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पीएम की सुरक्षा सवरेपरि, केंद्र की मजबूती में ही देश और संघीय ढांचे की भलाई निहित

बीते सप्ताह पंजाब दौरे पर गए प्रधानमंत्री मोदी के काफिले को करीब 20 मिनट तक एक फ्लाईओवर पर रुकना पड़ा। अपर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था के कारण प्रधानमंत्री को अपने कार्यक्रम रद कर वहां से लौटना पड़ा। इस मुद्दे पर केंद्र और पंजाब सरकार की ओर से आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 10 Jan 2022 11:14 AM (IST)Updated: Mon, 10 Jan 2022 02:48 PM (IST)
पीएम की सुरक्षा सवरेपरि, केंद्र की मजबूती में ही देश और संघीय ढांचे की भलाई निहित
पंजाब के फिरोजपुर में जिन स्थितियों से प्रधानमंत्री के काफिले को दो-चार होना पड़ा, उससे उठ रहे कई सवाल। फाइल

उमेश चतुर्वेदी। जिस देश ने सुरक्षाकर्मियों के ही हाथों अपना एक प्रधानमंत्री खोया हो और जिसके एक पूर्व प्रधानमंत्री को लचर सुरक्षा व्यवस्था के चलते अपनी जान गंवानी पड़ी हो, उसके प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था में चूक हो जाए तो यह राष्ट्रीय चिंता का विषय होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य यह कि पांच जनवरी की घटना राष्ट्रीय चिंता का विषय नहीं, बल्कि राजनीति के दांवपेच का खेल बन गई है। प्रधानमंत्री द्वारा अधिकारियों से यह कहना कि अपने सीएम चन्नी को धन्यवाद देना कि वे (प्रधानमंत्री) जिंदा बठिंडा पहुंच गए हैं, पर सोचने के बजाय राजनीति हो रही है। कांग्रेस के पढ़े-लिखे प्रवक्ता इसे पंजाब के सम्मान से जोड़कर देख रहे हैं।

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विश्व का सबसे बड़ा और व्यापक लोकतंत्र होने की हम अक्सर दुहाई देते हैं। मौके-बेमौके हम यह जताने की कोशिश करते हैं कि अशिक्षा और गरीबी के बावजूद हमने आजादी के बाद लोकतंत्र का जो बिरवा रोपा, वह न केवल पुष्पित-पल्लवित हुआ, बल्कि ऐसा वटवृक्ष बन गया है, जिसके नीचे लोकतंत्र की चाहत रखने वाली दुनिया की तमाम ताकतें उम्मीद भरी निगाहों से देखती हैं। लेकिन राष्ट्रीय और राजनीतिक मुद्दों के बीच की महीन लकीर खींचने की लोकतंत्र की जो बुनियादी शर्त होती है, क्या हम उस शर्त को पूरा करने लायक आत्मनियंत्रण हासिल कर पाए हैं? निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। हो सकता है कि प्रधानमंत्री की अपनी शैली में कुछ कमियां हैं, अगर ऐसा है भी तो लोकतंत्र का तकाजा यह कहता है कि उसका मर्यादित विरोध किया जाए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि मर्यादा की बुनियाद को ही हिला दिया जाए और उनके खिलाफ नफरत की ऐसी आंधी फैलाई जाए, जिससे लोकतंत्र की बुनियाद ही हिल जाए। विशेषकर 2014 के बाद से यही हो रहा है। मर्यादाओं की सीमाएं लगातार लांघी जा रही हैं। फिर भी हमारे राजनीतिक दल न केवल अपने लोकतंत्र को मजबूत होने का लगातार दावा करते रहते हैं, बल्कि खुद को ज्यादा लोकतांत्रिक भी घोषित करते रहते हैं।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिस जगह प्रधानमंत्री की सुरक्षा की सबसे बड़ी चूक नजर आई, वह जगह पाकिस्तानी सीमा से केवल 30 किलोमीटर ही है। यह ठीक है कि प्रधानमंत्री के दौरे के चलते भारतीय वायुसेना कुछ ज्यादा ही चौकस होगी, लेकिन यह क्यों भूल जाते हैं कि आए दिन पाकिस्तान की ओर से तमाम तरह के पायलट रहित हथियारयुक्त ड्रोन और टोही विमान भारतीय सीमा में घुसपैठ कराए जाते रहते हैं। यदि पाकिस्तान की ऐसी कोई घुसपैठ कामयाब हो जाती तो फिर नतीजों का अनुमान ही लगाया जा सकता है?

भारतीय मानसिकता चाहे कारपोरेटीकरण की समर्थक हो या विरोधी, उसकी एक अभीप्सा तो अमेरिका जाना या अमेरिका जैसा बनना ही है। भारत के वामपंथी अमेरिकी नीतियों का विरोध तो करते हैं, लेकिन जब भी लोकतंत्र, नागरिक अधिकार और नागरिक सहूलियतों का सवाल उठता है, वे अमेरिका को ही मानक के तौर पर प्रस्तुत करते हुए भारतीय व्यवस्था की आलोचना करते हैं। उसी अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन पर एक बार पद पर रहते हुए हमला हुआ था। तब उनकी सुरक्षा व्यवस्था की खामियों को पता लगाने के साथ ही नई व्यवस्था सुझाने के लिए अमेरिकी सरकार की ओर से एक आयोग बना था। उसने अपनी जो रिपोर्ट दी, उसे अक्षरश: लागू किया गया। यह नहीं देखा गया कि रीगन रिपब्लिकन राष्ट्रपति हैं या डेमोक्रेट। वहां राष्ट्रपति को एक संस्था के तौर पर देखा गया।

पंजाब में प्रधानमंत्री की सुरक्षा चूक के पीछे की राजनीति को लेकर भाजपा के अलावा भले ही कोई खुलकर नहीं बोल रहा हो, लेकिन आम राय यह बनी है कि इस चूक के पीछे दलीय राजनीति जरूर रही है। भारतीय व्यवस्था में केंद्र और राज्य के बीच की खींचतान नई बात नहीं रही। लेकिन हाल के वर्षो में विशेषकर उन राज्यों की ओर से संवैधानिक व्यवस्था और अधिकारों की मनमानी व्याख्या व नियमन बढ़ा है। याद कीजिए, साल 2019 की कोलकाता की घटना। शारदा घोटाले की जांच कर रही सीबीआइ की टीम जब कोलकाता पहुंची तो कोलकाता के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर राजीव सिंह की अगुआई में केंद्रीय जांच टीम को ही बंधक बना लिया गया। स्वयं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे जायज ठहरा दिया। शुक्र है कि अभी न्यायपालिका का इकबाल है और सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राज्य सरकार के साथ ही कोलकाता के पुलिस कमिश्नर की क्लास लगाई थी। इसी तरह की कहानियां आपको हाल के दिनों में महाराष्ट्र में भी खूब दिखेंगी। दिलचस्प यह है कि केंद्र में शासन चला रही पार्टी के विरोधी दलों की बंगाल और महाराष्ट्र में सरकारें हैं। राज्य सरकारें जब भी ऐसे संविधानेतर कदम उठाती हैं तो उसके लिए वे संविधान का ही हवाला देती हैं।

डा. राममनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘इतिहासचक्र’ में माना है कि भारत के लंबे समय तक गुलाम रहने की बड़ी वजह केंद्रीय स्तर पर मजबूत सत्ता का न होना रहा है। भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले सेनानी भी इस तथ्य को मानते थे। यही वजह है कि आजाद भारत को मजबूत केंद्रीय व्यवस्था के तहत राष्ट्र बनाने की कोशिश हुई। इसमें संविधान सभा के सरदार हुकुम सिंह, काका भगवंत राय, ब्रजेश्वर प्रसाद जैसे लोगों के विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सरदार पटेल तो मजबूत केंद्र के हिमायती थे ही। मध्य प्रदेश के वरिष्ठ सूचना अधिकारी रहे देवीलाल बाफना ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘यादों के झरोखे से’ में लिखा है कि किस तरह सरदार पटेल के सामने मुख्यमंत्रियों की घिग्घी बंधी रहती थी।

आधुनिक भारतीय लोकतंत्र में कोई नहीं चाहेगा कि किसी मुख्यमंत्री की केंद्रीय गृहमंत्री या प्रधानमंत्री के सामने घिग्घी बंधे, लेकिन बुनियादी मर्यादा की उम्मीद तो उससे की ही जा सकती है। लेकिन यह मर्यादा इसलिए छीज रही है, क्योंकि संघवाद के नाम पर जारी विमर्श में राज्यों को ज्यादा अधिकार संपन्न बनाने की बात हो रही है। इस बहाने केंद्र के अधिकार परोक्ष रूप से छीज भी रहे हैं।

यह सच है कि केंद्रीय एजेंसियां, मसलन प्रवर्तन निदेशालय, आयकर और सीबीआइ भी केंद्रीय सत्ताओं के इशारे पर काम करती रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि राज्यों के पास न्यायिक पुनरीक्षण का अधिकार है। वे केंद्र की बेजा हरकतों के खिलाफ न्यायपालिका की शरण ले सकते हैं। लेकिन अगर राज्यों के खिलाफ केंद्र न्यायपालिका की शरण में जाने लगेगा तो मजबूत केंद्र की अवधारणा को ही चोट पहुंचेगी। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि केंद्र में चाहे जिस भी पार्टी की सरकार हो, मजबूत केंद्र की अवधारणा को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। जिस दिन मजबूत केंद्र की अवधारणा में दरारें पड़ने शुरू हो जाएंगी, देश की एकता की नींव हिलने लगेगी। इस ओर राजनीति को ध्यान देना ही होगा। संविधान सभा की बहसें इस दिशा में कारगर उदाहरण साबित हो सकती हैं।

केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर संविधान सभा में 29 अगस्त 1949 से लेकर तीन सितंबर 1949 तक बहस हुई थी। उन दिनों भारत को नई-नई आजादी मिली थी। चूंकि संविधान सभा का गठन भी प्रत्यक्ष लोकनिर्वाचन से नहीं हुआ था, इसलिए लोक दबाव उसके कुछ सदस्यों पर कम ही महसूस होता था। बहरहाल छह दिनों तक चली संविधान सभा की इन बहसों में राष्ट्रीय नेताओं जैसे राजेंद्र प्रसाद और डा. बी. आर. आंबेडकर ने हर बार मजबूत केंद्र की वकालत की। जबकि कई राज्यों और प्रांतों के नेता केंद्र की मजबूती के तर्क से सहमत नहीं थे।

पूर्वी पंजाब से संविधान सभा में चुनकर आए सरदार हुकुम सिंह और पटियाला-पूर्वी पंजाब से चुनकर आए काका भगवंत राय भी मजबूत केंद्र के पक्षधर थे। केंद्र की मजबूती की वकालत करते हुए संविधान सभा में सरदार हुकुम सिंह ने कहा था कि हर दिन बीतने के साथ, भारत लगातार एकात्मक प्रणाली की ओर अधिक से अधिक प्रगति कर रहा है। ऐसा केवल युद्ध के समय में ही नहीं हुआ, बल्कि सामान्य दिनों में भी हुआ है। इसलिए केंद्र को ज्यादा ताकतवर बनाया जाना चाहिए। पंजाब से ही चुनकर आए काका भगवंत राय की भी राय कुछ ऐसी ही थी। उन्होंने तो राज्यों को अत्यधिक अधिकार देने का खुलकर विरोध भी किया। संविधान सभा में उन्होंने कहा था, ‘भारत बहुत बड़ा देश है। उसके कई प्रांत हैं। इन प्रांतों की अपनी कठिनाइयां हैं और वे केंद्र की तुलना में उनकी समस्याओं को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि राज्यों को ज्यादा अधिकार संपन्न बना दिया जाए।’

कुछ ऐसी ही राय संविधान सभा में बिहार से चुनकर आए सदस्य ब्रजेश्वर प्रसाद की भी थी। संविधान के अनुच्छेद 266 पर चर्चा के दौरान उन्होंने जो कहा था और जो आशंकाएं जताई थीं, वे आजादी के 75 साल बीतते-बीतते सच होती दिखने लगी हैं। संविधान के अनुच्छेद 266 में राज्य को संघ के कराधान से छूट देने का अधिकार देने के लिए संविधान सभा में नौ सितंबर 1946 को प्रस्ताव रखा गया था। इस पर चर्चा करते हुए तब ब्रजेश्वर प्रसाद ने कहा था, ‘इस प्रविधान के समर्थन में एकमात्र संवैधानिक औचित्य यह है कि इस तरह के प्रविधान को कनाडा या आस्ट्रेलिया के संविधान में जगह मिलती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत कनाडा या आस्ट्रेलिया जैसा ब्रिटिश राज का हिस्सा है। भारतीय इतिहास के तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। भारतीय प्रांत और राज्य किसी भी अर्थ में कभी भी संप्रभु नहीं रहे हैं। वे भारत सरकार के सेवक और एजेंट रहे हैं। न केवल संवैधानिक आधार पर, बल्कि राजनीतिक आधार पर भी मैं इस अनुच्छेद का विरोध करता हूं। यह जोखिम भरा है, प्रांतों को व्यापक स्वायत्तता देना खतरनाक है।’

यह बिडंबना ही है कि जिस पंजाब के सरदार हुकुम सिंह और काका भगवंत राय ने राज्य को मजबूत अधिकार देने का विरोध किया, उसी पंजाब में प्रधानमंत्री की सुरक्षा में राज्य के प्रशासनिक तंत्र द्वारा चूक होती है और कहां तक इस चूक पर सवाल उठना चाहिए, उसे दूर करने की कोशिश होनी चाहिए तो उलटे इस पर राजनीति हो रही है।

[वरिष्ठ पत्रकार]


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