आर्थिक आधार पर आरक्षण: कानून बनने के बाद कोर्ट के लिए इसे खारिज करना आसान नहीं होगा
कानूनविदों की मानें तो आर्थिक कमजोरी भी पिछड़ापन हो सकती है।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने आर्थिक रूप से पिछड़ों को दस फीसद आरक्षण देने को मंजूरी दी है। अब सरकार संविधान संशोधन के प्रस्ताव के साथ संसद में विधेयक लाएगी। जाति आधारित आरक्षण का विरोध करने वाले आर्थिक आधार पर आरक्षण की पैरवी करते रहे हैं, लेकिन आरक्षण के प्रावधानों को हमेशा कोर्ट में चुनौती दी जाती है और आजतक जितना भी आरक्षण लागू हुआ है वो कोर्ट की कसौटी पर कसा जा चुका है।
ऐसे में सवाल उठता है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देने वाला नया कानून कोर्ट की कसौटी पर कैसे खरा उतरेगा। पिछड़ेपन की आर्थिक व्याख्या कानून की परिभाषा में कैसे समायोजित होगी। कानूनविदों की मानें तो आर्थिक कमजोरी भी पिछड़ापन हो सकती है। सरकार को कानून बनाने का अधिकार है और संसद से कानून पारित हो गया तो कोर्ट के लिए उसे खारिज करना आसान नहीं होगा।
यह पहला मौका नहीं है कि जब आर्थिक आधार पर आरक्षण की घोषणा हुई हो। 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसद आरक्षण देते हुए आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए अलग से दस फीसद आरक्षण घोषित किया था। लेकिन 1992 में इंद्रा साहनी फैसले में सुप्रीमकोर्ट ने इसे अमान्य कर दिया था जिसके बाद सरकार ने गरीबों का आरक्षण वापस ले लिया था। ये दूसरा मौका है जबकि केन्द्र सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण देने की घोषणा की है।
आर्थिक कमजोरी भी पिछड़ापन
पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी कहते हैं कि कानूनन सरकार ऐसा प्रावधान कर सकती है इसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं है। आर्थिक कमजोरी भी एक तरह का पिछड़ापन हो सकती है। कोई भी ऊंची या पिछड़ी जाति का व्यक्ति आर्थिक रूप से कमजोर हो सकता है। यही अवधारणा तो क्रीमी लेयर का आधार है।
उदाहरण के लिए ब्राम्हण ऊंची जाति मानी जाती है, लेकिन उसमें भी एक पिछड़ा वर्ग हो सकता है जो कि आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण अपने बच्चे को शिक्षा न दिला पाया हो या जिसे नौकरी का मौका न मिला हो। रोहतगी कहते हैं कि आर्थिक पिछड़ापन, पिछड़ेपन की एक नई परिभाषा होगी ऐसे में आरक्षण पर अभी तक आए फैसले इसके आड़े नहीं आएंगे। रोहतगी तो यहां तक कहते हैं कि सरकार इसे आफिस आदेश के जरिए भी लागू कर सकती है।
कानून देगा मजबूती
आफिस आदेश से आर्थिक आरक्षण लागू करने के पहलू पर सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह कहते हैं कि 1992 में इन्द्रा साहनी फैसले मे सुप्रीम कोर्ट इसे खारिज कर चुका है। सरकार सही सोच रही है कि वह इसके लिए संविधान संशोधन का कानून लाएगी। संविधान मे कहीं भी आर्थिक आधार को पिछड़ापन मानने की स्पष्ट तौर पर मनाही नहीं है। आरक्षण का प्रावधान करने वाले अनुच्छेद 16(1) व 16(4) पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए वह कहते हैं कि कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 16(4) अनुच्छेद 16(1) का अपवाद नहीं है बल्कि एक पहलू है। ऐसे में अनुच्छेद 16(4) ओबीसी के अलावा अन्य वर्गो को नौकरी में बराबरी का मौका देने के अधिकार को नहीं छीनता। सिर्फ ओबीसी के लिए विराम लगाता है। सरकार पिछड़ेपन का नया आधार तय कर सकती है और नयी श्रेणी अनुच्छेद 16(1) का उल्लंघन नहीं बल्कि उसके समर्थन में होगी।
आरक्षण पा रही पचास फीसद से अलग श्रेणी
आरक्षण की तय पचास फीसद की सीमा पर ज्ञानंत कहते हैं कि यह एक बिंदु हो सकता है, लेकिन इसे बाकी आरक्षण के साथ मिला कर नहीं देखा जाएगा बल्कि कोर्ट को इसे परखते समय मेरिट बनाम कोटा के रूप में संतुलन कायम रखने की निगाह से देखना होगा। सरकार के लिए एक दलील होगी कि यह दस फीसद आर्थिक आरक्षण की नयी श्रेणी उस 50 फीसद का हिस्सा नहीं है बल्कि सामान्य वर्ग के मेरिट के लिए तय 50 फीसद का हिस्सा है। हालांकि पूर्व सालिसिटर जनरल और वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे 50 फीसद की कैप को थोड़ा मुश्किल मानते हैं। साल्वे का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों में कह चुका है कि 50 फीसद की सीमा पार होने में विशेषकारण और आधार होने चाहिए। इस मामले में अभी यह साफ नहीं है कि सरकार दस फीसद का आरक्षण नयी श्रेणी में देगी या फिर पहले से दिये जा रहे आरक्षण में ही एक आर्थिक आधार तय करेगी। इसका भविष्य इसी पर निर्भर करेगा।
कानून की न्यायिक समीक्षा का सीमित दायरा
सुप्रीम कोर्ट जब किसी कानून को परखता है तो उसका दायरा सीमित होता है। ज्ञानंत कहते हैं कि किसी कानून की संवैधानिकता पर विचार करते समय कोर्ट सिर्फ यह देखता है कि वह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ न हो। मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न करता हो और संसद को वह कानून बनाने का क्षेत्राधिकार है कि नहीं।