सदन के कामकाज में अवरोध डालना अब पड़ सकता है महंगा
संसद का उच्च सदन कही जाने वाली राज्यसभा की प्रतिष्ठा को लगातार गतिरोधों से बहुत आघात पहुंचा है। ऐसे में राज्यसभा के सभापति ने इसे सुधारने का बीड़ा उठाया है
[अरविंद कुमार सिंह]। राज्यसभा में सभापति के आसन के करीब आकर अवरोध पैदा कर कामकाज को प्रभावित करने वाले सांसदों का अब स्वत: निलंबन हो सकता है। विधेयकों के पारित होने की प्रक्रिया के दौरान वोटिंग में अवरोध डालने वाले सांसदों पर भी कड़े नियमों का शिकंजा कस सकता है और निलंबन अवधि में इन सांसदों को अपने भत्ताें से भी वंचित होना पड़ सकता है। उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने राज्य सभा के पूर्व महासचिव डॉ. वीके अग्निहोत्री की अध्यक्षता में सदन के नियम और प्रक्रिया की समीक्षा के लिए दो सदस्यीय समिति गठित की है। इसमें विधायी विशेषज्ञ एसआर धलेटा को भी शामिल किया गया है। अग्निहोत्री समिति सदन संचालन के मौजूदा नियमों और प्रक्रियाओं की समीक्षा करते हुए जरूरी संशोधन सुझाएगी।
कामकाज को अवरोध मुक्त बनाना
राज्यसभा के कामकाज को अवरोध मुक्त बनाने के इरादे से पहली बार ऐसा कदम उठाया जा रहा है। इस क्रम में समिति लोकसभा और दूसरे विधायी निकायों के साथ दुनिया की प्रमुख संसदों का भी अध्ययन करेगी। यह कदम अवरोधों के कारण उच्च सदन की प्रभावित होती साख से आहत होकर उठाया गया है। राज्यसभा के महासचिव देश दीपक वर्मा के मुताबिक समिति दलों से भी विचार विमर्श कर अपनी रिपोर्ट देगी। इसकी छानबीन राज्यसभा सचिवालय करेगा और फिर उसे नियम समिति के विचारार्थ रखा जाएगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 118 (1) के तहत संसद के दोनों सदनों की नियम और प्रक्रिया तय करने की शक्तियां दी गई हैं। राज्यसभा ने समितियां बनाकर और व्यापक विचार कर अपने प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियम बनाए। इन्हें 2 जून, 1964 को मंजूरी मिली और ये एक जुलाई, 1964 से प्रभावी हुए। काफी समय तक कामकाज ठीक चलता रहा, लेकिन बीते कुछ वर्षो में लगातार बढ़ रहे अवरोधों ने तस्वीर बदल दी है।
कई बदलाव किए
हालांकि नियम समिति इस मामले में अपना काम कर रही है और अब तक उसने 13 रिपोर्ट में कई बदलाव भी किए, लेकिन वे सीमित आधार के थे। व्यापक समीक्षा का कदम पहली बार उठाया गया है। राज्यसभा की नियम और प्रक्रिया में सभापति के आसन या वेल में आकर नारेबाजी कर कामकाज में बाधा डालने वाले सांसदों के स्वत: निलंबन का नियम नहीं है, जबकि लोक सभा में इस बाबत नियम है। इस नाते कई बार तो चार छह सांसद ही पूरे सत्र में कामकाज प्रभावित कर देते हैं। राज्यसभा में पीठासीन अधिकारी के पास ऐसी स्थिति में सदन की कार्यवाही को स्थगित करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रहता। इसी तरह प्वाइंट्स ऑफ ऑर्डर, जनहित के मामलों में चर्चा और विशेषाधिकार नोटिस जैसे तमाम मामलों में राज्यसभा की तुलना में लोकसभा के नियम कहीं अधिक मजबूत है। बहुत से नियम पुराने पड़ गए हैं जिनको बदलना वक्त का तकाजा है। 2018 में बजट सत्र के दूसरे चरण में राज्यसभा में मंत्रलयों के कामकाज से लेकर लोक महत्व के विषयों पर चर्चा नहीं हो पाई।
बजट सत्र में लोकसभा की उत्पादकता
बजट सत्र में लोकसभा की उत्पादकता 23 फीसदी और राज्यसभा की 28 फीसदी रही जबकि 2017 में इसी अवधि में लोकसभा की उत्पादकता 113 फीसदी और राज्यसभा की 92 फीसदी से अधिक रही थी और 18 विधेयक भी पारित हुए थे। राज्यसभा के 245वें सत्र के समापन के मौके पर सभापति एम. वेंकैया नायडू ने चिंता जताते हुए कहा था कि लोगों की वास्तविक अपेक्षाओं को पूरा करने में हमारा योगदान नगण्य रहा। बजट सत्र का दूसरा चरण आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने, कावेरी जल प्रबंधन बोर्ड गठित करने, पंजाब नेशनल बैंक में अनियमितताएं, कासगंज कांड, उत्तर प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ और दिल्ली में सीलिंग जैसे कई मसलों की भेंट चढ़ गया। उस दौरान कई वरिष्ठ सांसदों ने सभापति से मिलकर इसका रास्ता निकालने का अनुरोध किया था। 28 मार्च, 2018 को सांसदों की विदाई के मौके पर कुछ चर्चा हुई जिनमें रिटायर हो रहे के. रहमान खान जैसे वरिष्ठ सांसदों ने नियमों को बदलने का मसला उठाया था। तभी राज्यसभा के सभापति ने नियमों की समीक्षा का संकेत दिया था।
हाउस ऑफ कॉमंस और हाउस ऑफ लॉर्ड्स
सांसदों का कहना था कि हाउस ऑफ कॉमंस और हाउस ऑफ लॉर्ड्स में कोई अवरोध नहीं होता, लेकिन हमारे यहां अवरोध ही खबर बनती है। लिहाजा इसका इलाज निकाला जाना जाना चाहिए। तमाम नियम पुराने पड़ चुके हैं और उनके बदलने के साथ बार-बार के अवरोधों के पीछे के कारकों की पड़ताल जरूरी है। सदनों के संचालन के लिए नियम और प्रक्रियाएं बनी हुई है। समय के साथ उनका बदलना जरूरी है। दूसरी समस्या बैठकों की संख्या कम होने से भी जुड़ी है। इस नाते सदस्यों को कम मौका मिलता है। कई बार विपक्ष की आलोचनाओं से बचने के लिए सत्ता पक्ष जानबूझकर कम बैठकें बुलाता है। गांधीनगर में 2015 में हुए पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में इस बात पर मोटी सहमति बनी थी कि संसद 100 दिन से अधिक, बड़ी विधान सभाएं कम से कम 60 दिन और छोटी विधान सभाओं में 30 दिन की बैठकें सुनिश्चित करें जिससे सदस्यों को अपनी बात कहने का मौका मिले, लेकिन अभी तक यह विचार मूर्त रूप नहीं ले पाया है।
पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन
गुजरात में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में राज्यसभा के उप सभापति प्रो. पीजे कुरियन ने सुझाव दिया था कि संविधान संशोधन कर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि संसद की कम से कम 120 और विधानसभाओं की 60 बैठकें हों। सदन के कामकाज को बाधित करने वाले सदस्यों के वेतन और भत्ते में कटौती जैसे प्रावधान भी होने चाहिए। ऐसे व्यवधानों के कारण संसद अपने कर्तव्य का पालन करने में विफल हो रही है इस नाते ऐसा करना जरूरी हो गया है। इससे पहले स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के मौके पर 1 सितंबर, 1997 को सर्वसम्मति से सदनों के सुव्यवस्थित संचालन के बारे में संकल्प पारित हुआ था, लेकिन हकीकत यह है कि आज संसद और विधानमंडलों में काम से अधिक अवरोध सुर्खियां बनते हैं। इन घटनाओं की सोशल मीडिया पर भी चर्चा होती है और आम आदमी में यह छवि बनती है कि संसद और विधानसभाएं कुछ काम नहीं करती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में राज्यसभा के सभापति की पहल मायने रखती है।
[लेखक वरिष्ठ पत्रकार और संसदीय मामलों के जानकार हैं]