दोधारी तलवार तो नहीं प्रियंका का आना.. दांव पर लगी किसकी साख?
प्रियंका के आने से भाजपा को ज्यादा सतर्क रहना पड़ेगा क्योंकि कांग्रेस की नजर अगड़ी जातियों के वोटों पर होगी।
प्रशांत मिश्र। कांग्रेस ने आखिरकार वही किया जिसकी मांग अरसे से हो रही थी। प्रियंका गांधी वाड्रा अब औपचारिक रूप से कांग्रेस में सक्रियता से दिखेंगी। उन्हें महासचिव बनाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान दे दी गई है। पर जिस माहौल में प्रियंका को उतारा गया है उससे दो सवाल प्रमुखता से उभरते हैं। पहला तो यह कि इस चुनाव में दांव पर कौन है- प्रियंका या राहुल गांधी? दूसरा यह कि क्या दस साल से उत्तर प्रदेश के दो संसदीय क्षेत्र अमेठी और रायबरेली में सक्रिय रहीं प्रियंका में क्या अभी भी ट्रंप कार्ड जैसा प्रभाव बाकी है? इस लिहाज से कांग्रेस के लिए अगले चार महीने बहुत अहम हैं।
यह खबर पिछले दस वर्षों में कई अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में बार-बार लिखी गई है कि कांग्रेस प्रियंका को सामने ला सकती है। प्रियंका में इंदिरा की छवि का इजहार भी किया जाता रहा है। खुद कांग्रेस में उनकी उर्जा और राहुल के मुकाबले उनके वकृत्व का भी बखान होता रहा है। उन्हें क्यों लाया गया है इसमें किसी को संदेह नहीं है- लोकसभा में बेहतर प्रदर्शन करने की और संभवावना हो तो सरकार में आने की हर कोशिश हो रही है। और खासकर हतोत्साहित कार्यकर्ताओं में जान फूंकने की कवायद है। इसीलिए यह जानते हुए कि अब शायद प्रियंका का कार्ड बंद मुट्ठी का खेल नहीं है। उन्हें जनता ने काफी देखा और सुना है।
रायबरेली और अमेठी के क्षेत्र में आने वाले विधानसभा क्षेत्रों में वह कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाई हैं। हां, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि उनके आने से भाजपा को ज्यादा सतर्क रहना पड़ेगा क्योंकि कांग्रेस की नजर अगड़ी जातियों के वोटों पर होगी।
पर राहुल गांधी ने प्रियंका को बधाई देते हुए जो विरोधाभाषी बयान दिए हैं उससे जनता ही नहीं पार्टी के कार्यकर्ता भी जरूर भ्रमित हो गए हैं। राहुल ने एक तरफ तो कांग्रेस के खुल कर फ्रंट फुट पर खेलने की बात कही, वहीं बसपा और सपा के प्रति नरम रहने का भी बयान दे दिया है। तो क्या अर्थ लगाया जाए कि कहने को तो कांग्रेस पूरे उत्तर प्रदेश में लड़ रही है लेकिन वह दिखावा है? वह बसपा और सपा के खिलाफ नहीं लड़ेंगे? उनके उम्मीदवार जीतने के लिए नहीं हारने के लिए मैदान में उतरेंगे? एक तरफ बहन प्रियंका के हाथ मे कमान देते हैं और दूसरी तरफ उन्हें कमजोर पिच पर खेलने को मजबूर कर रहे हैं। कार्यकर्ता को यह संदेश कि वह बसपा-सपा जैसे गठबंधन उम्मीदवारों के खिलाफ कुछ नहीं बोलेंगे? और अगर ऐसा है तो प्रियंका के चेहरे पर कोई वोटर कैसे वोट देगा?
दरअसल, यहीं दूसरा सवाल खड़ा होता है- कि आखिर दांव पर कौन है? उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की क्या स्थिति है यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में कांग्रेस प्रदेश में अपनी राजनीतिक बदहाली से नहीं उबरती है तो असफलता का दाग प्रियंका पर भी लगेगा। वहीं अगर वह कांग्रेस के पुराने वोट वर्ग का समर्थन पाने में सफल होती है जिसमें अगड़ी जाति के साथ साथ दलित और मुस्लिम भी शामिल है तो भाजपा के साथ साथ सपा-बसपा के लिए भी झटका होगा। दलित के मजबूत चेहरे के रूप में तो खैर मायावती खड़ी हैं, लेकिन मुस्लिमों को लंबरदार सपा ही खुद को मानती है।
प्रियंका असर दिखाने में सफल होती हैं तो मुस्लिम का एक बड़ा वर्ग भी टूटेगा और नुकसान सीधे तौर पर सपा को होगा। लेकिन उससे बड़ा झटका पार्टी के अंदर राहुल समर्थकों को लगेगा। दरअसल, उत्तर प्रदेश की जमीन से कई बार प्रियंका के समर्थन में मांगे उठी हैं। कभी सीधे तौर पर तो कभी परोक्ष तौर पर राहुल से मुकाबले में उन्हें आगे बताया जाता रहा है। आज भी कांग्रेस के अंदर एक ऐसा धड़ा जिंदा है जो प्रियंका को आगे करना चाहता है। उन्हें बल मिलेगा। कहा जा सकता है कि प्रियंका का सक्रिय राजनीति में आना फिलहाल कांग्रेस के लिए दोधारी तलवार के समान है।