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पत्‍थलगड़ी: जहां आदिवासी समाज का है अपना नियम और कानून

अधिकारों के लिए अहिंसक संघर्ष करना तो स्वीकार्य है, लेकिन समानांतर व्यवस्था खड़ी कर लेना और सरकार को पूरी तरह अस्वीकार कर देने का समर्थन नहीं किया जा सकता है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sat, 21 Jul 2018 10:21 AM (IST)Updated: Sat, 21 Jul 2018 10:21 AM (IST)
पत्‍थलगड़ी: जहां आदिवासी समाज का है अपना नियम और कानून
पत्‍थलगड़ी: जहां आदिवासी समाज का है अपना नियम और कानून

(अवधेश कुमार)। इस समय झारखंड का पत्थलगड़ी आंदोलन देशव्यापी सुर्खियां बना है। हालांकि यह माओवाद प्रभावित राज्यों के आदिवासी इलाकों में काफी समय से चल रहा है, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा में तब आया जब पिछले दिनों लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष और भाजपा के खूंटी से सांसद करिया मुंडा के चार सुरक्षा गार्ड अगवा कर लिए गए। बाद में वे रिहा हो गए, किंतु उसके लिए पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। दरअसल हाल में हुए खूंटी सामूहिक दुष्कर्म कांड के आरोपियों को पकड़ने के लिए पुलिस गई थी। आसपास के गांवों के लोग वहां एकत्रित थे। उन्होंने पुलिस को गांवों में घुसने से रोका, सुरक्षा बलों के साथ मोर्चाबंदी की। आरंभ में पुलिस को पीछे हटना पड़ा। ग्रामीण उन्हें धकेलते हुए बढ़ते-बढ़ते करिया मुंडा के आवास तक पहुंचे तथा वहां से सुरक्षा गार्डो को बंधक बनाकर ले गए। बाद में पुलिस ने कार्रवाई की तो दूसरी ओर से भी आदिवासियों के पारंपरिक हथियारों से उनको जवाब मिला। अंतत: सुरक्षाकर्मियों को विजय मिलनी ही थी।

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प्रशासन के लिए स्थिति विकट

प्रशासन के लिए स्थिति कितनी विकट थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाइए कि मुंडा के गार्डो को रिहा करने के लिए पत्थलगड़ी समर्थकों ने शर्त रखी कि कलेक्टर और एसपी समेत सिर्फ 5 लोग उनसे बातचीत करने गांव के अंदर आएं, लेकिन ये जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। उन्हें भय था कि इन पांचों को भी बंधक बना लिया जाएगा। पत्थलगड़ी आंदोलनकारियों के खिलाफ यह अब तक की सबसे बड़ी सुरक्षा कार्रवाई थी। वहां की जो तस्वीरे आई हैं उनमें गांव में प्रवेश करने वाली सड़क पर तीर-धनुष, फरसे-टांगी और लाठी-डंडों के साथ बंदूक की शक्ल वाले धनुष के ढेर लगे हुए थे। जिन वाहनों से पत्थलगड़ी समर्थक गांव में पहुंचे थे ऐसे लगभग तीन सौ मोटरसाइकिलें और साठ सवारी गाड़ियां खड़ी थीं। इन तस्वीरों से पता चलता है कि आंदोलन काफी सशक्त हो चुका है। निश्चित रूप से यह स्थिति डरावनी है।

पहले यह समझें कि पत्थलगड़ी क्या है?

आदिवासी बहुल इलाकों में पत्थलगड़ी की सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा है। इसमें गांव के श्मशान से लेकर गांव की सीमा तक पत्थर गाड़कर संदेश दिया जाता है। गांव और जमीन की सीमा इंगित करने, किसी व्यक्ति की स्मृति में, महत्वपूर्ण अवसरों को याद रखने तथा समाज के महत्वपूर्ण फैसले को लोगाें तक पहुंचाने के लिए धरती में पत्थर गाड़ते हैं। इसका पारंपरिक महत्व किसी सरकारी दस्तावेज या सीमांकन से ज्यादा है। इसे ही पत्थलगड़ी कहा जाता है। यही पत्थलगड़ी अब क्षेत्रों में सरकार को नकारने तथा स्वतंत्र व्यवस्था स्थापित करने के आंदोलन के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। पत्थलगड़ी अभियान के तहत आदिवासी अपने संदेश को पत्थर पर लिखकर गांव की सीमा के पास गाड़ देते हैं। इस पर लिखा होता है कि गैर आदिवासी को बिना अनुमति गांव में प्रवेश नहीं करना है।

बाहरी लोगों का गांव में आना वर्जित

ऐसे किसी भी बाहरी लोगों का गांव में आना-जाना, घूमना-फिरना वर्जित है जिनके आने से शांति व्यवस्था भंग होने की आशंका हो। इसके समर्थक सरकारी कर्मचारियों को किसी सूरत में गांवों में घुसने देने के विरुद्ध हैं। ये अपने इलाके में राशन कार्ड, आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र को तो नकारते ही हैं सरकारी विद्यालयों और अस्पतालों तक का बहिष्कार कर रहे हैं। कई गांवों में ग्राम सभा बैंक खोल दिए गए हैं जहां गांवों के लोग अपना धन जमा करते हैं और उन्हें पासबुक मिलता है। वास्तव में यह सरकार के भीतर स्वतंत्र समानांतर सरकार वाली स्थिति है। पत्थलगड़ी आंदोलन की पहली सूचना झारखंड के खूंटी क्षेत्र से प्राप्त हुई थी। उसके बाद छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल आदि से भी इसकी खबरें आईं। अगस्त 2017 में खूंटी जिले के कुछ गांवों में पत्थलगड़ी की सूचना मिलने पर पुलिसकर्मियों का एक दल पहुंचा था जिन्हें बंधक बना लिया गया।

बल प्रयोग न करने का निर्देश

जानकारी मिलने पर एसपी भारी संख्या में पुलिस बल लेकर उन्हें छुड़ाने गए, लेकिन ये भी रोक लिए गए। सरकार ने वहां बिल्कुल बल प्रयोग नहीं करने का निर्देश दिया था। जिलाधिकारी आए तथा प्रशासन एवं ग्रामीणों में बातचीत से तत्काल यह संकट समाप्त हो गया। झारखंड में गरीब 100 गावों में पत्थलगड़ी लागू होने की सूचना है। इनमें ऐसे अनेक गांव हैं जहां हर तरह की व्यवस्था ये अपने हाथों ले रहे हैं। यहां तक कि पारंपरिक हथियारों से सुरक्षा ढांचा भी खड़ा किया है। ये पत्थलगड़ी के माध्यम से अपने तरीके की ग्रामसभा शासन की स्थापना की कोशिश कर रहे हैं। वहां नारा लगाया जाता है न लोकसभा न विधानसभा सबसे ऊपर ग्रामसभा। वे कहते हैं वही असली मालिक हैं, उन पर कोई शासन नहीं कर सकता। भारत सरकार उनसे है, न कि वह भारत सरकार से। छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी मावा नाटे मावा राज यानी हमारा गांव, हमारा राज जैसा अभियान चला था। प्रश्न है कि इन सबको कैसे देखा जाए?

चारों ओर है असंतोष 

यह स्वीकार करने में समस्या नहीं है कि व्यवस्था के खिलाफ असंतोष चारों ओर है और आदिवासी इलाकों में काफी ज्यादा है। उन क्षेत्रों में काम करने वाली संस्थाओं, व्यक्तियों ने असंतोष को हवा देकर उनके अंदर आक्रामकता पैदा की है। यह सब सरकारों एवं स्थानीय प्रशासन की विफलताओं की ही परिणति है। जिस तरह की व्यवस्था पत्थलगड़ी क्षेत्रों में देखने में आ रही है वह कुछ दिनों या महीनों के अभियान से नहीं हो सकती। हालांकि वर्तमान राज व्यवस्था के किसी ढांचे में इस तरह की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं हो सकती। आदिवासी इलाकों को अपने क्षेत्र की परंपरा, संस्कृति एवं प्रथा की रक्षा के लिए विशेष अधिकार संविधान भी देता है, लेकिन यह मान लेना बिल्कुल गलत है कि इस अधिकार को आम लोग मनमाने तरीके से लागू कर सकते हैं। हथियारों से अपनी रक्षा का विचार बिल्कुल अमान्य है। अधिकारों के लिए अहिंसक संघर्ष करना तो स्वीकार्य है किंतु समानांतर व्यवस्था खड़ी कर लेना और सरकार को पूरी तरह अस्वीकार कर देने का समर्थन नहीं किया जा सकता है। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे अभियानाें का समर्थन नहीं किया जा सकता है।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)


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