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गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन के मायने, संगठन के बाद बदला सरकार का चेहरा

सूत्रों का कहना है कि इस दौरान उन्होंने रूपाणी की कार्यशैली की पार्टी नेतृत्व से शिकायत की थी। पार्टी नेतृत्व लगातार स्थानीय स्तर से विजय रूपाणी को लेकर फीडबैक लेता रहा। इस बीच एक से तीन सितंबर तक गुजरात के केवडिया में हुई प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में पहुंचे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 14 Sep 2021 09:21 AM (IST)Updated: Tue, 14 Sep 2021 04:13 PM (IST)
गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन के मायने, संगठन के बाद बदला सरकार का चेहरा
उल्लेखनीय कार्यो के जरिये अपनी पहचान बनाने वाले जमीनी नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल। फाइल

नवनीत मिश्र। Gujarat CM Bhupendra Patel गुजरात में नए मुख्यमंत्री के तौर पर भूपेंद्र पटेल के चुने जाने को लेकर भले ही तमाम तरह की बातें कही जा रही हों, लेकिन समग्रता में देखने पर ऐसा लगता है कि भाजपा ने 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव और रघुबर दास प्रकरण से सबक लेते हुए समय रहते खतरे को भांपकर कठोर कदम उठाने की रणनीति अपनाई है। इसी कारण एक साल में चार राज्यों में पांच मुख्यमंत्री बदल दिए गए।

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दरअसल भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि घाव इससे पहले की नासूर बने, उसका समय रहते इलाज कर दिया जाए। वर्ष 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा के अंदरखाने से रघुबर दास को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग जोर पकड़ती रही। रघुबर दास के व्यवहार और कार्यशैली से आहत पार्टी के स्थानीय नेताओं ने शीर्ष नेतृत्व से शिकायतें की थीं। यहां तक कहा गया कि रघुबर के नेतृत्व में चुनाव में जाना खतरे से खाली नहीं होगा। हालांकि पार्टी नेतृत्व ने शिकायतों को नजरअंदाज करते हुए रघुबर दास के ही नेतृत्व में चुनाव में जाना पसंद किया। विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के चेहरे रहे रघुबर दास खुद पार्टी के बागी सरयू राय से तो हारे ही, भाजपा भी सत्ता गंवा बैठी। इस प्रकार पार्टी को स्थानीय नेताओं के सटीक फीडबैक को नजरअंदाज करना पड़ा भारी पड़ा था।

झारखंड की चूक के बाद दूसरे किसी राज्य में खतरे की घंटी बजते ही पार्टी एक्शन मोड में आ जाती है। असम में जब सर्बानंद सोनोवाल सफल होते नहीं दिखे तो पार्टी ने अपेक्षाकृत लोकप्रिय और हार्डलाइनर माने जाने वाले हिमंता बिस्व सरमा को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय किया। इसी तरह उत्तराखंड में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की लोकप्रियता में लगातार गिरावट आने की खबरें सामने आईं। स्थानीय नेताओं के फीडबैक के आधार पर भाजपा को यह भी भनक लग गई कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के चेहरे पर पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव में सफलता हासिल नहीं कर सकती तो पार्टी नेतृत्व ने बिना समय गंवाए उन्हें हटाने का निर्णय ले लिया। आखिरकार मार्च 2021 में त्रिवेंद्र सिंह रावत को इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत भी कुछ छाप नहीं छोड़ पाए और उन्हें भी पांच महीने से भी कम समय में हटना पड़ा। यह अलग बात है कि तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे के पीछे छह महीने में विधानसभा सदस्य न बन पाने से उत्पन्न संवैधानिक संकट का हवाला दिया गया था।

जुलाई में कर्नाटक में भी नेतृत्व परिवर्तन हुआ। हालांकि यहां लोकप्रियता या परफार्मेस को आधार बनाने की जगह उम्र के पैमाने पर 78 वर्षीय बीएस येदियुरप्पा की विदाई की पटकथा पार्टी ने लिखी। दरअसल पुराने सिपाही बीएस येदियुरप्पा की उम्र को देखते हुए पार्टी ने नए नेतृत्व को मौका देना जरूरी समझा। पार्टी ऐसा नेतृत्व राज्य में विकसित करना चाहती थी, जिसके नेतृत्व में 2023 का विधानसभा चुनाव लड़ा जा सके।

गुजरात को लेकर यह सवाल उठ रहा है कि अगर पाटीदार को ही मुख्यमंत्री बनाना था तो सबसे मजबूत चेहरे और उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल में आखिर कमी क्या थी? भूपेंद्र पटेल की तुलना में पाटीदारों के बीच नितिन पटेल कहीं ज्यादा असरदार माने जाते हैं। उम्र और राजनीतिक करियर दोनों पैमानों पर भूपेंद्र से कहीं बीस ठहरते हैं। कहां एक बार के विधायक भूपेंद्र पटेल और कहां छह बार के विधायक और कई बार मंत्री रहे नितिन पटेल। नितिन पटेल की जगह अपेक्षाकृत कम चíचत भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक साथ कई गोल किए हैं। भाजपा ने यह भी संदेश दे दिया कि उसके लिए परंपरागत पाटीदार मतदाता सवरेपरि हैं और यह भी संदेश कि पार्टी जातीय क्षत्रप विशेष के दबाव में भी नहीं आने वाली है। इस फैसले से एक तरफ पाटीदारों को साधने की कोशिश भी परवान चढ़ गई, दूसरे यह भी संदेश दे दिया गया कि पार्टी समुदाय के सबसे ताकतवर नेता के ही भरोसे नहीं बैठना चाहती, बल्कि राज्य में नए नेतृत्व को भी गढ़ना जरूरी है। पार्टी की राजनीति अब मुट्ठी भर चेहरों के इर्द-गिर्द सिमटकर नहीं रहने वाली। मुख्यमंत्री बनने की रेस से कोसों दूर सिर्फ एक बार के विधायक भूपेंद्र पटेल के मुख्यमंत्री बनने से उन जमीनी नेताओं में भी यह संदेश गया कि पार्टी के लिए समíपत भाव से कार्य करने पर वह भी एक दिन सीएम बन सकते हैं।

पालिटिक्स आफ परफार्मेस : गुजरात में हालिया नेतृत्व परिवर्तन के और भी कई बड़े मायने हैं। गृहमंत्री अमित शाह कई अवसरों पर कह चुके हैं कि जनता पालिटिक्स आफ परफार्मेस चाहती है। केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार आने के बाद इसका दौर शुरू हुआ है। ठीक इसी तर्ज पर चुनावी रैलियों के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘नामदार बनाम कामदार’ का नारा भी उछाल चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की इन बातों से साफ संकेत मिलते रहे हैं कि अब केवल नाम के सहारे लंबी राजनीति नहीं चलने वाली, बल्कि परफार्मर यानी कामदार बनना होगा। भूपेंद्र पटेल नामदार नहीं हैं, लेकिन उन्होंने कार्यो से अपनी पहचान जरूर बनाई है। अहमदाबाद शहरी विकास प्राधिकरण के मुखिया के तौर पर कुछ उल्लेखनीय कार्य किए हैं। नगर निकायों से उनका जुड़ाव रहा है। पटेल समाज की महत्वपूर्ण संस्थाओं सरदार धाम और विश्व उमिया फाउंडेशन में उनकी सक्रिय भूमिका रही है। भूपेंद्र लो-प्रोफाइल जरूर हैं, लेकिन जमीनी नेता हैं। वह 2017 के विधानसभा चुनाव में 1.17 लाख वोटों से जीतकर आए हैं।

मोदी-शाह की जोड़ी के पालिटिक्स आफ परफार्मेस के पैमाने पर विजय रूपाणी खरे नहीं उतर सके। गुजरात में कोरोना की दूसरी लहर को रूपाणी सरकार सही से हैंडल नहीं कर सकी। जनता में भारी नाराजगी रही। तैयारियों में चूक को लेकर सरकार को हाई कोर्ट से भी कई बार फटकार सुननी पड़ी, जिससे भाजपा नेतृत्व की चिंताएं बढ़ती गईं। गुजरात में नई नौकरियों के सृजन की दिशा में भी रूपाणी अपनी सरकार में कुछ खास नहीं कर सके। अगले वर्ष गुजरात में विधानसभा चुनाव होना है। राज्य में करीब 15 प्रतिशत पाटीदार मतदाता हैं। पाटीदार-पटेल मतदाता राज्य की 70 से 75 सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं। पाटीदार आंदोलन के बाद से भाजपा से इस वर्ग की नाराजगी बढ़ने लगी थी। आम आदमी पार्टी भी पाटीदारों के बीच बीच पैठ बनाने लगी थी। पाटीदार मतदाता लगातार भाजपा नेतृत्व से समुदाय से मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर रहे थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पाटीदार समुदाय से नाता रखने वाले मनसुख मंडाविया और पुरुषोत्तम रूपाला को अपनी सरकार में जगह दी। फिर भी पार्टी ने यह महसूस किया कि 2022 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए पाटीदारों का पूरा समर्थन जरूरी है। लिहाजा पार्टी ने पांच साल बाद फिर पाटीदार चेहरे को सीएम की कमान सौंपी।

देखा जाए तो पार्टी ने बहुत विचार-विमर्श कर यह फैसला किया है। माना जाता है कि वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में जहां 80 प्रतिशत पाटीदारों का वोट भाजपा को मिला था, वहीं उसकी तुलना में 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को पाटीदार समाज के 55 प्रतिशत वोट मिलने का ही अनुमान लगाया गया। विजय रूपाणी के नेतृत्व में 2017 का विधानसभा चुनाव जीतने में पार्टी को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। 182 सदस्यीय विधानसभा वाले राज्य में जहां भारतीय जनता पार्टी ने 150 का टारगेट सेट किया था, वहां पार्टी 99 के चक्कर में फसकर रह गई थी, जबकि कांग्रेस को अप्रत्याशित रूप से 77 सीटें मिली थीं। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के लिए वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश से कम महत्वपूर्ण गुजरात विधानसभा चुनाव नहीं है। चूंकि गृह राज्य में हार-जीत देश की राजनीति में एक परसेप्शन और नैरेटिव खड़ा करती है, लिहाजा भारतीय जनता पार्टी गुजरात में किसी भी प्रकार को जोखिम नहीं लेना चाहती है।

गुजरात में हुए नेतृत्व परिवर्तन को राज्य में किंगमेकर मानी जाने वाली एक जाति विशेष को साधने के लिहाज से ही नहीं देखा जाना चाहिए। गुजरात में मुख्यमंत्री पद से विजय रूपाणी की विदाई और भूपेंद्र पटेल की ताजपोशी को समग्रता में देखने की जरूरत है। देखा जाए तो भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाने के निर्णय से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा ने न केवल अपने चिरपरिचित अंदाज में फिर से सबको चौंकाया, बल्कि कई दूरगामी संदेश भी दिए हैं

विधानसभा चुनाव नजदीक आने पर पार्टी नेतृत्व ने पहले संगठन स्तर पर व्यापक बदलाव शुरू किया। जुलाई, 2020 में नवसारी से तीसरी बार सांसद बने और जनाधार वाले नेता सीआर पाटिल को प्रदेश अध्यक्ष की कमान दी गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबियों में गिने जाने वाले सीआर पाटिल ने वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में नवसारी लोकसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी को 6.89 लाख वोटों से हराया था। वह दो बार पांच लाख से अधिक मतों से चुनाव जीत चुके हैं।

गुजरात के राजनीतिक विश्लेषकों से बात करने पर पता चलता है कि प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद सीआर पाटिल ने संगठन और सरकार के बीच तालमेल पर जोर दिया। उन्होंने रूपाणी सरकार के मंत्रियों को प्रदेश कार्यालय पर जनसुनवाई के लिए बैठने का निर्देश दिया। लेकिन गिने-चुने मंत्रियों को छोड़कर अन्य ने प्रदेश कार्यालय में जनसुनवाई में रुचि नहीं दिखाई।

बताया जाता है कि मुख्यमंत्री रूपाणी के स्तर से मंत्रियों को सही से निर्देशित नहीं किया गया। इस बीच कुछ मुद्दों पर सीआर पाटिल और रूपाणी के बीच मतभेद बढ़ने की खबरें आईं, जिसे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने काफी गंभीरता से लिया। विजय रूपाणी के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से पहले भाजपा संगठन में एक अगस्त को एक बड़ा निर्णय हुआ। यह निर्णय था, गुजरात में डेढ़ दशक से संगठन महामंत्री रहे भीखू भाई दलसनिया को हटाकर बिहार भेजने का। भीखू भाई दलसानिया ने 2005 से जुलाई 2021 तक काम करने के दौरान गुजरात के तीन विधानसभा चुनाव और तीन लोकसभा चुनाव कराए। भीखू भाई की जगह पर पार्टी ने बिहार के सह-संगठन मंत्री और युवा चेहरे रत्नाकर को गुजरात में संगठन महामंत्री बनाकर भेजा। गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दो महीनों में गुजरात के करीब पांच दौरे किए। प्रदेश अध्यक्ष सीआर पाटिल मानसून सत्र के दौरान संसद भवन में देखे गए थे।

सूत्रों का कहना है कि इस दौरान उन्होंने रूपाणी की कार्यशैली की पार्टी नेतृत्व से शिकायत की थी। पार्टी नेतृत्व लगातार स्थानीय स्तर से विजय रूपाणी को लेकर फीडबैक लेता रहा। इस बीच एक से तीन सितंबर तक गुजरात के केवडिया में हुई प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में पहुंचे राज्य प्रभारी भूपेंद्र यादव और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी ‘वन टू वन’ नेताओं से बातकर अपनी रिपोर्ट तैयार कर शीर्ष नेतृत्व को अगवत कराया, जिसके बाद राज्य में नेतृत्व परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

[शोध अध्येता]


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