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पीएम मोदी के आगे कहीं नहीं ठहरते राहुल गांधी, आज भी महज एक जीत की दरकार

राहुल गांधी के लिए मुख्य चुनौती जनता को यह दिखाना है कि उनके पास उपनाम के अलावा भी बहुत कुछ है। भावनात्मक मुद्दों पर सिद्दरमैया की विधान सभा चुनाव लड़ने की पूरी तैयारी चरणबद्ध तरीके से हुई।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 11 May 2018 12:01 PM (IST)Updated: Fri, 11 May 2018 05:24 PM (IST)
पीएम मोदी के आगे कहीं नहीं ठहरते राहुल गांधी, आज भी महज एक जीत की दरकार
पीएम मोदी के आगे कहीं नहीं ठहरते राहुल गांधी, आज भी महज एक जीत की दरकार

[भवदीप कांग] कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक में अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार के दौरान एक सवाल के जवाब में खुद को वर्ष 2019 में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करते हुए यही दर्शाया कि उनकी राजनीतिक समझ-बूझ चाहे जैसी भी हो, लेकिन साहस की उनमें कोई कमी नहीं है। वैसे राहुल को मुख्यत: दो कारणों से खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करने से बचना चाहिए था। पहला कारण तो यह कि कांग्रेस की लगातार यही कोशिश रही है कि वर्ष 2019 के आम चुनाव को राष्ट्रपति शैली के चुनाव में तब्दील होने से रोका जाए। यदि मोदी बनाम राहुल की स्थिति बनती है तो कांग्रेस पार्टी का नुकसान तय है। राहुल गांधी अपने तकरीबन डेढ़ दशक के सियासी जीवन में न तो अब तक कोई चुनावी सफलता हासिल की है और ना ही किसी मंत्रालय का प्रभार संभाला है। दूसरी ओर नरेंद्र मोदी एक जमीन से जुड़े नेता हैं, जिनका पूरा जीवन राजनीति में गुजरा है। वे लगातार 4 बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और फिर वर्ष 2014 में अपनी पार्टी को पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में लेकर आए। जाहिर है मोदी के मुकाबले राहुल कहीं नहीं ठहरते।

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चुनाव-पूर्व गठबंधन

दूसरा कारण, गैरकांग्रेसी विपक्ष ने अब तक ऐसी कोई मंशा नहीं दर्शाई है कि वह राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर स्वीकार करने को तैयार है, बल्कि विपक्षी दलों की ओर से तो ऐसे भी कोई संकेत नहीं कि वे चुनाव-पूर्व गठबंधन में कांग्रेस को नेतृत्वकारी भूमिका देने के लिए भी तैयार हैं। कुछ समय पूर्व तृणमूल कांग्रेस ने संभावित विपक्षी गठबंधन के नेता के लिए जो मानदंड निर्धारित किए थे, राहुल उनमें से एक पर भी खरे नहीं उतरते। राहुल गांधी का कहना है कि यदि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती है तो वह प्रधानमंत्री बन सकते हैं। यह कहते वक्त शायद उन्होंने यही सोचा होगा कि क्षेत्रीय दल तो उनके साथ आ ही जाएंगे। लेकिन यह न भूलें कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में जूनियर साङोदार की भूमिका में होगी, जिनमें लोकसभा सीटों की बड़ी संख्या है। ऐसे में राहुल गांधी का यह नेतृत्व संबंधी सहज आकलन क्षेत्रीय ताकतों को खफा कर देगा, जबकि उन्हें इस वक्त इनके समर्थन की बेहद जरूरत है। एक बात और, राहुल गांधी खुद को अब तक ऐसे राजनेता के तौर पर पेश नहीं कर पाए हैं, जिसके पास स्पष्ट विजन हो।

समस्या के समाधान की योजना नहीं

हां, वे आर्थिक मोर्चे पर एनडीए सरकार की तमाम नाकामियों, मसलन बेरोजगारी, बैंकों का बढ़ता एनपीए, घटती विकास दर, कृषि संकट, तेल की बढ़ती कीमतें, भ्रष्टाचार और लुढ़कता रुपया इत्यादि को उचित रेखांकित करते हैं, लेकिन उनके पास इनमें से एक भी समस्या के समाधान की योजना नहीं है। आज तक वे हमारे समक्ष एक भी बड़ा दमदार आइडिया पेश नहीं कर सके हैं। दूसरी ओर, मोदी के पास नए-नए आइडियाज की भरमार है। स्वच्छ भारत, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटी, फसल बीमा, किसानों की आय दोगुनी करना इत्यादि के भले ही अब तक वांछित नतीजे न मिल सके हों, लेकिन मोदी ने कम से कम नए-नए विचार तो पेश किए, जो देश में पिछले चौथाई दशक से कायम यथास्थितिवादी मानसिकता को चुनौती पेश करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदम उठाते हुए यह भी दर्शाया कि वे बड़े दांव खेलने के लिए तैयार हैं, चाहे उन्हें हार मिले या जीत!

थाल में सजाकर नहीं मिलने वाली PM की कुर्सी 

राहुल को यह बात समझनी चाहिए कि उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी थाल में सजाकर नहीं मिलने वाली, जैसी कि उनके पिता को मिल गई थी। उन्हें इसके लिए लड़ाई लड़नी होगी। राहुल डेढ़ दशक से राजनीति में हैं, पांच साल तक पार्टी के उपाध्यक्ष रहे हैं और पांच महीने से अध्यक्ष हैं, लेकिन अब भी उनके खाते में कोई चुनावी सफलता दर्ज नहीं है। आलम यह है कि कांग्रेस आज सिद्दरमैया और कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे अपने क्षेत्रीय क्षत्रपों पर पहले के मुकाबले कहीं अधिक निर्भर है।1लिहाजा राहुल गांधी को न सिर्फ चुनाव जीतने होंगे, बल्कि देश के आम लोगों का भरोसा भी जीतना होगा। उसके बाद ही वे सहयोगियों में अपनी स्वीकार्यता की उम्मीद कर सकते हैं और तभी वे पीएम पद के एक गंभीर दावेदार बन सकते हैं।

राहुल गांधी का सियासी करियर

राहुल गांधी ने अपने सियासी करियर में एक दशक (2004-2014) तक अपने काम को गंभीरता से नहीं लिया। वह पार्टी कार्यकर्ताओं के बजाय अपने मित्रों के साथ ज्यादा वक्त बिताते नजर आते थे। लेकिन वर्ष 2014 के आम चुनाव में मिली शर्मनाक हार संभवत: उनके जीवन में निर्णायक मोड़ लेकर आई। वर्ष 2013 में उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से कहा था कि सत्ता जहर है, लेकिन जब उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव में 44 सीटों तक सिमट गई, तब जाकर उन्हें अहसास हुआ कि सत्ता तो वास्तव में पार्टी के लिए संजीवनी है। पार्टी के पराभव के चलते हिमंत बिस्व सरमा, एसएम कृष्णा और रीता बहुगुणा जोशी जैसे कई दिग्गज नेताओं ने पाला बदलते हुए भाजपा का दामन थाम लिया। वहीं राव इंद्रजीत सिंह और होशंगाबाद से सांसद उदय प्रताप सिंह जैसे कुछ नेता लोकसभा चुनाव से पहले ही भाजपा में चले गए और अपनी सीटें जीतने में कामयाब रहे।

छवि को बदलने के लिए खूब मेहनत

यह सही है कि राहुल गांधी ने अपनी छवि को बदलने के लिए खूब मेहनत की, लेकिन वह प्रधानमंत्री पर निजी हमले करने से खुद को रोक नहीं पाते जो उनके लिए आत्मघाती साबित होता है। उनका यह बचकाना कथन कि यदि मैं बोलूंगा तो प्रधानमंत्री 15 मिनट भी मेरे सामने बैठ नहीं पाएंगे, मोदी के लिए उनके कर्नाटक चुनाव प्रचार अभियान में बहुत उपयोगी साबित हुआ। मोदी ने इसे आधार बनाते हुए राहुल के वंशवादी मूल का राग छेड़ दिया।राहुल के लिए मुख्य चुनौती जनता को यह दिखाना है कि उनके पास उपनाम के अलावा भी बहुत कुछ है और सिर्फ नामदार नहीं, बल्कि कामदार भी हैं। वह दौर अब नहीं रहा, जब देश में कांग्रेस की तूती बोलती थी। अब तो वंशवादियों को भी मैदान में खुद को साबित करना होगा।

[लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं] 


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