीतिक दल की ओर से खुल कर प्रतिक्रिया देने से परहेज किया जा रहा है।
जागरण संवाददाता, कोलकाता। सुप्रीम कोर्ट ने मदरसा सेवा आयोग कानून, 2008 को सही ठहराते हुए बंगाल सरकार के हक में फैसला दिया है। इस फैसले से राज्य के वित्तविहीन मान्यता प्राप्त मदरसों में राज्य सरकार को शिक्षकों, लाइब्रेरियन और चतुर्थ श्रेणी कर्मियों की नियुक्ति का अधिकार मिल गया है। इससे सरकार को नियुक्ति के जरिये अल्पसंख्यक वर्ग में पकड़ बनाने की सहूलियत मिली है, लेकिन दूसरी तरफ मदरसा संचालकों के विरोध का खतरा भी उत्पन्न हो गया है। इसके साइड इफेक्ट क्या होंगे यह तो वक्त बताएगा, लेकिन यह तय है कि इस जीत का श्रेय ममता सरकार खुलकर लेने से बच रही है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ममता को मुसलमानों के बीच पैठ बढ़ाने में मदद मिल सकती है
आसन्न निकाय चुनाव और 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए ममता सरकार मुस्लिम वोट बैंक को साधने में जुटी है। इस फैसले के जरिये ममता को पढ़े-लिखे मुसलमानों के बीच पैठ बढ़ाने में मदद मिल सकती है। हालांकि ऐसे मदरसों के रसूखदार प्रबंधकों और संचालकों के विरोध का भी खतरा उत्पन्न हो गया है। चूंकि गोलबंद होकर ये प्रबंधक सुप्रीम कोर्ट तक सरकार के खिलाफ पैरवी कर रहे थे तो अब आगे सियासी मोर्चे पर भी उनका विरोध जारी रहेगा।
खुलकर नहीं बोल रहे सियासी दल
हालांकि फैसले पर किसी भी राजनीतिक दल की ओर से खुल कर प्रतिक्रिया देने से परहेज किया जा रहा है। वाममोर्चा शासनकाल में ही यह आयोग गठित हुआ था, इसीलिए इसके समर्थन में माकपा नेता अब भी खड़े हैं। हालांकि, खुल कर कुछ भी कहने से बच रहे हैं। कांग्रेस नेता चुप हैं। तृणमूल की ओर से भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। भाजपा के राष्ट्रीय सचिव राहुल सिन्हा से जब फोन पर बात की गई तो उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला पढ़ने के बाद ही कुछ कहेंगे। वहीं सुप्रीम कोर्ट तक मामला ले जाने वाले संगठन बंगाल मदरसा एजुकेशन फोरम के अध्यक्ष जियाउल हक मंडल इसे राजनीति से इतर उन शिक्षकों की जीत मान रहे हैं, जिन्होंने निजी खर्च पर लंबी लड़ाई लड़ी और उन्हें जीत मिली।
वाममोर्चा ने किया था गठन
पश्चिम बंगाल मदरसा सेवा आयोग का गठन 2008 में तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने किया था। वाममोर्चा सरकार ने ही 2007 में राज्य के 618 मदरसों को अल्पसंख्यक शैक्षणिक शिक्षण संस्थान का सरकारी मान्यता दिया था। इसी दौरान आयोग की ओर से मदरसों में शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर बहस शुरू हुई।
हाई कोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा मामला
मामला पहले कलकत्ता हाई कोर्ट में पहुंचा जहां निरस्त होने के बाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। जियाउल हक मंडल ने कहा कि पश्चिम बंगाल मदरसा सेवा आयोग को लेकर पूर्ववर्ती वाममोर्चा सरकार की नीयत पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता, लेकिन सरकार की मंशा स्पष्ट नहीं थी और वह दोराहे पर थी। उन्होंने कहा कि जहां तक वर्तमान तृणमूल सरकार का सवाल है तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हमें नैतिक समर्थन तो दिया, लेकिन कमेटी मार्च 2016 में गठित की गई जबकि इससे संबंधित रिपोर्ट को सरकार ने 10 जनवरी 2017 को भेजा। यद्यपि हक ने इसे लेकर मुख्यमंत्री के प्रयासों की सराहना की।