Rafale jets India: देश में लैंडिंग से पहले जानिए किन राजनीतिक घमासान से गुजर चुका है राफेल
Rafale jets India आखिरकार दो साल की सौदेबाजी के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने 2016 में दासौ से सभी हथियारों से लैस 36 राफेल विमान खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर किया।
नीलू रंजन, नई दिल्ली। कारगिल युद्ध से शुरू हुई मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट की खोज लद्दाख में चीन के साथ तनातनी के बीच बुधवार को पूरी होगी। अंबाला एअरबेस पर पांच राफेल विमान के पहुंचने के बाद भारत की मारक क्षमता बढ़ना तय है। लेकिन इसे हासिल करने से पहले देश को भीषण राजनीतिक घमासान के दौर से गुजरना पड़ा है। संसद के भीतर नारे-हंगामे और सुप्रीम कोर्ट में कानूनी दांव-पेंच से लेकर लोकसभा चुनाव के दौरान 'चौकीदार चोर है' और 'मैं भी चौकीदार' के नारे के साथ आम जनता के दिलो-दिमाग में भी यह लड़ाई लड़ी गई। वैसे इस लड़ाई का पटाक्षेप सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेस समेत कुछ नेताओं की याचिका खारिज होने के साथ हुई थी। यह सवाल भी खड़ा हुआ था कि सुरक्षा से जुड़े मुद्दे में देर नहीं होनी चाहिए जो जाहिर तौर पर राफेल के मामले में हुई।
पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान की लगभग एक दशक की तलाश के बाद 2011 में भारतीय वायुसेना ने यूरो फाइटर और राफेल को उपयुक्त पाया। इसके बाद तत्कालीन संप्रग सरकार ने किफायती होने के आधार पर राफेल के साथ सौदे को तरजीह दी और 2012 में सौदे के लिए बातचीत शुरू भी हो गई। लेकिन दो साल तक यह बातचीत बेनतीजा रही और 2014 के आम चुनाव में संप्रग सत्ता से बाहर हो गई। बाद में संसद के भीतर तत्कालीन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने आरोप लगाया कि कतिपय निहित स्वार्थ की वजह से राफेल बनाने वाली कंपनी दासौ पर बेवजह दबाव बनाने की कोशिश की गई और समझौता नहीं होने दिया गया। जाहिर तौर पर इसी बहाने पुरानी रक्षा खरीदों में हुई अनियमितताओं को लेकर भी विवाद खड़ा हुआ।
2016 में पीएम मोदी ने 36 राफेल विमान खरीदने का किया सौदा
आखिरकार दो साल की सौदेबाजी के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने 2016 में दासौ से सभी हथियारों से लैस 36 राफेल विमान खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर किया। यह दो देशों के बीच समझौते के आधार पर हुआ जाहिर है कि इसमे से बिचौलिया गायब था। शर्त के अनुरूप दासौ को कुल सौदे के 50 फीसदी का ऑफसेट कांट्रेक्ट भारतीय कंपनियों को देना तय हुआ। इसके लिए दासौ ने लगभग 100 भारतीय कंपनियों के साथ करार भी किया, जिनमें अनिल अंबानी की कंपनी रिलांयस डिफेंस भी शामिल थी। कांग्रेस की ओर से सबसे पहला हमला इसी ऑफसेट कांट्रैक्ट को लेकर हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर दासौ कंपनी पर दबाव बनाकर अंबानी को कांट्रैक्ट देने का आरोप लगाया गया। पूरे सौदे पर सवालिया निशाने लगाने के लिए पुराने सौदे की तुलना में नए सौदे में राफेल की कीमत को तीन गुना बताया गया। यहां तक कि इस सौदे को लेकर रक्षा मंत्रालय में मतभेद और पीएमओ के बेवजह दखल को भी मुद्दा बनाने की कोशिश हुई। 2014 में शुरू हुआ भाजपा के विजय अभियान को रोकने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेताओं को राफेल के सहारे सरकार को भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरना राजनीतिक रूप से फायदेमंद लगने लगा। पर बात नहीं बनी।
सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा विवाद
रक्षा सौदों में दलाली के आरोपों की पुरानी परंपरा को देखते हुए यह उम्मीद की जा रही थी कि आम जनता इस पर आसानी से भरोसा कर लेगी और जबतक सच्चाई सामने आएगी, इसका राजनीतिक फायदा मिल चुका होगा। लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों के मोदी सरकार पर चस्पा नहीं होने और संसद में विपक्ष की जोर आजमाइश बेनतीजा साबित होते देख सुप्रीम कोर्ट में विवाद को पहुंचाया। लेकिन सिलबंद लिफाफे में सारे दस्तावेजों को देखने के बाद सौदे से संतुष्ट सुप्रीम कोर्ट ने इसकी सीबीआइ जांच की जरूरत से इनकार कर दिया।
'चौकीदार चोर है' और 'मैं भी चौकीदार' के नारे भी आए सामने
तब तक फिर से 2019 लोकसभा चुनाव दहलीज पर थी और इसीलिए कांग्रेस और खासतौर से राहुल ने यह बोलकर राजनीतिक मुद्दा गर्म कर दिया कि उनकी खुद फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति से बात हुई थी और उन्होंने भी परोक्ष रूप से यह माना था कि अंबानी को कांट्रेक्ट देने के लिए दबाव बना था। यह और बात है कि वर्तमान फ्रांस सरकार ने ऐसे किसी बात से इनकार किया। जाहिर है कि यह मुद्दा भारत से लेकर फ्रांस तक में गर्म रहा। लोकसभा चुनाव के बीच 'चौकीदार चोर है' और 'मैं भी चौकीदार' के नारे लगे। सरकार की ओर से दावा किया गया कि मोदी सरकार के काल में कांग्रेस सरकार के दौरान किए गए करार से सस्ता राफेल लिया गया है। इस आरोप प्रत्यारोप के दौर में एक मीडिया कंपनी भी कांग्रेस की हिस्सेदार बनती दिखी। एक वक्त में यह माना जाने लगा था कि यह मुद्दा लोकसभा चुनाव पर अपना असर दिखाएगा।
यही कारण है कि सबकी नजरें सुप्रीम कोर्ट पर भी लगी थी जहां कांग्रेस नेताओं के साथ साथ भाजपा से बाहर हो चुके यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी जैसे नेताओं ने राफेल और सरकार को घेरने की कोशिश की थी। एक मौके पर राहुल गांधी भी अवमानना के एक मामले में कोर्ट के लपेटे में आ गए थे जिसमें बाद में उन्हें माफी मांगनी पड़ी। कोर्ट ने राफेल में किसी भी जांच से इनकार कर दिया था और यह भी आगाह किया था कि सुरक्षा मामलों में देरी नहीं होनी चाहिए।